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भारतीय न्यायपालिका में असहमति की प्रकृति

(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2; भारतीय संवैधानिक योजना की अन्य देशों के साथ तुलना।)

संदर्भ 

असहमति लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है। लोकतंत्र में यह नागरिकों, विधायिका के सदस्यों के साथ ही संवैधानिक न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। दो मजबूत लोकतांत्रिक देश भारत और यू.एस. की न्यायपालिकाएँ इस संदर्भ में अपनी असहमति को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती हैं। हालाँकि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय (SC) में असहमति यू.एस. सुप्रीम कोर्ट (SCOTUS) जितनी ही शक्तिशाली है, लेकिन उनके कारण अलग-अलग हैं।

अमेरिका में न्यायिक असहमति

  • SCOTUS की असहमति मुख्य रूप से न्यायाधीशों के राजनीतिक झुकाव पर आधारित है क्योंकि वे राष्ट्रपति द्वारा सीधे नियुक्त किए जाते हैं,जिसकी पुष्टि सीनेट द्वारा की जाती है। 
    • उदाहरण के लिए, डेमोक्रेट द्वारा नियुक्त न्यायमूर्ति स्टीफन ब्रेयर ने सकारात्मक कार्रवाई व गर्भपात के पक्ष में  जबकि मृत्युदंड के खिलाफ अपना दृष्टिकोण व्यक्त है। 
    • ग्लोसिप बनाम ग्रॉस (2015) वाद  में उन्होंने असहमति देते हुए माना कि मृत्युदंड बिल ऑफ राइट्स के आठवें संशोधन का उल्लंघन करता है, जो अमानवीय और अपमानजनक सजा पर प्रतिबंध लगाता है।
  • रिपब्लिकन द्वारा नियुक्त न्यायमूर्ति सैमुअल एलिटो गर्भपात और समलैंगिक अधिकारों के विरोधी हैं।
    • ओबर्गेफेल बनाम होजेस (2015) वाद में उनकी असहमति ने तर्क दिया कि संविधान में समलैंगिक जोड़ों के विवाह के अधिकार को संबोधित नहीं किया गया है और इसलिए, न्यायालय इसे प्रदान नहीं कर सकती हैं।

भारत में न्यायिक असहमति

राजनीतिक असहमति

  • अमेरिका के विपरीत, भारतीय न्यायाधीश सत्तारूढ़ दल द्वारा नियुक्त नहीं होते हैं बल्कि उनका चयन वरिष्ठ न्यायाधीशों के एक कॉलेजियम द्वारा किया जाता है। 
    • उनके निर्णयों में राजनीतिक निहितार्थ नहीं होते हैं।
  • एडीएम जबलपुर (1976) के मामले में, पाँच में से चार न्यायाधीशों ने अनुच्छेद 359 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 21 सहित मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के निलंबित रहने के पक्ष में सहमति व्यक्त की। उस समय बहुमत का निर्णय राजनीतिक निर्णयों के अनुरूप था। 
    • हालाँकि न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना ने उस समय के राजनीतिक दबाव का सामना करते हुए असहमति जताई और तर्क दिया कि यदि अनुच्छेद 21 निलंबित रहता है, तो भी आपातकाल में जीवन और स्वतंत्रता से वंचित करने का कोई आधार नहीं होगा। 
    • तत्कालीन अस्थिर परिस्थितियों में  ‘अधिकारों’ को बरकरार रखने के उनके संकल्प को बाद में अनुच्छेद 359 में एक संवैधानिक संशोधन द्वारा कानून का रूप दिया गया।
  • पी.वी. नरसिम्हा राव (1998) मामले में सवाल यह था कि क्या संसद में मतदान के लिए रिश्वत लेना संसदीय विशेषाधिकार के अंतर्गत आता है, और क्या इसे अभियोजन से छूट प्राप्त है। 
    • इस संदर्भ में बहुमत की राय के विपरीत जस्टिस एस.सी. अग्रवाल और ए.एस. आनंद ने असहमति जताई। बहुमत का दृष्टिकोण उस समय के राजनीतिक दृष्टि के अनुकूल था। 
    • हालाँकि, असहमति बनी रही और बाद में सीता सोरेन (2023) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने छूट के ऐसे विस्तारित दृष्टिकोण को खारिज कर दिया।

