(प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय राज्यतंत्र और शासन संविधान, राजनीतिक प्रणाली, लोकनीति, अधिकारों से सम्बंधित मुद्दे; मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: विषय- भारतीय संविधान- ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना, संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय)
उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में एक संविधान पीठ से पूछा है कि क्या राज्य, इंद्रा साहनी बनाम संघ (1992) के मामले में नौ-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा निर्धारित 50% कोटा की सीमा से अधिक आरक्षण दे सकते हैं या नहीं।
मराठा और उनका 'पिछड़ापन':
- मराठा,महाराष्ट्र में राजनीतिक रूप से एक प्रमुख वर्ग है, जो महाराष्ट्र की आबादी का लगभग 32% हैं।
- उन्हें ऐतिहासिक रूप से एक बड़ी 'योद्धा' जाति के रूप में जाना जाता है। राज्य के 19 मुख्यमंत्रियों में से अब तक ग्यारह मराठा ही रहे हैं।
- जहाँ वर्षों से भूमि और कृषि सम्बंधी समस्याओं के विभाजन से मध्य और निम्न मध्यम वर्ग के मराठाओं की समृद्धि में गिरावट आई है, वहीं यह समुदाय अभी भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- जब तक कोटा की घोषणा नहीं हुई थी, तब तक इस समुदाय में वृहत असंतोष, विरोध और अशांति फैली थी।
- विरोध के दूसरे चरण में प्रदेश में आत्महत्याओं का दौर देखा गया। पिछड़े मराठवाड़ा क्षेत्र विरोध प्रदर्शनों से सबसे ज़्यादा प्रभावित थे।
मामला :
- हाल ही में, उच्चतम न्यायालय की एक खंडपीठ ने महाराष्ट्र में शिक्षा और नौकरियों में मराठों के लिये आरक्षण को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुना।
- याचिकाओं ने 2019 के बॉम्बे उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की, जिसमें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग (SEBC) अधिनियम, 2018 के तहत मराठा कोटा की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया।
- खंडपीठ ने राज्य में कोटा के तहत स्नातकोत्तर चिकित्सा और दंत चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश को चुनौती देने वाली याचिका पर भी सुनवाई की।
मुम्बई उच्च न्यायालय का पूर्व फैसला:
- मुम्बई उच्च न्यायालय ने पिछले साल फैसला सुनाया था कि राज्य द्वारा प्रदान किया गया 16% कोटा "न्यायसंगत" नहीं था और इसे घटाकर शिक्षा में 12% और सरकारी नौकरियों में 13% कर दिया, जैसा कि महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (MSBCC) द्वारा अनुशंसित है।
- बेंच ने फैसला सुनाया कि आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये।
- हालाँकि, असाधारण परिस्थितियों में प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता और प्रशासन में दक्षता को प्रभावित किये बिना इस सीमा को बढ़ाया जा सकता है, यदि पिछड़ेपन को दर्शाने वाले मात्रात्मक और समकालीन आँकड़े उपलब्ध हैं।
- उल्लेखनीय है कि न्यायालय ने नवम्बर 2018 में 11 सदस्यीय MSBCC द्वारा प्रस्तुत निष्कर्षों पर अपना विश्वास दिखाया, जिसमें यह बताया गया था कि मराठा समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पीछे है।
मौजूदा आरक्षण:
- वर्ष 2001 के राज्य आरक्षण अधिनियम के बाद, महाराष्ट्र में कुल आरक्षण 52% था: एस.सी. (13%), एस.टी. (7%), ओ.बी.सी. (19%), विशेष पिछड़ा वर्ग (2%), विमुक्त जाति (3%), घुमंतू जनजाति B (2.5%), घुमंतू जनजाति C (3.5%) और खानाबदोश जनजाति D (2%)।
- खानाबदोश जनजातियों और विशेष पिछड़े वर्गों के लिये कोटा कुल ओ.बी.सी. कोटा से बाहर रखा गया है।
- 12-13% मराठा कोटा के साथ राज्य में कुल आरक्षण 64-65% हो गया।
- पिछले साल केंद्र द्वारा घोषित आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (Economically Weaker Sections-EWS) के लिये 10% कोटा भी राज्य में प्रभावी है।
संवैधानिक प्रावधान:
1. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 सभी नागरिकों के लिये समानता के अधिकार की बात करता है। अनुच्छेद 15(1) के अनुसार, राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। अनुच्छेद 15(4) और 15(5) में सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये विशेष उपबंध की व्यवस्था की गई है।
2. संविधान के अनुच्छेद 16 में सरकारी नौकरियों और सेवाओं में समान अवसर प्रदान करने की बात की गई है। लेकिन अनुच्छेद 16(4), 16(4)(क), 16(4)(ख) तथा अनुच्छेद 16(5) में राज्य को विशेष अधिकार दिया गया है कि वह पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों को सरकारी नौकरियों में आवश्यकतानुसार आरक्षण दे सकता है।
