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बाल यौन शोषण के संदर्भ में न्यायिक निर्णय: संबंधित चिंताएँ

(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्धयन प्रश्नपत्र : 1, महिलाओं की भूमिका और महिला संगठन, रक्षोपाय; सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र : 2, न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य)

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने बंबई उच्च न्यायालय के उस निर्णय पर रोक लगा दी है जिसमें उच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी नाबालिग के वक्षस्थल को कपड़ों के ऊपर से छूना या बिना ‘स्किन टू स्किन टच’ के अंग विशेष को छूना पॉक्सो अधिनियम (POCSO Act) के दायरे में नहीं रखा जा सकता।

बंबई उच्च न्यायालय के इस निर्णय पर विवाद उत्पन्न हो गया था और इसके खिलाफ ‘यूथ बार एसोसिएशन’ ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की थी।

क्या है पूरा मामला?

  • बंबई उच्च न्यायलय (नागपुर खंडपीठ) की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला की एकल पीठ ने पिछले सप्ताह सत्र न्यायालय के उस आदेश, जिसमें एक 39 वर्षीय व्यक्ति को 12 वर्षीय लड़की के साथ छेड़छाड़ करने और उसके कपड़े उतारने के लिये यौन उत्पीड़न का दोषी ठहराया गया था, को संशोधित करते हुए अपना निर्णय दिया था।
  • अपने निर्णय में न्यायमूर्ति ने कहा था कि इस तरह के अपराध को वास्तव में भारतीय दंड संहिता [ IPC की धारा 354 ( महिला की विनम्रता को अपमानित करना)] के तहत 'छेड़छाड़' माना जाएगा।
  • बंबई उच्च न्यायलय ने आरोपी व्यक्ति को आई.पी.सी. की धारा 343 और धारा 354 के तहत दोषी ठहराया, जबकि उसे पॉक्सो अधिनियम की धारा 8 के तहत बरी कर दिया।
  • न्यायमूर्ति ने यौन हमले को परिभाषित करते हुए कहा कि यौन हमले में ‘प्रत्यक्ष या सीधा शारीरिक संपर्क होना चाहिये’, अतः कपड़ों के ऊपर से वक्षस्थल को छूना प्रत्यक्ष शारीरिक संपर्क नहीं माना जा सकता।
  • भारत के मुख्य न्ययाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली एकल पीठ ने बंबई उच्च न्यायलय के इस निर्णय पर रोक लगाते हुए आरोपियों के विरुद्ध नोटिस जारी किया है और दो सप्ताह के अंदर प्रतिक्रिया माँगी है।

यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (Protection of Children from Sexual Offences Act– POCSO), 2012

  • बच्चों के हितों की सुरक्षा करने; उन्हें यौन शोषण, यौन उत्‍पीड़न तथा पोर्नोग्राफी जैसे अपराधों से संरक्षण प्रदान करने के लिये वर्ष 2012 में यह अधिनियम लागू किया गया। संक्षिप्त रूप से पॉक्सो अधिनियम कहा जाता है।
  • इस अधिनियम के तहत 18 वर्ष से कम आयु के व्‍यक्ति को बालक या बच्चे रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें प्रत्येक स्तर पर बच्चों के हितों तथा कल्‍याण को प्राथमिकता देते हुए उनके शारीरिक, भावनात्‍मक, बौद्धिक एवं सामाजिक विकास को सुनिश्चित किया गया है। यह कानून लैंगिक समानता पर आधारित है।
  • इसके तहत नाबालिग बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों तथा छेड़छाड़ के मामलों में आवश्यक कार्यवाई की जाती है और अलग-अलग अपराधों के लिये अलग-अलग सज़ा का प्रावधान किया गया है।

 अपराधों से बच्चों का संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2019

  • यह पॉक्सो अधिनियम, 2012 में संशोधन करता है। इसमें कुछ विशेष अपराधों को परिभाषित किया गया और अधिक कठोर सज़ा का प्रावधान किया गया, जो कि निम्नलिखित हैं-
    • पेनेट्रेटिव यौन हमला : इस प्रकार के अपराध के लिये सात वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान किया गया है। अधिनियम में 7 से 10 वर्ष तक की न्यूनतम सज़ा और यदि कोई व्यक्ति 16 वर्ष से कम आयु के बच्चे के साथ ऐसा अपराध करता है तो उसके लिये अधिकतम 20 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है।
    • गंभीर पेनेट्रेटिव यौन हमला: किसी पुलिस अधिकारी, सशस्त्र सेनाओं के सदस्य, या लोक सेवक द्वारा उपर्युक्त अपराध करने पर 10 वर्ष से लेकर 20 वर्ष या आजीवन कारावास की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है। इसमें अधिकतम सज़ा मृत्युदंड है।
    • गंभीर यौन हमला : इसके अंतर्गत, गंभीर यौन हमले में अन्य स्थितियों (i) प्राकृतिक आपदा के दौरान किया गया हमला (ii) यौन परिपक्वता लाने के लिये बच्चे को हारमोन या रासायनिक पदार्थ देना या दिलवाना को शामिल किया गया है।
    • पोर्नोग्राफिक सामग्री का स्टोरेज: इस अपराध के लिये 3 से 5 वर्ष तक की सज़ा या जुर्माने का प्रावधान है।

अपने उद्देश्य में कितना सफल हुआ पॉक्सो अधिनियम?

