(प्रारंभिक परीक्षा : राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 1 - राजनीतिक दर्शन जैसे साम्यवाद, पूँजीवाद, समाजवाद आदि)
संदर्भ
- उदारवाद और राष्ट्रवाद का भावार्थ लोगों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है और इन अवधारणाओं को एक दूसरे से अलग भी माना जाता रहा है।
- भारतीय स्वतंत्रता के 75 वर्षों के उपरांत भी ब्रिटिश ये दावा करता है कि उनके साम्राज्य की नींव ‘उदार विचारों’ के बुनियाद पर टिकी थी।
- अपने दावे को सिद्ध करने के लिये वह राष्ट्रवादियों को किये गए सत्ता हस्तांतरण को संदर्भित करता है।
- उदारवाद अक्सर उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद से टकराता था। शीत युद्ध के दौरान ‘उपनिवेश विरोधी आंदोलनों’ को सबसे उदार समर्थन सोवियत संघ से मिला था।
युद्धों के कारण
- राष्ट्र-राज्य के उदय के पश्चात् युद्धों के लिये ‘राष्ट्रों की शक्ति और विस्तारवादी नीतियों’ को ज़िम्मेदार ठहराया गया।
- जहाँ, यूरोप में विभिन्न राष्ट्र आपस में संघर्षरत थे, वहीं जापान के राष्ट्रवाद ने चीन के विरुद्ध युद्ध को जन्म दिया।
- विगत सदी के आरंभिक दौर में राष्ट्रवाद को युद्ध का मूल कारण माना गया, लेकिन इसको बेहद सामान्यीकृत तौर पर व्याख्यायित भी किया गया। इसके प्रतिउत्तर में, विशेषतः मार्क्सवादियों का तर्क है कि उपनिवेशवाद का मुख्य कारण पूँजीवाद था।
- यूरोप में जैसे-जैसे राष्ट्रवाद का प्रसार हुआ, वैसे-वैसे यह ‘नृजातीय-उन्मुख और अनुदार’ होता गया है। हालाँकि मैज़िनी को इस संबंध में एक अपवाद माना जाता है।
राष्ट्रवाद से संबंधित विचार
1. रबींद्रनाथ ठाकुर
- स्वतंत्रता पूर्व भारतीय राष्ट्रवाद को ‘संदेह’ की दृष्टि से देखा जाता था। रबींद्रनाथ ठाकुर ने इसे दुर्भावनापूर्ण विचारधारा के रूप में संबोधित किया, उनके अनुसार यह ‘यांत्रिक और निष्प्राण’ है।
- पाश्चात्य विचारधारा के बारे में रबींद्रनाथ ठाकुर का मानना था कि पश्चिम की आत्मा ‘अंतर्राष्ट्रीयतावाद और सार्वभौमिकता’ के मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती है।
2. जवाहरलाल नेहरू
- जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिये राष्ट्रवाद को बेहद महत्त्वपूर्ण माना। वर्ष 1950 में उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि एशिया में नकरात्मक विचार उपनिवेशवाद है, जबकि सबसे सकरात्मक विचार राष्ट्रवाद है।
- राष्ट्रवाद ने भारतीय इतिहास के कुछ चरणों में मुक्तिदाता की भूमिका भी निभाई। फिर भी, पं. नेहरु को डर था कि उपनिवेशवाद से जूझ रहे लोगों के मध्य उग्र राष्ट्रवाद ‘फासीवाद और विस्तारवाद’ में न परिवर्तित हो जाए।
3. भारतीय दक्षिणपंथ
- भारत की दक्षिणपंथी पार्टियाँ ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के विचार को मानती हैं, जिसके अंतर्गत ‘हार्ड पावर’ के साथ-साथ ‘शांति बढ़ाने’ की असंभव प्रक्रिया शामिल है।
- भारतीय राष्ट्रवाद के संबंध में वैकल्पिक विचार भी प्रस्तुत किये गए थे। इनमें प्रमुख रूप से विनायक दामोदर सावरकर ने हिंदुत्व आधारित राष्ट्रवाद को बुद्ध के ‘सार्वभौमिक विचारों’ से अंतर्संबंधित किया।
- हालाँकि, बाद में ‘अहिंसा’ को उन्होंने भारतीय देशभक्ति को कमज़ोर करने वाला विचार माना।
उदारवाद और राष्ट्रवाद
- राष्ट्रवाद के विभिन्न रूप हो सकते हैं, लेकिन अनिवार्यतः यह ‘सामूहिक पहचान’ से संबंधित है, जबकि उदारवाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता, आत्म-निर्णय के अधिकार तथा राज्य द्वारा व्यक्तियों के ‘निजी क्षेत्र’ (Private Sphere) के संरक्षण से संबंधित है।
