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कानून निर्माण में संवैधानिक प्रक्रिया का दुरुपयोग

(प्रारंभिक परीक्षा- भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय)

संदर्भ

हाल ही में, कर्नाटक राज्य विधानमंडल ने ‘कर्नाटक पशुवध रोकथाम और गोधन संरक्षण विधेयक’ को पारित किया। इसे विधान परिषद में ध्वनि मत से पारित किया गया, जहाँ विपक्षी दल बहुमत में है और वे इसका विरोध कर रहे थे। इन दलों द्वारा मत विभाजन की माँग के बीच बहुमत के अभाव में भी इस विधेयक का पारित होना ध्वनि मत के संवैधानिक दुरुपयोग की ओर संकेत करता है।

नए विधायी स्वरुप का विकास

  • ‘कर्नाटक पशुवध रोकथाम और गोधन संरक्षण विधेयक’ के अतिरिक्त सितंबर, 2020 में कृषि कानूनों को भी राज्य सभा में इसी प्रक्रिया (ध्वनि मत) से पारित किया गया था।
  • इन दोनों मामलों में ध्वनि मत का सहारा इस आधार पर लिया गया कि विपक्षी दल कार्यवाही में बाधा पहुँचा रहें हैं, जबकि यह तर्क न्यायसंगत नहीं है। इन कानूनों के निर्माण में मत विभाजन का अभाव उच्च सदन के महत्त्व को कम करने जैसा है।
  • ध्वनि मत से पारित ये दोनों कानून संवैधानिक रूप से परिकल्पित विधायी प्रक्रिया को दरकिनार करते हुए एक नए विधायी स्वरुप के विकास का संकेत देते हैं। इन दोनों कानूनों को पहले अध्यादेश के रूप में लाया गया था।
  • इन विधेयकों को विधानमंडल में प्रस्तुत करने के बाद विपक्ष द्वारा बार-बार माँग किये जाने के बावजूद इन विधेयकों को विधायी समितियों के पास न भेजा जाने पर जोर दिया गया।

धन विधेयक प्रक्रिया का दुरूपयोग

  • संसद के उच्च सदन को नज़रअंदाज करने के लिये ध्वनि मत के अतिरिक्त धन विधेयक जैसे अन्य उपायों को भी कई बार प्रयोग में लाया गया है। उपयुक्त परिभाषा में फिट न होने के बावजूद कई कानूनों को पारित करने में धन विधेयक का सहारा लिया गया है, जिसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण आधार विधेयक है।
  • इसके अतिरिक्त अन्य विवादास्पद कानून, जैसे- चुनावी बॉन्ड से संबंधित कानून, विदेशी राजनीतिक चंदा नियमन कानून और न्यायाधिकरण से संबंधित कुछ कानूनों को भी धन विधेयक का सहारा लेकर पारित किया गया।
  • आधार मामले में उच्चतम न्यायालय ने बहुमत से धन विधेयक के उपयोग को सही ठहराया। हालाँकि, निर्णय से असहमति जताने वाले न्यायाधीश ने इससे को ‘संविधान के साथ धोखे’ के बराबर माना।

राज्यसभा की भूमिका

  • यद्यपि ये सभी कानून आवश्यक थे, फिर भी इनके अधिनियमन के लिये संदिग्ध प्रक्रिया का पालन अनुचित है। साथ ही, राज्यसभा (अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित) द्वारा लोकसभा (प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित) से बार-बार प्रश्न किये जाने की आलोचना स्वयं में द्वि-सदनीय व्यवस्था (Bicameralism) के अवमूल्यन की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
  • उल्लेखनीय है कि राज्यसभा ने कई बार सत्तारूढ़ दलों को कानूनी संशोधन करने से रोक दिया है। आपातकाल के बाद 42वें संवैधानिक संशोधन को जनता दल सरकार द्वारा पूर्ण रूप से निरस्त न किये जा सकने का कारण उस समय राज्यसभा में कांग्रेस की मज़बूत उपस्थिति थी।
  • साथ ही, राजीव गाँधी सरकार के पंचायती राज पर प्रस्तावित 64वें संवैधानिक संशोधन विधेयक को भी राज्यसभा में रोक दिया गया था, जबकि लोकसभा में उन्हें बहुमत प्राप्त था। हालाँकि, इनमें से किसी भी सरकार ने राज्यसभा को दरकिनार करने के लिये संवैधानिक प्रावधानों के दुरूपयोग का सहारा नहीं लिया।
  • यद्यपि राज्यसभा दो कारणों से दोषपूर्ण है। एक तो संवैधानिक रूप से इसके गठन के कारण और दूसरा अवांछनीय प्रथाओं के विकास के कारण, जैसे कि सदस्यों द्वारा उन राज्यों का प्रतिनिधित्त्व करना, जिनसे वे संबद्ध नहीं हैं। इनमें भी सुधार की आवश्यकता है।

द्वि-सदनीय व्यवस्था का महत्त्व

  • जेरेमी वाल्ड्रॉन के अनुसार, जनता का प्रतिनिधित्त्व करने के लिये निचले सदन के एकाधिकार पर प्रश्नचिन्ह ही द्वि-सदनीय व्यवस्था को वांछनीय बनाता है।
  • यद्यपि भारत में न्यायिक समीक्षा अभी विकास की अवस्था में है, तो ऐसी भूमिका वाले दूसरे सदन का महत्त्व विशेष रूप से बढ़ जाता है, जो कानूनों की विधायी जाँच का एक अवसर प्रदान करता है।
  • द्वि-सदनीयता के अन्य गुण विशेष रूप से भारत जैसी वेस्टमिंस्टर प्रणाली में महत्त्वपूर्ण है, जहाँ कार्यपालिका में निम्न सदन का वर्चस्व है। राज्य सभा में कार्यपालिका के प्रति कुछ अलग विधायी संबंधों की क्षमता है, जिससे शक्तियों का ठोस पृथक्करण संभव हो जाता है।

विधायिका की गंभीरता

  • यद्यपि महामारी के दौरान भी प्रत्येक बुधवार को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में ‘प्राइममिनिस्टर्स क्वेश्चन्स’ पर काम जारी रखा था, जबकि भारत में संसद को भी तब तक आहूत नहीं किया गया जब तक कि यह जरुरी न हो जाए। साथ ही, प्रश्नकाल को भी स्थगित कर दिया गया था।
  • यहाँ विधायिका की भूमिका केवल कानून पारित करने के रूप में देखी जाती है। ऐसे देश में जहाँ न्यायिक प्रक्रिया को स्वयं न्यायाधीशों ने न्याय प्राप्ति में बाधक माना है, वहाँ इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि स्वयं कानून निर्माता विधायी प्रक्रिया को विवादास्पद मानते हैं ताकि किसी प्रकार से कानून का निर्माण किया जा सके।
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