(प्रारंभिक परीक्षा : भारतीय राजनीतिक व्यवस्था) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य- सरकार के मंत्रालय एवं विभाग) |
संदर्भ
आपराधिक मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 30 जनवरी, 2025 को उच्च न्यायालयों को तदर्थ आधार पर सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की अनुमति देते हुए नियुक्ति संबंधी शर्तों में कुछ सुधार किया है।
तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया
- संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 द्वारा प्रस्तुत अनुच्छेद 224-A तदर्थ आधार पर उच्च न्यायालयों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति की अनुमति प्रदान करता है।
- ऐसी नियुक्तियों के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश और भारत के राष्ट्रपति दोनों की सहमति आवश्यक होती है। इन न्यायाधीशों को राष्ट्रपति के आदेश द्वारा निर्धारित भत्ते प्राप्त होते हैं।
- वे उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश के समान ही अधिकार क्षेत्र, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं।
- तदर्थ न्यायाधीश केवल उच्च न्यायालयों में नियुक्त किये जाते हैं। उच्चतम एवं अधीनस्थ न्यायालयों में इनकी नियुक्ति से संबंधित कोई प्रावधान या नियम नहीं है।
विस्तृत नियुक्ति प्रक्रिया
- जब कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश नियुक्ति के लिए सहमति प्रदान कर देता है तो उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा न्यायाधीश का नाम और प्रस्तावित कार्यकाल राज्य के मुख्यमंत्री को सौंपा जाता है।
- फिर मुख्यमंत्री राज्यपाल को सिफारिश भेजते हैं जो इसे केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री को भेजते हैं।
- केंद्रीय विधि मंत्री सलाह के लिए मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करते हैं जिसके बाद यह सिफारिश प्रधानमंत्री को भेजी जाती है।
- फिर प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपति को सलाह प्रदान की जाती है और राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति के बाद नियुक्ति को अंतिम रूप दिया जाता है।
- अंत में मुख्यमंत्री भारत के राजपत्र में औपचारिक अधिसूचना जारी करते हैं।
तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्तियों के उदाहरण
- न्यायपालिका के इतिहास में तदर्थ न्यायिक नियुक्तियों के केवल तीन ही उदाहरण हैं :
- वर्ष 1972 में न्यायमूर्ति सूरज भान की सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद चुनाव याचिकाओं पर निर्णय लेने के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में उनकी नियुक्ति
- वर्ष 1982 में न्यायमूर्ति पी. वेणुगोपाल की मद्रास उच्च न्यायालय में नियुक्ति
- वर्ष 2007 में न्यायमूर्ति ओ.पी. श्रीवास्तव की अयोध्या भूमि विवाद की सुनवाई के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्ति
तदर्थ न्यायाधीशों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूर्व में निर्धारित नियम
- संबंधित वाद : लोक प्रहरी थ्रू इट्स जनरल सेक्रेटरी एस.एन. शुक्ला आईएएस (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ (2021)
- लोक प्रहरी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की आवश्यकता के लिए निम्नलिखित विशेष परिस्थितियों की पहचान की है:
- यदि किसी उच्च न्यायालय में रिक्तियां उसकी स्वीकृत क्षमता के 20% से अधिक हैं।
- यदि किसी विशिष्ट श्रेणी में मामले 5 वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं।
- यदि उच्च न्यायालय के 10% से अधिक मामले 5 वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं।
- यदि मामले के निपटान की दर नए मामले दायर किए जाने की दर से कम है।
नियुक्ति शर्तों में हालिया संशोधन
- सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक रिक्तियों के स्वीकृत संख्या के 20% से अधिक होने पर ही तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की शर्त को स्थगित कर दिया है।
- अब उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की सिफारिश कर सकते हैं।
- हालाँकि, तदर्थ न्यायाधीश केवल आपराधिक अपीलों की सुनवाई कर सकते हैं और उन्हें मौजूदा न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ के हिस्से के रूप में ऐसा करना होगा।
- पूर्व में तदर्थ न्यायाधीश किसी भी प्रकार की अपील की सुनवाई कर सकते थे और मामलों से निपटने के लिए अलग-अलग बेंच (पीठ) का हिस्सा हो सकते थे।
- तदर्थ न्यायाधीशों की संख्या किसी उच्च न्यायालय की स्वीकृत न्यायिक क्षमता के 10% से अधिक नहीं हो सकती है अर्थात प्रत्येक उच्च न्यायालय में केवल 2 से 5 तदर्थ न्यायाधीश ही नियुक्त किए जा सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संशोधन का कारण
- 25 जनवरी, 2025 तक नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आँकड़ों के अनुसार, सभी उच्च न्यायालयों में 62 लाख मामले लंबित हैं।
- इनमें से 18.2 लाख से ज़्यादा आपराधिक मामले हैं जबकि 44 लाख से ज़्यादा दीवानी मामले हैं।
- लंबित मामलों की इस बढ़ती हुई संख्या से निपटने के लिए न्यायालय ने लोक प्रहरी मामले में निर्धारित शर्तों को स्थगित करने का फ़ैसला किया है।