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भारतीय इतिहास और अतीत

(प्रारंभिक परीक्षा- भारत का इतिहास)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अधययन प्रश्नपत्र- 1 : भारतीय संस्कृति  : प्राचीन से आधुनिक काल तक के कला, साहित्य और वास्तुकला के मुख्य पहलू)

संदर्भ

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) द्वारा अंडरग्रेजुएट इतिहास के नए पाठ्यक्रम को लेकर विवाद शुरू हो गया है।

विवाद का कारण

  • आयोग की ओर से स्नातक स्तर के लिये नया पाठ्यक्रम तैयार किया जा रहा है। आरोप है की नए पाठ्यक्रम में मुस्लिम शासकों के महत्त्व को कम करने का प्रयास किया गया है और वैदिक काल व हिंदू धार्मिक ग्रंथों से जुड़े कई मिथक जोड़े गए है।
  • नए पाठ्यक्रम के अनुसार अब इतिहास (आनर्स) में ‘आइडिया ऑफ भारत’ और ‘सिंधु-सरस्वती और उसके पतन के कारणों’ तथा ‘भारत के सांस्कृतिक विरासत’ को शामिल किया जाएगा। साथ ही, नए पाठ्यक्रम में आक्रमणकारी शब्द का प्रयोग केवल मुस्लिम शासकों के साथ किया गया है, जबकि ईस्ट इंडिया कंपनी को भी आक्रमणकारी नहीं कहा गया है।

इतिहास में काल-विभाजन की शुरुआत

  • इतिहास विषय का एक महत्त्वपूर्ण तत्व विभिन्न अवधियों में इसका विभाजन है। इतिहास में काल-निर्धारण (विभाजन) की धारणा यूरोप द्वारा 17वीं सदी के अंत में स्थापित करने से पूर्व सभी समाजों और सभ्यताओं के लिये अनोखी थी। हालाँकि, इसका विकास 16वीं सदी से ईसाई धर्मशास्त्र और चर्च के इतिहास से शुरू हो गया था।
  • प्राचीन, मध्ययुगीन और आधुनिक इतिहास के रूप में त्रि-युगीन विभाजन को वर्ष 1688 में क्रिस्टोफ सेलारियस नाम के एक जर्मन द्वारा औपचारिक स्वरुप प्रदान करते हुए इसे धर्मशास्त्र और चर्च से परे विस्तारित किया गया। साथ ही, जिस प्रकार यूरोप ने विश्व के बाकी हिस्सों में अपने उपनिवेश स्थापित किये, उसी प्रकार इस दृष्टिकोण व प्रणाली के बौद्धिक स्वरुप को भी उसने सार्वभौमिक रूप प्रदान किया था।

भारत का इतिहास और उसके तीन काल

  • भारत में इस धारणा का विकास अधिक विकृत रूप में हुआ। जेम्स मिल ने वर्ष 1817 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘अ हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया’ में इतिहास का विभाजन हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश काल में किया।
  • यद्यपि ‘प्राचीन-मध्ययुगीन-आधुनिक’ नामकरण ने यूरोप के मध्ययुगीन ‘अंधकार युग’ से ‘आधुनिक व तार्किक युग' में प्रवेश का संकेत दिया, जहाँ यूरोप स्वयं के बौद्धिक विकास और क्रांति के दम पर पहुँचा था। जबकि मिल के दृष्टिकोण से भारत अभी भी धर्म के अंधकार युग में फँसा हुआ था जिस कारण ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की आवश्यकता थी।
  • इसका मूल कारण भारतीय इतिहास में मुख्यतः विजय व पराजय, प्रशासनिक तरीकों व राजवंशों तथा व्यक्तिगत शासकों की प्रासंगिक नीतियों को अधिक महत्त्व देना था और इन सबके लिये केवल धर्म को ही उत्तरदाई कारक माना गया।
  • इस प्रकार इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश काल में विभाजित किया गया। हिंदू काल को आर्यों से शुरू करके (क्योंकि हड़प्पा की खोज तब तक नहीं हुई थी) 647 ईस्वी में हर्ष की मृत्यु के साथ समाप्त माना जाना गया। मुस्लिम काल को 1206 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत की स्थापना से 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के साथ समाप्त माना गया और ब्रिटिश काल की शुरुआत वर्ष 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को प्राप्त दीवानी की स्वीकृति के साथ माना गया।647 ईस्वी से 1206 और 1707 से 1765 के बीच के अंतराल को एक ‘ऐतिहासिक सूखे’ के रूप में चिह्नित किया गया था।
  • मिल ने अपने दृष्टिकोण में लंबे समय से विद्यामान हिंदू व मुस्लिम समुदायों के बीच शत्रुता पर जोर दिया, जिसे दो-राष्ट्र सिद्धांत का अग्रगामी माना गया। वर्ष 1903 में स्टेनली लेन-पूले ने नामकरण को 'प्राचीन', 'मध्यकालीन' और 'आधुनिक' में तब्दील कर दिया परंतु विभाजन का आधार स्वतंत्रता के बाद भी वही बना रहा। दोनों विभाजनों के तीनों अवधियों का सीमांकन लगभग समान तारीखों में किया गया और अध्ययन का दायरा भी काफी हद तक मिल के मापदंडों से जुड़ा रहा।