- व्यावहारिक तौर पर उदारवाद के फायदे और नुकसान दोनों ही हैं। यह मानव के सार्वभौमिक अधिकारों तथा एडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित अर्थशास्त्र के प्राकृतिक नियमों को रेखांकित करता है।
- उदारवाद की अपील मुख्यतः ‘पेशेवर शिक्षित वर्ग’ तक सीमित होती है। साथ ही, इसमें राष्ट्रवाद जैसी भावनात्मक अपील का भी अभाव होता है।
एशियाई लोकतंत्र
- एशियाई देशों की कुछ अर्थव्यवस्थाएँ जब तेज़ संवृद्धि के दौर से गुज़र रही थी, तो उसी समय उन देशों में निरंकुश सरकारों के शासन का भी दौरा रहा। चीन, सिंगापुर, वियतनाम इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
- वर्ष 1997 के ‘एशियाई वित्तीय संकट’ ने ताइवान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड में क्रमिक रूप से ‘लोकतांत्रिक आवेग’ को जन्म दिया।
- गौरतलब है कि एशिया में उदारवाद के विचार पश्चिमी देशों के समतुल्य नहीं हैं। नागरिक और राजनीतिक अधिकार कम सैद्धांतिक हैं तथा वैयक्तिक स्वायत्तता में राज्य के हस्तक्षेप को मान्यता प्राप्त है।
- उदारवादी परंपरा ने द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली, लोकतंत्र, मुक्त व्यापार, अंतर्राष्ट्रीय कानून, बहुपक्षवाद, पर्यावरण संरक्षण और मानवाधिकारों के संबंध में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- समस्याएँ तब उत्पन्न होती हैं, जब विकासशील देशों में पश्चिमी देश हस्तक्षेप करते हैं और उथल-पुथल के कारण आतंकवाद की घटनाएँ सामान्य हो जाती हैं। अफगानिस्तान की हालिया घटनाओं को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
शक्ति का अनुक्रम
- पश्चिमी देशों में उदारवाद की आलोचना वामपंथ और दक्षिणपंथ, दोनों द्वारा की जा रही है। हालिया अमरिकी चुनावों में इसे स्पष्ट रूप से देखा गया है।
- अमेरिकी कूटनीतिक बयानबाजी के बावजूद, वह पारस्परिक रूप से उदार लोकतंत्रों का कभी भी सहायक नहीं रहा है। वस्तुतः अंतर्राष्ट्रीय संबंध पदानुक्रमित आधार पर संचालित होते हैं।
- संयुक्त राष्ट्र में आए दिन होने वाले तनाव उन विभिन्न सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन पर ‘सुरक्षा परिषद् और महासभा’ आधारित हैं।
- यही कारण है कि सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के रूप में भारत, जापान, जर्मनी सहित कुछ अन्य देशों को शामिल करना कितना मुश्किल है।
एशिया का भविष्य
- भारत और चीन, दोनों ही पश्चिमी साम्राज्यवाद के ‘रिसीविंग एंड’ पर थे। इसी कारण इन्होने पंचशील में उल्लिखित सिद्धांतों का समर्थन किया, अर्थात् संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता, अहस्तक्षेप आदि।
- ‘गुटनिरपेक्ष आंदोलन और एफ्रो-एशियाईवाद’ के द्वारा ‘सॉफ्ट पावर’ आधारित मॉडल प्रस्तुत किया गया था, लेकिन जल्द ही चीन, भारत और पाकिस्तान ‘हार्ड पावर’ आधारित परमाणु हथियार क्लब में शामिल हो गए।
- दो प्रमुख एशियाई राष्ट्रों, भारत और चीन ने ‘संयुक्त राष्ट्र तथा वैश्विक वित्तीय संस्थानों’ के नियंत्रण का विरोध करते हुए वर्तमान विश्व व्यवस्था का उपयोग अपने उदय के लिये किया है। हालाँकि, उन्होंने एशियाई राष्ट्रवाद के आधार पर अन्य कोई विकल्प तैयार नहीं किया।
- उनकी वर्तमान प्रतिद्वंद्विता से किसी वांछनीय परिणाम प्राप्त होने की संभावना नगण्य है।