3. वर्ष 1992 के इंद्रा साहनी मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि कुल दिये गए आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये।
4. वर्ष 2019 में, 103वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS)के लिये सरकारी नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया।
रिट अधिकार क्षेत्र (Writ Jurisdiction):
- संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय मूल अधिकारों की रक्षा करने तथा इनके प्रवर्तन हेतु, बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण लेख (Certiorari), अधिकार पृच्छा (Quo Warranto) जैसी रिट जारी कर सकते हैं।
- अनुच्छेद 32 के तहत संसद इन रिट्स (Writs) को जारी करने के लिये किसी अन्य न्यायालय को भी प्राधिकृत कर सकती है। यद्यपि अभी तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
- ध्यातव्य है कि उच्चतम न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये ही रिट जारी कर सकता है, जबकि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों तथा साधारण कानूनी अधिकार दोनों के लिये रिट जारी कर सकता है।
इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत संघ, 1992:
- उपरोक्त वाद में निर्णय सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने पिछड़े वर्गों के लिये 27% का कोटा बरकरार रखा था। इसके अलावा, उच्च जातियों के बीच आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण की सरकारी अधिसूचना को रद्द कर दिया था।
- इसी वाद में उच्चतम न्यायालय ने इस सिद्धांत को भी सही ठहराया कि संयुक्त आरक्षण के बाद लाभार्थियों की संख्या कुल संख्या के 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये।
- 'क्रीमी लेयर' की अवधारणा भी इस निर्णय के माध्यम से लोगों के समक्ष आई तथा न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण केवल प्रारंभिक नियुक्तियों तक ही सीमित होना चाहिये और पदोन्नति में इसका लाभ नहीं मिलना चाहिये।
- ध्यातव्य है कि संसद द्वारा वर्ष 2019 में 103वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा अनारक्षित वर्ग में "आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के" व्यक्तियों के लिये सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10% आरक्षण की व्यवस्था की गई थी।
- अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन किये गए तथा आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण प्रदान करने के लिये सरकार द्वारा आवश्यक खंड जोड़े गए।
- ध्यातव्य है कि यह 10% आर्थिक आरक्षण 50% की आरक्षण सीमा के ऊपर है।
स्थानीय लोगों के लिये कोटा प्रणाली पर उच्चतम न्यायालय का फैसला:
- उच्चतम न्यायालय, पूर्व में जन्म स्थान या निवास स्थान के आधार पर आरक्षण के खिलाफ फैसला सुना चुका है।
- वर्ष 1984 में, डॉ. प्रदीप जैन बनाम भारत संघ में, "सन ऑफ़ द सॉयल (Sons of the Soil)" से जुड़े मुद्दे पर चर्चा की गई थी।
- अदालत ने इस मुद्दे पर अपनी राय व्यक्त की थी कि इस तरह की नीतियाँ असंवैधानिक होंगी, लेकिन इस पर स्पष्ट रूप से कोई निर्णय नहीं दिया था, क्योंकि यह मुद्दा समानता के अधिकार के विभिन्न पहलुओं से जुड़ा हुआ था।
- वर्ष 1955 के डी.पी. जोशी बनाम मध्य भारत मामले में उच्चतम न्यायालय ने अधिवास या निवास स्थान तथा जन्म स्थान के बीच अंतर बताते हुए स्पष्ट किया था कि व्यक्ति का निवास स्थान बदलता रहता है लेकिन उसका जन्म स्थान निश्चित होता है। अधिवास का दर्जा जन्म स्थान के आधार पर दिया जाता है।
- सुनंदा रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश (1995) में बाद के एक फैसले में उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1984 में राज्य सरकार की एक नीति, जिसमें उम्मीदवारों को 5% अतिरिक्त भारांक दिया गया था, को रद्द करने के लिये निर्णय दिया था।
- वर्ष 2002 में, उच्चतम न्यायालय ने राजस्थान में सरकारी शिक्षकों की नियुक्ति को अमान्य करार दिया था, जिसमें राज्य चयन बोर्ड द्वारा "सम्बंधित ज़िले या ज़िले के ग्रामीण क्षेत्रों के आवेदकों" को वरीयता दी गई थी।
- वर्ष 2019 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा एक भर्ती अधिसूचना पर भी टिप्पणी करते हुए उसे अमान्य बताया, जिसमें उत्तर प्रदेश की मूल निवासी महिलाओं के लिये प्राथमिकता निर्धारित की गई थी।