बहुस्तरीय व्याख्या

  • 1960 के दशक में भारतीय इतिहासकारों के अतीत की समझ में एक व्यापक परिवर्तन देखा गया, जिसने पूर्व में किये गए काल विभाजन के महत्त्व को कम कर दिया। साथ ही, राजवंशों और शासकों से संबंधित इतिहास के अध्ययन एवं उनके ऐतिहासिक विवरणों को धर्म के अतिरिक्त अन्य पहलुओं से भी प्रमुखता से जोड़ा गया।
  • इतिहासकारों ने अतीत के नए पहलुओं का पता लगाना शुरू किया। इसमें सामाजिक संरचनाएं, आर्थिक पद्धति, सांस्कृतिक कार्य, राजनीति शक्ति और सामाजिक व नैतिक धारणाएं शामिल है। इसने इतिहास की समझ और व्याख्या को सरल से जटिल एवं बहुस्तरीय बना दिया।
  • शासनकाल और राजवंशों में परिवर्तन को निश्चित तिथियों एवं वर्षों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता हैं परंतु सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन दीर्घकालिक प्रक्रियाओं के रूप में परिलक्षित होते हैं, जिसे विशिष्ट तिथियों, वर्षों या दशकों में नहीं बांधा जा सकता हैं।
  • इस प्रकार, सीमांकन की अवधियों में लचीलापन दिखाई देने लगा और 8वीं से 12वीं शताब्दियों के बीच ‘प्रारंभिक मध्ययुगीन भारत’ में जमीनी स्तर पर होने वाले महत्त्वपूर्ण बदलावों और धारणाओं को रेखांकित किया गया। इसने इस कल को एक नया अर्थ प्रदान किया।
  • साथ ही, 16वीं शताब्दी से शुरू होने वाले 'पूर्व-आधुनिक' अवधि के उपयोग ने भी हाल के दशकों में काफी आकर्षण प्राप्त किया है। वर्ष 1980 और उसके बाद इतिहासकारों ने अत्यधिक विस्तारित आयामों पर कार्य करना शुरू किया।
  • इसमें पारिस्थितिकी का अध्ययन (रेगिस्तान, जंगल और वर्षा), घरेलू, समुदाय एवं राज्य के स्तरों पर इतिहास को आकार देने में महिलाओं की भूमिका, अतीत की धारणाएं, स्थानीय या क्षेत्रीय देवताओं की लैंगिक पहचान व राज्य प्रणालियों में लैंगिक भूमिका (पितृ व मातृ सत्ता), बीमारियाँ व उसका इलाज, ऐतिहासिक पलायन और स्मृतियों का इतिहास शामिल है। पहले से ही इन सबका प्रसार विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में स्नातक स्तर तक हो रहा है।

वर्तमान समस्या

  • यूजीसी का वर्तमान मसौदा स्वतंत्रता के बाद से भारतीय इतिहास के दृष्टिकोण में होने इन परिवर्तनों से पूरी तरह से अनभिज्ञ है। यह जेम्स मिल के औपनिवेशिक प्रारूप में वापस ले जाना चाहता है, जिसके सामाजिक और राजनीतिक परिणामों को देश-विभाजन के रूप में पहले ही देखा चुका है।
  • यूजीसी द्वारा पठन सूची के निर्धारण में 1950 के दशक में लिखी गई पुस्तकों को अधिक महत्त्व दिया गया है, जो वर्तमान के इतिहास के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण को महत्त्वहीन कर देता है।
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