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रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रति भारत का अंतर्राष्ट्रीय दायित्व

(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : केन्द्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय।)

संदर्भ  

भारत में हिरासत में लिए गए रोहिंग्या शरणार्थियों से संबंधित एक हालिया अध्ययन ने भारत की “अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों के तहत अपने दायित्वों को निभाने में विफलता” की आलोचना की है। इस रिपोर्ट के अनुसार रोहिंग्या शरणार्थियों की एक बड़ी संख्या अपनी निर्धारित सजा पूरी करने के बाद भी जेल में बंद है।

रोहिंग्या शरणार्थियों की स्थिति 

  • म्यांमार के रोहिंग्या दुनिया की सबसे बड़ी राज्यविहीन आबादी हैं, जिनकी अनुमानित संख्या लगभग 2.8 मिलियन है। 
  • म्यांमार के सैन्य अधिकारियों द्वारा नागरिकता से वंचित और दशकों तक उत्पीड़न तथा  नरसंहार हिंसा के कारण अधिकांश रोहिंग्या अपने देश से पलायन करने के लिए  मजबूर हुए हैं। वर्तमान में, वे कई देशों में फैले हुए हैं।
    • शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (UNHCR) के अनुसार, वर्तमान में लगभग 22,500 रोहिंग्या शरणार्थी भारत में रह रहे  हैं।

वर्तमान में विद्यमान चुनौतियाँ 

  • आलोचकों के अनुसार एक मानकीकृत शरणार्थी नीति की अनुपस्थिति ने भारत के बदलते भू-राजनीतिक और कूटनीतिक हितों से प्रेरित होकर विभिन्न शरणार्थी आबादी के साथ अलग-अलग व्यवहार किया है। 
    • तिब्बती, श्रीलंकाई और अफ़गान जैसे समूहों को सरकार द्वारा शरणार्थी प्रमाणपत्र या दीर्घकालिक वीज़ा दिए जाते हैं जबकि  UNHCR के साथ पंजीकृत होने के बावजूद अधिकांश रोहिंग्या शरणार्थियों को प्राय:  मनमाने ढंग से हिरासत में लिया जाता है जिन्हें आपराधिक कारावास का सामना करना पड़ता है। 
  • नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019, रोहिंग्या जैसे पीड़ित मुस्लिम अल्पसंख्यकों को इसके दायरे से बाहर रखता है।
  • हिरासत में लिए गए रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए कानूनी प्रतिनिधित्व और सहायता की कमी भी एक गंभीर चिंता का विषय है।
  •  आज़ादी प्रोजेक्ट और रिफ्यूजीज़ इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों की ओर से काम करने वाले नागरिक समाज संगठनों का वित्तपोषण पर्याप्त नहीं है क्योंकि विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (FCRA) के तहत विदेशी धन प्राप्त करने के उनके अधिकांश लाइसेंस को रद्द कर दिया गया है। 
  • गर्भवती महिलाओं और बच्चों सहित रोहिंग्या शरणार्थियों के  हिरासत केंद्रों में रहने की स्थिति अमानवीय है। 
    • मटिया ट्रांजिट कैंप की भयावह स्थितियों  के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने अक्टूबर में असम राज्य कानूनी सेवाओं को निर्देश दिया था कि वे शरणार्थियों के रहने की स्थिति का मूल्यांकन करें।

अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत रोहिंग्या शरणार्थियों को प्राप्त संरक्षण

  • वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और इसके वर्ष 1967 के प्रोटोकॉल में गैर-वापसी के सिद्धांत को शामिल किया गया है। 
    • ये सिद्धांत उन स्थितियों में राज्यों को उनके अधिकार क्षेत्र के तहत व्यक्तियों को निष्कासित करने पर प्रतिबंध लगते हैं जब इस बात का पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हो कि उन्हें वापस लौटने पर उत्पीड़न, यातना या अन्य गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन का सामना करना पड़ेगा। 
    • यह सिद्धांत मानवाधिकार, मानवीय और शरणार्थी कानून की आधारशिला है। 
  • प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय  कानून के रूप में इसकी स्थिति औपचारिक सहमति की परवाह किए बिना राज्यों पर बाध्यकारी दायित्व लगाती है। 
  • संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त के कार्यालय ने दोहराया है कि यह ‘सिद्धांत बिना किसी अपवाद के अपने पूर्ण स्वभाव की विशेषता रखता है।‘
  •  इसके अतिरिक्त, वर्ष 2007 के सलाहकार मत में, UNHCR ने गैर-वापसी प्रथागत कानून पुष्टि की कि जो  सभी राज्यों पर बाध्यकारी है। 
    • इनमें वे राष्ट्र भी शामिल हैं जो शरणार्थी सम्मेलन या 1967 प्रोटोकॉल के पक्षकार नहीं हैं।

