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लोक अदालत : त्वरित न्याय बनाम गुणवत्तापूर्ण न्याय

(प्रारंभिक परीक्षा- लोकनीति और अधिकार संबंधी मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : न्यायपालिका की संरचना, विवाद निवारण तंत्र) 

संदर्भ

वर्ष 2021 की पहली ‘राष्ट्रीय  लोक अदालत’ (National Lok Adalat – NLA) 10 अप्रैल को आयोजित की जा रही है। यूँ तो लोक अदालतें विगत 38 वर्षों से कार्यरत हैं किंतु उनकी कार्य-कुशलता, प्रदर्शन और गुणवत्ता को लेकर कई सवाल उठते रहे हैं। अतः लोक अदालतें पुनः चर्चा के केंद्र में हैं। 

लोक अदालतों की उत्पत्ति

  • वैधानिक मान्यता प्राप्त होने से पूर्व भी लोक अदालतें विद्यमान थीं।वर्ष 1949 में महात्मा गाँधी के अनुयायी हरिवल्लभ पारिख ने इसको रंगपुर (गुजरात) में काफी लोकप्रिय बनाया था।
  • ‘न्याय सिद्धांत’ कहता है कि ‘न्याय प्राप्ति में देरी, न्याय न मिलने के सामान है।’ अतः इसी स्थिति से पार पाने के लिये भारतीय संसद ने 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से भारतीय संविधान में अनुच्छेद 39A अंतःस्थापित किया।
  • इस अनुच्छेद में ‘समान न्याय और नि:शुल्क विधिक सहायता’ सुनिश्चित करने का प्रावधान किया गया। अर्थात् इस अनुच्छेद के माध्यम से राज्य को निर्देशित किया गया कि वह न्याय प्रणाली तक गरीबों व कमज़ोर वर्गों की प्रभावी पहुँच सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
  • इसी अनुच्छेद को प्रभावी बनाने के लिये संसद ने ‘विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987’ पारित किया था, जो वर्ष 1995 में लागू हुआ था। वस्तुतः लोक अदालतों की स्थापना इस उद्देश्य से की गई थी कि समतामूलक न्याय को बढ़ावा दिया जा सके। उल्लेखनीय है कि लोक अदालतें औपचारिक न्यायिक व्यवस्था की अपेक्षा मामलों का त्वरित निपटारा करती हैं। 

लोक अदालतें और संबंधित प्रश्न

  • लोक अदालतों में मामलों के ‘त्वरित निपटान’ और ‘न्याय की गुणवत्ता’ के बीच विरोधाभास है। इस संबंध में कुछ विद्वान विभिन्न प्रश्न उठाते हैं। उनका मत है कि क्या लोक अदालतें गरीबों के सशक्तीकरण में वाक़ई सहायक हैं अथवा उन्हें कोई समझौता करने के लिये मजबूर करती हैं?
  • ये अदालतें तेज़ी से और अधिक संख्या में मामलों का निपटारा करने के की प्रक्रिया में कहीं न्याय की मूल भावना से तो समझौता नहीं करती हैं? इसी संबंध में कहा भी जाता है कि ‘जल्दबाजी में किया गया न्याय, न्याय को दफन करने के समान होता है।’ (Justice hurried is justice buried.)
  • क्या भारत ने दोहरी न्यायिक प्रणाली को अपना लिया है? अर्थात् औपचारिक न्यायिक प्रणाली यानी न्यायालय केवल धनी व शक्तिशाली व्यक्तियों के लिये ही हैं, गरीबों के लिये नहीं? कुछ ऐसा ही विचार भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने भी व्यक्त किया था। 

विवाद समाधान का एक मंच

  • लोक अदालतें विवादों का समाधान का एक वैकल्पिक मंच उपलब्ध कराती हैं। यहाँ संबंधित पक्षों में आपसी-सहमति के माध्यम से मामलों को निपटाने का प्रयास किया जाता है। लोक अदालतें आमतौर पर वाहन-दुर्घटना संबंधी दावे, जनोपयोगी सेवाओं से संबंधित विवाद, चेक से संबंधित विवाद तथा भूमि, श्रम व विवाह संबंधी विवाद (तलाक को छोड़कर) इत्यादि मामलों की सुनवाई करती हैं।
  • ‘राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण’ (State Legal Services Authorities- SLSAs) दैनिक, पाक्षिक और मासिक आधार पर लोक अदालतों का आयोजन करता है।
  • ‘राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण’ (National Legal Services Authority- NALSA) के तत्त्वावधान में देशभर में आयोजित होने वाली ‘राष्ट्रीय लोक अदालतों’ ने हाल ही में एक दिन में ही करीब 11 लाख से ज़्यादा मामलों का निपटारा किया था। वर्ष 2016 से 2020 के बीच राष्ट्रीय लोक अदालतों के माध्यम से कुल 2 करोड़ 90 लाख से अधिक मामलों का निपटारा किया गया।

 

