(प्रारम्भिक परीक्षा: राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की घटनाएँ, पंचायती राज, गरीबी, समावेशन और सामाजिक क्षेत्र पहल)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 व 3: मानव संसाधनों से सम्बंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से सम्बंधित विषय, गरीबी, केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति सम्वेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; समावेशी विकास, विकास व रोज़गार से सम्बंधित विषय)
पृष्ठभूमि
महामारी के मद्देनज़र औद्योगिक क्षेत्रों से कामगारों व श्रमिकों का रिवर्स माइग्रेशन (Reverse Migration) एक नई समस्या के रूप में सामने आया है। इस प्रकार के अचानक प्रवासन से इनके सामने आजीविका की समस्या पैदा हो गयी है। साथ ही, योग्यता के अनुसार सरकारों को इन कामगारों को रोज़गार देना भी एक नई चुनौती है। इसके लिये, राज्य सरकारों को मेहनत करने के साथ-साथ एक अच्छी योजना की भी ज़रूरत है। इसके लिये, आधुनिक सिंगापुर के संस्थापक ली कुआन यू (Lee Kuan Yew) तथा महात्मा गाँधी से कुछ उदाहरण लिये जा सकते हैं।
विकास का सिंगापुर मॉडल
- सन् 1965 में सिंगापुर की स्वतंत्रता और स्थापना के बाद ली कुआन यू द्वारा घोषणा में कहा गया कि सिंगापुर एशिया में प्रथम विकसित देश बनेगा। सिंगापुर के विकास का उनका माप व उपाय प्रति व्यक्ति आय की गणना थी जो उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के स्तर तक बढ़ जाए।
- सिंगापुर तेल या खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न नहीं था। सिंगापुर ने पूर्व-पश्चिम के बीच नौ-परिवहन मार्गों पर उसकी रणनीतिक अवस्थिति तथा उसके लोगों, पेशेवरों व श्रमबल का लाभ लेने के लिये पश्चिमी देशों की बड़ी कम्पनियों को आमंत्रित किया।
- आसियान देशों में कम लागत वाले अत्यधिक श्रमबल के कारण कम्पनियाँ आकर्षित हुईं। इन देशों में, सिंगापुर अपनी अवस्थिति के कारण सबसे अधिक आकर्षक देश था। हालाँकि, कम्पनियों ने ली के आमंत्रण का स्वागत किया परंतु वे ली की कुछ शर्तें मानने के लिये तैयार नहीं थी।
- ली कम्पनियों द्वारा केवल श्रम-प्रधान कारखानों की स्थापना के इच्छुक नहीं थे। उनका मानना था कि सिंगापुर में पारिश्रमिक को बढ़ाया जाए, ताकि प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ सके। इसके लिये वे चाहते थे कि कम्पनियाँ सिंगापुर के लोगों को उच्च मूल्य वर्ग के कार्य करने हेतु प्रशिक्षित करें।
- उस समय वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं का विकास हो रहा था तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कम लागत वाले स्रोतों को तलाश रही थी। अतः यदि सिंगापुर में मजदूरी बढ़ती, जैसा की ली चाहते थे, तो कम्पनियाँ अपने असेम्बल (Assembly) प्रक्रिया को पड़ोसी देशों में स्थानांतरित कर सकती थी।
- इसके लिये, ली ने विश्व स्तरीय आधारभूत संरचना (Infrastructure), कुशल प्रशासन और कर की कम दर का आश्वासन दिया। इसके बदले में, ली चाहते थे कि कम्पनियाँ कर्मचारियों के कौशल विकास हेतु निवेश करके सरकार की मदद करें जिससे सिंगापुर के लोग अधिक कमाई कर सकें।
- कम्पनियाँ सिंगापुर के लोगों में इस तरह के दीर्घकालिक निवेश के लिये तैयार नहीं थीं। ली ने जे.आर.डी. टाटा का रुख किया। टाटा ने सिंगापुर सरकार की साझेदारी में एक प्रशिक्षण केंद्र और एक वास्तविक टूल रूम स्थापित करके सिंगापुर के औद्योगिक विकास हेतु आधार बनाने में मदद की।
- वैश्वीकरण के नियमों ने पूँजी के स्थानांतरण को सरल बना दिया है परंतु प्रवासी श्रमिकों के लिये यह आसान नहीं है। ये कम्पनियाँ श्रमिकों का प्रयोग करने और मुनाफा कमाने के बाद स्वयं को स्थानांतरित कर लेतीं हैं।