  • यह अधिनियम यौन हिंसा पर सख्त कानून के माध्यम से यौन अपराधों को रोकने के उद्देश्य से लाया गया था। इस कानून के तहत यौन हिंसा के दर्ज मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है साथ ही ऐसे मामलों में सज़ा की दर भी बहुत कम है।
  • सज़ा की दर कम होने के अनेक कारण हैं, जिसमें पुलिस-व्यवस्था और न्याय प्रणाली से संबंधित कारण प्रमुख हैं।
  • ऐसे मामलों से निपटने के लिये पुलिस के पास बुनियादी ढाँचा तथा पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं है, पुलिस पीड़ित बच्चे के साथ सहानुभूति से पेश नहीं आती जिससे बच्चा अपने साथ हुए यौन अपराध के बारे में खुलकर बता नहीं पाता।
  • नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी द्वारा राज्यों में किये गए एक अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया है कि अनिवार्य न्यूनतम दंड के परिणामों को भी चिन्हित किया जाना चाहिये।
  • पॉक्सो अधिनियम के अंतर्गत न्यायधीश विवेकानुसार निर्धारित सज़ा से कम नहीं दे सकते और जब किसी ऐसे मामले में वे पाते हैं कि अपराध की गंभीरता न्यूनतम निर्धारित सज़ा के अनुरूप नहीं है तो वे आरोपी को दोषी मानने के लिये तैयार नहीं होते और उसे बरी कर देते हैं।
  • एक लंबे समय से यह मांग की जा रही है कि 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के साथ यौन अपराधों के मामलों में कठोर सज़ा, जैसे- मृत्युदंड का प्रावधान होना चाहिये। हालाँकि कठोर सज़ा का प्रावधान राजनीतिक बहस के लिये तो सही है किंतु यह न्याय की मूल भावना के विपरीत है।

निष्कर्ष

बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराध चाहे किसी भी प्रकृति के हों, किसी भी दशा में सहन करने योग्य नहीं हैं, बंबई उच्च न्यायलय द्वारा दिया गया निर्णय उस धारणा को विकसित कर सकता था, जिसमें अपराधी बच्चों के कपड़ों की स्थिति के आधार पर अपराध करके भी बच सकते थे। उच्च न्यायलय के निर्णय पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाना सराहनीय है। इसके अतिरिक्त, बच्चों के प्रति होने वाले यौन अपराधों को रोकने के लिये विशेष तथा प्रभावकारी कदम उठाए जाने चाहिये और इसके लिये कठोर सज़ा की बजाय उन सांस्कृतिक और सामाजिक धारणाओं को सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये, जो ऐसे अपराधों को सक्षम बनाती हैं।

 अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • भारत सरकार की सर्वेक्षण रिपोर्ट, 2006 के अनुसार भारत में 53.22% से भी अधिक बच्चों के साथ एक या एक से अधिक प्रकार का यौन शोषण होता है। इनमें आधे से अधिक मामलों में यौन शोषणकर्ता बच्चे के रिश्तेदार या परिचित होते हैं।
  • ‘संयुक्त राष्ट्र संघ बाल कोष’ के अध्ययन के अनुसार, भारत में प्रत्येक 3 में से 1 बच्चा बलात्कार का शिकार होता है और लगभग प्रत्येक वर्ष 7200 से अधिक बच्चों व शिशुओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ होती हैं।
  • वर्ष 2013 में ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ की रिपोर्ट ‘ब्रेकिंग द साइलेंस- चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज़ इन इंडिया’ ने यह बताया है कि वर्ष 2001 से 2011 के बीच भारत में बाल यौन शोषण के मामलों में 336% की वृद्धि हुई है।
  • एक आँकड़े के अनुसार, विश्व भर में बाल यौन शोषण किसी विशेष उम्र, लिंग, समुदाय, जाति वर्ग या धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लगभग सभी जगह समान रूप से फैला हुआ है।
  • वर्ष 1989 के संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार अभिसमय को भारत ने वर्ष 1992 में स्वीकृति प्रदान की और इस संदर्भ में निम्नलिखित 3 कानून पारित किये -
    • बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005
    • यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पॉक्सो एक्ट)
    • किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015
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