भारत का रुख़ या दृष्टिकोण

  • भारत शरणार्थी सम्मेलन पर हस्ताक्षरकर्ता देश नहीं  है। साथ ही भारत यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक उपचार या दंड के विरुद्ध सम्मेलन और सभी व्यक्तियों को जबरन गायब किए जाने से बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन जैसे प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय साधनों का भी पक्षकार नहीं है। 
    • ऐसे में शरण प्रदान करने या गैर-वापसी के सिद्धांत का पालन करने के लिए भारत का कोई कानूनी दायित्व नहीं है।
  • भारत पुराने घरेलू कानूनी ढाँचों, विशेष रूप से विदेशी अधिनियम, 1946 और पासपोर्ट अधिनियम, 1967 के तहत रोहिंग्या शरणार्थियों को हिरासत में रखता है।
    • ये कानून विदेशियों की उपस्थिति को विनियमित करने के लिए व्यापक कार्यकारी शक्तियाँ प्रदान करने के साथ ही अधिकारियों को रोहिंग्या शरणार्थियों को “अवैध प्रवासी” के रूप में वर्गीकृत करने में सक्षम बनाते हैं।
  • हिरासत में लिए गए रोहिंग्या शरणार्थियों की रिहाई की मांग करने वाली सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका के जवाब में, केंद्र सरकार ने मार्च में स्पष्ट किया कि वे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के हकदार हैं, लेकिन उनके पास भारत में निवास करने या बसने का अधिकार नहीं है।

न्यायालय का निर्णय 

  • वर्ष  2021 में, मोहम्मद सलीमुल्लाह और अन्य बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र की राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को स्वीकार करते हुए श्रीनगर में हिरासत में लिए गए 170 रोहिंग्या शरणार्थियों के निर्वासन को रोकने की याचिका को खारिज कर दिया।
  •  अक्टूबर 2024 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्थानीय स्कूलों में रोहिंग्या शरणार्थी बच्चों को दाखिला देने के लिए अधिकारियों को निर्देश देने की मांग वाली एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया। 
    • न्यायालय के अनुसार  इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय निहितार्थ शामिल हैं और इस संबंध में केंद्र सरकार द्वारा नीतिगत निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है।

भारत का अंतर्राष्ट्रीय दायित्व

  • नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा का अनुच्छेद 7 सदस्य देशों को व्यक्तियों को उन स्थानों पर वापस भेजने से परहेज करने के लिए स्पष्ट रूप से बाध्य करता है जहाँ उन्हें यातना या क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक उपचार का सामना करना पड़ सकता है।
    • भारत इस प्रसंविदा एक पक्षकार देश है।  संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति ने इस व्याख्या की स्पष्ट रूप से पुष्टि की है। 
  • इसी तरह, गैर-वापसी का सिद्धांत भारत द्वारा अनुसमर्थित अन्य महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय साधनों में निहित है, जिसमें नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन और बाल अधिकारों पर सम्मेलन शामिल हैं।
  • यातना के खिलाफ अभिसमय का अनुच्छेद 3 गैर-वापसी के सिद्धांत का स्पष्ट उल्लेख करता है। भारत इस अभिसमय का हस्ताक्षरकर्ता देश तो है लेकिन भारत ने इसका अनुसमर्थन नहीं किया  है। 
    • ऐसे में इसके प्रावधान भारत के लिए गैर-बाध्यकारी है हालाँकि सम्मेलन के सिद्धांतों से कोई भी विचलन भारत द्वारा संधि पर हस्ताक्षर करके प्रदर्शित प्रतिबद्धता से समझौता करेगा।

भारत में शरणार्थियों से संबंधित विधिक प्रावधान 

  • भारत में घरेलू शरणार्थी से संबंधित स्पष्ट कानून का अभाव है हालाँकि विशाखा एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1997) और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014) जैसे ऐतिहासिक निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की है कि-
    • किसी मामले पर घरेलू कानून के अभाव में, मानव जीवन की गरिमा सुनिश्चित करने के लिए नगरपालिका न्यायालयों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और मानदंडों को लागू किया जाना चाहिए। 
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51(सी) यह अनिवार्य करता है कि राज्य को अंतर्राष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए।
  • भारत के कई उच्च न्यायालयों ने भी गैर-वापसी के सिद्धांत की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 21 के अभिन्न अंग के रूप में की है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। 
    • इसके प्रमुख उदाहरणों में गुजरात उच्च न्यायालय का केटर अब्बास हबीब अल कुतैफी बनाम भारत संघ (1998) और दिल्ली उच्च न्यायालय का डोंग लियान खाम बनाम भारत संघ (2015) वाद में  निर्वासन से सुरक्षा की मांग करने वाले विभिन्न देशों के शरणार्थी शामिल थे।
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