सामाजिक असहमति

  • न्यायिक असहमति किसी कानूनी मुद्दे की अलग सामाजिक समझ या निहितार्थ को भी दर्शा सकती है। 
  • शायरा बानो (2017) वाद में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस्लाम में सुन्नियों के बीच तलाक के एक रूप के रूप में 'ट्रिपल तलाक' की संवैधानिकता पर निर्णय दिया जिसने मुस्लिम महिलाओं के जीवन के अधिकारों का उल्लंघन करने के लिए ट्रिपल तलाक को खारिज कर दिया।
    • हालाँकि जस्टिस जे.एस. खेहर और अब्दुल नजीर ने बहुमत से असहमति जताते हुए तर्क दिया कि ट्रिपल तलाक सुन्नी पर्सनल लॉ का एक अभिन्न अंग है और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है। 
    • इसके अलावा, इसकी संवैधानिकता का निर्धारण करना न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, क्योंकि केवल विधायिका ही विभिन्न धर्मों में सामाजिक रूप से अस्वीकार्य प्रथाओं में हस्तक्षेप कर सकती है।
  • ऐशात शिफा (2022) वाद में यह प्रश्न उठा कि क्या राज्य एक सार्वभौमिक ड्रेस कोड लागू करके मुस्लिम लड़कियों को स्कूल में हिजाब पहनने से रोक सकता है। इस मामले में भी  दो अलग-अलग राय थीं। 
    • न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता का मानना ​​था कि धर्मनिरपेक्षता राज्य को ऐसा करने की अनुमति देती है क्योंकि धर्म एक निजी मामला है, जिसके लिए राज्य द्वारा संचालित स्कूल की कक्षाओं में कोई स्थान नहीं है।
    •  दूसरी ओर, न्यायमूर्ति धूलिया इससे असहमत थे और उन्होंने ‘विविधता’, ‘बहुलता’ और ‘सहिष्णुता’ को संविधान के आधारभूत मूल्य माना। 
    • यह असहमति धर्मनिरपेक्षता की अलग-अलग समझ से उपजी थी।

बौद्धिक असहमति

  • लालता प्रसाद वैश (2024) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के नौ न्यायाधीशों ने निर्धारित किया कि क्या राज्यों के पास 'औद्योगिक शराब' पर कर लगाने की विधायी क्षमता है, या केवल केंद्र के पास ही ऐसा अधिकार है। 
    • इस मामले में आठ न्यायाधीशों से असहमत होते हुए न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने कहा कि राज्य औद्योगिक शराब पर कर नहीं लगा सकते। 
    • न्यायमूर्ति नागरत्ना की असहमति संविधान की सातवीं अनुसूची में सूची 2 की प्रविष्टि 8 के तहत 'मादक शराब' शब्द की व्याख्या पर आधारित थी। 
  • बहुमत का मानना ​​था कि यह विधायी प्रविष्टि ‘मानव उपभोग के लिए अनुपयुक्त शराब’ की व्याख्या व्यापक है जिसमें ‘औद्योगिक शराब’ भी शामिल है   इसलिए राज्य इस पर कर लगा सकते हैं। 
  • न्यायमूर्ति नागरत्ना का तर्क था कि औद्योगिक शराब का उपयोग विनिर्माण उद्देश्यों के लिए किया जाता है और इसे 'मादक शराब' के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। 
  • यह मतभेद केवल संविधान के पाठ की एक बौद्धिक व्याख्या पर आधारित था।
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