भारतीय न्याय प्रणाली में लंबित मामलों की स्थिति

  • भारत में न्यायिक प्रक्रिया अत्यंत समयसाध्य है और अदालतों में बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार, ज़िला और तालुका स्तरीय न्यायालयों में लंबित कुल मामलों में से 17% मामले ऐसे हैं, जो लगभग 3-5 वर्ष पुराने हैं।
  • जबकि उच्च न्यायालयों में करीब 20.4% मामले पाँच से दस वर्ष पुराने तथा 17% से अधिक मामले दस से बीस वर्ष पुराने हैं।
  • इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय में लगभग 66,000 मामले, उच्च न्यायालयों में लगभग 57 लाख मामले और ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग 3 करोड़ मामले लंबित हैं।
  • भारतीय न्यायालयों में लंबित मामलों की स्थिति का आकलन करते हुए आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस वी.वी.एस. राव ने कहा कि इन लंबित मामलों का निपटान करने में करीब 320 वर्षों का समय लगेगा।

लोक अदालतों में मुकदमों के त्वरित निपटान के कारण

  • न्यायालयों व अन्य विवाद समाधान तंत्रों, जैसे- पंचाट और मध्यस्थता की तुलना में लोक अदालतों में मुकदमों का निपटारा तेज़ी से होता है।
  • लोक अदालतों में मामलों के त्वरित समाधान के कई कारण हैं, जैसे- प्रक्रियागत लचीलापन, नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 जैसे प्रक्रियात्मक कानूनों के अनुप्रयोग में ढील, कम खर्चीली न्यायिक प्रक्रिया इत्यादि। विदित है कि लोक अदालतों में मामलों को ले जाने के लिये कोई न्यायालय शुल्क नहीं लगता है।
  • इसके अतिरिक्त, लोक अदालतों द्वारा दिये गए निर्णयों के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती है, इससे विवादों के निपटारे में तेज़ी आती है।इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संयुक्त समझौता याचिका दायर किये जाने के उपरांत लोक अदालत द्वारा दिये गए निर्णय को दीवानी न्यायालय की डिक्री (Decree) का दर्ज़ा प्राप्त हो जाता है। 

समस्याएँ

  • नाल्सा के अनुसार, किसी विशेष मुद्दे के समाधान (विषय-आधारित) से संबंधित राष्ट्रीय लोक अदालत (National Lok Adalat–NLA) को वर्ष 2015 और 2016 में मासिक आधार पर आयोजित किया गया था। इसके अंतर्गत, एक एन.एल.ए. द्वारा प्रत्येक माह के हरेक दिन किसी विशिष्ट प्रकार के विवाद को ही निपटाता था।
  • हालाँकि वर्ष 2017 से इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया और अब प्रत्येक एन.एल.ए. में एक ही दिन में विविध प्रकार के मामलों को लाया जा रहा है। ऐसा एन.एल.ए. की आयोजन लागत को कम करने और संबंधित पक्षों को बातचीत का अधिक समय देने के लिये किया गया है।
  • वर्ष 2015 और 2016 में प्रतिवर्ष 10-10, वर्ष 2017 2018 में प्रतिवर्ष 5-5 तथा वर्ष 2019 में 4 राष्ट्रीय लोक अदालतों का आयोजन किया गया था। अर्थात् समय के साथ-साथ लोक अदालतों का आयोजन हतोत्साहित होता चला गया। इसके अलावा, प्रत्येक लोक अदालत द्वारा निपटाए जाने वाले मामलों की संख्या में भी कमी आई।
  • आँकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2017 से प्रति एन.एल.ए. निपटाए जाने वाले मामलों की औसत संख्या में वृद्धि हुई है, जबकि प्रत्येक वर्ष आयोजित एन.एल.ए. की संख्या में कमी आई है।
  • कोविड-19 महामारी के दौरान राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर ई-लोक अदालतों का आयोजन भी किया गया। हालाँकि, इसके माध्यम से निपटाए गए मामलों की संख्या वर्ष 2017, 2018 और 2019 में निपटाए गए मामलों की औसत संख्या से कम थी। इससे पता चलता है कि भौतिक रूप से आयोजित राष्ट्रीय लोक अदालतों की तुलना में ई-लोक अदालतों की दक्षता कम थी।
  • लोक अदालतों का केंद्रीय विचार ‘समझौता’ और ‘सुलह’ है, जिससे इस बात की संभावना बनी रहती है कि मामलों को शीघ्रता से निपटाने के प्रयास में ‘न्याय की मूल भावना’ कमज़ोर हो सकती है।
  • इसके अतिरिक्त, कई मामलों में समाधान की शर्तें गरीबों पर आरोपित की जाती है और उनके पास इन शर्तों को स्वीकारने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होता है।
  • इसी तरह, महिलाओं के वैवाहिक विवादों के मामलों में समझौते की शर्तें फैमली-कोर्ट द्वारा निर्धारित की जाती हैं। अत: लोक अदालतों में मामलों को तेज़ी से निपटाने के साथ-साथ कानूनी प्रक्रिया भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।

निष्कर्ष

  • लोक अदालतों को मामलों को दक्षतापूर्वक निपटाने के साथ उनकी गुणवत्ता पर भी ध्यान देना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने ‘पंजाब राज्य बनाम जलौर सिंह’ (2008) मामले में कहा था कि लोक अदालतें शुद्ध रूप से सुलहकारी निकाय हैं और इसका कोई सहायक (Adjudicatory) या न्यायिक कार्य व कर्तव्य नहीं है।
  • सर्वोच्च न्यायालय की ई-समिति की अध्यक्षता करने वाले न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ ने हाल ही में ई-कोर्ट परियोजना का त्रिचरणीय मसौदा प्रस्तुत किया।इसके लागू होने के बाद न्यायिक प्रक्रिया की दक्षता में सुधार होने की उम्मीद है।
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