- निवेशकों की तुलना में सरकारों को अपने नागरिकों व श्रमिकों के हितों के बारे में ज्यादा सोचना चाहिये। सरकारों को उन निवेशकों को ज्यादा प्रोत्साहित करना चाहिये, जो नागरिकों और श्रमिकों की देखभाल करते हैं। सरकारों को सलाह देने वाले अर्थशास्त्रियों को यह स्पष्ट करना चाहिये कि मनुष्य निवेशकों के लिये रिटर्न उपकरण के तौर पर प्रयुक्त नहीं होने चाहिये बल्कि सम्पत्ति मनुष्यों के लिये लाभ पैदा करने का एक उपकरण है।
गाँधीवादी अर्थव्यवस्था
- प्रवासी कामगार शहरों से उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में लौट रहे हैं। गाँवों में कुटीर उद्योग व पंचायती राज गाँधीवादी सिद्धांतों के ही अनुकूल हैं। गाँधी जी ने कहा था कि जब तक भारत के गाँवों में लोगों को आर्थिक और सामाजिक आज़ादी नहीं मिलती, भारत एक स्वतंत्र देश नहीं हो सकता। यह उनका पूर्ण स्वराज्य का सपना था।
- सिंगापुर की तुलना में अन्य राज्यों सहित उत्तर प्रदेश की परिस्थितियाँ अधिक जटिल हैं। सिंगापुर लगभग 6 मिलियन नागरिकों वाला एक शहरी राज्य है, जबकि उत्तर प्रदेश 200 मिलियन से अधिक की आबादी तथा दर्जनों शहर व हज़ारों गाँवों वाला राज्य है।
- आर्थिक रूप से गाँधी के विचारों को प्रायः काल्पनिक और अव्यवहारिक बताकर खारिज कर दिया जाता था यद्यपि गाँधी व उनके आर्थिक सलाहकारों ने भारत के गाँवों की आर्थिक व सामाजिक समस्याओं को योजना आयोग के अर्थशास्त्रियों से बेहतर तरीके से समझा है।
- गाँधी जी भारत के सर्वाधिक गरीब लोगों की क्षमता को भी पहचानते थे जो अर्थशास्त्रियों के लिये महज आँकड़े थे। इन सबके अतिरिक्त, उनका मानना था कि अर्थव्यवस्था का लक्ष्य केवल जी.डी.पी. के लिये मानव का उपयोग के बजाय मानव की सेवा व आवश्यकताओं को पूरा करने वाला होना चाहिये।
- इस दृष्टिकोण से गाँधी और ली कुआन यू के विचार एकसमान थे। ली के लिये सिंगापुर को पूरी तरह से विकसित करने का अंतिम उपाय जी.डी.पी. का आकार नहीं बल्कि नागरिकों की आय थी।
- सार्वजनिक नीतियों का परीक्षण निवेशकों और जी.डी.पी. के आधार पर न होकर शक्तिहीन लोगों के आधार पर होना चाहिये। ली, गाँधी और टाटा के विचारों में निवेशकों के लिये श्रमिकों के अधिकारों को सीमित करना नहीं था।
- वर्ष 2008 के वित्तीय संकट के बाद से विश्व संरक्षणवाद के दौर से गुज़र रहा है। कई देशों ने दूसरे देशों के प्रवासियों को रोकने के लिये कई बाधाएँ खड़ी की हैं। साथ ही, विश्व व्यापार संगठन की स्थिति भी काफी कमज़ोर हुई है। कोविड-19 के कारण पहले से जारी स्थानीयकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आई है और आपूर्ति श्रृंखलाएँ बाधित हो गईं हैं।
- गाँधीवादी अर्थव्यवस्था के अनुसार, मानव जाति और स्थानीय समुदाय मानवीय प्रगति के साधन होने चाहिये। प्रगति का प्रथम उद्देश्य उनकी उन्नति व भलाई होनी चाहिये। दूसरा, गाँवों और शहरों में स्थानीय स्तर पर मज़बूत शासन होना चाहिये। तीसरा, अमीर लोग सामुदायिक सम्पदा के केवल न्यासी (Trustees) होने चाहिये न कि इसके मालिक। चौथा, सहकारी पूँजीवादी उद्यमों के नए मॉडल के विकास के साथ मालिकों का श्रमिकों के मध्य अलगाव कम किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
वर्ष 1947 के बाद भारत के पास दो रास्ते थे। यह आर्थिक गतिविधि व मानवीय विकास के लिये पश्चिम देशों का अनुसरण कर सकता था या गाँधीवादी दृष्टिकोण को अपना सकता था। वर्तमान स्वास्थ्य व आर्थिक संकट ने लोगों को इस बात पर विचार पर करने के लिये मजबूर कर दिया है कि इस महामारी के बाद किस रास्ते को चुना जाए। भारत जी.डी.पी. के सामान्य अर्थशास्त्र पर पुनः वापस आ जाएगा या अधिक मानवीय व अधिक स्थानीयकरण के अर्थशास्त्र की ओर रुख करेगा।