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लंबित मामलों से जूझती भारतीय न्याय व्यवस्था

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का पृथक्करण, विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान, न्यायपालिका की संरचना, संगठन एवं कार्य)

संदर्भ 

वर्तमान में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में 82,000 मामले, उच्च न्यायालयों में 62 लाख से अधिक और निचली अदालतों में लगभग 5 करोड़ मामले लंबित हैं। इनमें लगभग 50 लाख मामले 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।

लंबित मामलों की बढ़ती संख्या का कारण

अत्यधिक जनसंख्या 

एक विशाल आबादी वाला देश होने तथा प्रत्येक विवाद को न्यायालय के माध्यम से सुलझाने का दृष्टिकोण भारतीय न्यायालयों पर मामलों के बोझ को बढ़ा देता है। 

निम्न न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात 

जनसंख्या के अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या भारत में सबसे कम है। यहाँ प्रत्येक दस लाख नागरिकों पर मात्र 21 न्यायाधीश उपलब्ध हैं। भारतीय विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट में प्रति दस लाख जनसंख्या पर 50 न्यायाधीशों की सिफारिश की गई थी। 

विरोधात्मक प्रणाली 

भारतीय न्याय व्यवस्था विरोधात्मक प्रणाली पर निर्भर हैं जहाँ लगभग हर मामले में आदेश पारित होने के दौरान कई अंतरिम आवेदन व अपील की जाती है। इसमें अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय तथा अंतत: सर्वोच्च न्यायालय में अपील, समीक्षा याचिका तथा पुनर्विचार याचिका आदि शामिल हैं। 

बुनियादी ढाँचे एवं क्षमता की कमी 

भारतीय न्याय व्यवस्था बुनियादी ढाँचे, क्षमता एवं वित्त और मानव संसाधनों की कमी का सामना कर रही है। ऐसे में न्यायपालिका को कार्यात्मक मोड पर बनाए रखना ही एक चुनौती है। इसी संदर्भ में भारत के विभिन्न मुख्य न्यायाधीशों ने भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा प्रणाली पर बल दिया है। 

अधीनस्थ न्यायाधीशों के मूल्यांकन का आधार 

  • उच्च न्यायालयों द्वारा अधीनस्थ न्यायालय के न्यायाधीशों का मूल्यांकन उनके द्वारा निपटाए गए मामलों की संख्या के आधार पर किया जाता है। ऐसे में अधीनस्थ न्यायाधीशों द्वारा ऐसे मामलों को वरीयता दी जाती है जो तुलनात्मक रूप से कम जटिल प्रकृति के होते हैं। 
    • ऐसे में जटिल प्रकृति के मामलों के निस्तारण में एक लंबी अवधि बीत जाती है। 

वकीलों द्वारा स्थगन की मांग

समय पर गवाहों की अनुपस्थिति या वादी द्वारा न्यायालय तक पहुँचने में कठिनाई के आधार पर वकीलों द्वारा भी न्यायाधीश से स्थगन की मांग की जाती है। ऐसे में लंबित मामलों की अवधि व संख्या बढ़ती जाती है। 

लंबित मामलों की संख्या कम करने के लिए समाधान 

डाटा गवर्नेंस पर बल 

डाटा गवर्नेंस के माध्यम से लंबित वादों का वर्गीकरण करने से दोहराव से बचा जा सकेगा और मामलों का त्वरित निस्तारण हो सकेगा। 

तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति 

सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को तदर्थ क्षमता में नियुक्त करने से लंबित मामलों की स्थिति को कुछ सीमा तक सुधारने में मदद मिल सकती है। 

प्रतिपूरक या दंडात्मक लागत का प्रावधान 

व्यापक परिप्रेक्ष्य समाधानों के लिए छोटे मामलों (जैसे- मकान मालिक-किरायेदार विवाद और चेक बाउंसिंग) में अनावश्यक मुकदमेबाजी को रोकने के लिए प्रतिपूरक या दंडात्मक लागतों का उपयोग किया जा सकता है। 

मध्यस्थता पर बल 

  • मध्यस्थता को मुख्यत: न्यायालय के सहायक के रूप में स्वीकार किया जाता है जहाँ  वकीलों के नेतृत्व तथा न्यायाधीशों के मार्गदर्शन में पक्षकारों की गोपनीयता बनाए रखते हुए विवादों का समाधान किया जाता है।
  • मध्यस्थता के माध्यम से लिया गया निर्णय किसी भी पक्ष पर थोपने वाला नहीं होता है बल्कि यह व्यावहारिक, निष्पक्ष एवं परस्पर स्वीकार्य समाधान का एक विकल्प प्रस्तुत करता है। 
  • इसमें मुख्यत: सिविल एवं वाणिज्यिक, व्यक्तिगत व संपत्ति और वैवाहिक तथा व्यापारिक विवाद शामिल हैं।
  • वर्तमान में इसे पूर्ण रूप से पेशेवर तरीकों को अपनाना होगा ताकि इसके लाभ व पहुँच को अधिकतम करते हुए न्यायालय पर लंबित मुकदमों के बोझ को कम किया जा सके।
  • ऐसे में भारतीय न्याय प्रणाली में लंबित मामले मध्यस्थ के लिए एक अवसर प्रदान करते हैं। 
    • वर्तमान में एक ऐसी प्रणाली की आवश्यकता है जो मामले के पक्षकारों को एक प्रशिक्षित और अनुभवी मध्यस्थ चुनने तथा सेवा के लिए उचित शुल्क का भुगतान करने की उपलब्धता सुनिश्चित करे। 
    • मध्यस्थता के माध्यम से विवादों के समाधान की लागत न्यायिक प्रक्रिया की तुलना में अत्यंत कम होती है। 
  • मध्यस्थता के परिणाम मुकदमेबाजी के परिणामों की तुलना में बेहतर होते है। इसके व्यावहारिक समाधान दोनों पक्ष स्वीकार करते हैं जिससे प्राय: संबंधों की बहाली भी होती है।

न्यायमूर्ति एम. जगन्नाथ राव समिति की सिफारिशों को लागू करना 

  • न्यायमूर्ति एम. जगन्नाथ राव समिति ने प्रत्येक कानून के ‘न्यायिक प्रभाव मूल्यांकन’ का प्रस्ताव रखा था। 
  • इस समिति ने सुझाव दिया था कि प्रत्येक विधेयक में नए विधेयक से उत्पन्न होने वाले अतिरिक्त मामलों के खर्च का अनुमान लगाया जाना चाहिए। 
    • नए विधेयक से उत्पन्न होने वाले संभावित दीवानी एवं आपराधिक मामलों की संख्या, आवश्यक अदालतों, न्यायाधीशों तथा कर्मचारियों की संख्या व बुनियादी ढाँचे का उल्लेख किया जाना चाहिए। 
  • उच्च न्यायालय एवं संबंधित राज्य सरकार को जिला न्यायपालिका में प्रस्तावित रिक्ति को भरने की प्रक्रिया छह महीने पहले शुरू करने के लिए सहयोग करना चाहिए। 
  • किसी न्यायाधीश को कोई अतिरिक्त प्रभार नहीं दिया जाना चाहिए ताकि वह अपने न्यायालय में मामलों पर ध्यान केंद्रित कर सके।

आगे की राह  

  • न्यायालय के समय निर्धारण संबंधी मुद्दों को संबोधित करने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण आवश्यक है जो नियमों एवं समय-सीमाओं से परे होने के साथ ही सभी हितधारकों को प्रोत्साहित करने पर केंद्रित हो। 
  • न्यायाधीशों का मूल्यांकन उनके द्वारा निपटाए गए मामलों की संख्या के आधार के साथ ही निर्धारित समय-सीमाओं के भीतर अधिक जटिल मामलों को प्रबंधित करने एवं सुलझाने की उनकी क्षमता के आधार पर भी किया जाना चाहिए। 
  • केस प्रबंधन प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है ताकि जटिल मामलों को प्राथमिकता दी जा सके, जिनमें पर्याप्त न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है।
  • मामलों के संबंध में वकीलों में व्याप्त अनिश्चितता को कम करने और अनावश्यक स्थगन से बचने के लिए बेहतर शेड्यूलिंग जानकारी की आवश्यकता है।
    • न्यायालयों को पूर्वानुमानित शेड्यूलिंग सिस्टम लागू करना चाहिए जिसके तहत  देरी के लिए दंड का प्रावधान जबकि शेड्यूल का पालन करने वाले वकीलों को पुरस्कृत करना चाहिए। 
  • तकनीकी समाधान केस प्रबंधन के संबंध में वास्तविक समय अपडेट प्रदान करने के साथ ही समयसीमा की निगरानी कर सकते हैं। 
    • न्यायालय समयबद्धता संबंधी बाधाओं की पहचान करने और उन्हें दूर करने के लिए डाटा-संचालित दृष्टिकोण अपना सकते हैं जिससे समग्र न्यायिक दक्षता में सुधार होगा।
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