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न्यायिक चयन में परिवर्तन की आवश्यकता

(प्रारंभिक परीक्षा : न्यायपालिका से संबंधित प्रश्न)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 – न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य पर आधारित प्रश्न)

संदर्भ

  • हाल के दिनों में उच्चतम न्यायालय के ‘कॉलेजियम’ की सक्रियता के कारण उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में नए न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई है।
  • इस संदर्भ में, कॉलेजियम की संपन्न हुई एक बैठक में विभिन्न उच्च न्यायालयों की मौजूदा संरचना में बदलाव की सिफारिश भी की गई है। इन बदलावों के तहत आठ उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा पाँच न्यायाधीशों को स्थानांतरित किया जाएगा। 

पारदर्शिता की आवश्यकता

  • नियुक्तियों से संबंधित इन सिफारिशों को कॉलेजियम की सक्रियता के रूप में देखा जा रहा है। गौरतलब है कि किसी भी संस्थान की कार्यप्रणाली को सुचारू रूप से संचालित करने की न्यूनतम आवश्यकता होती है कि उस संस्थान में ‘कार्यबल’ की कमी न हो।
  • तथापि मुख्य चिंता कॉलेजियम की कार्यप्रणाली को लेकर है। कॉलेजियम की अपारदर्शिता, निर्णयों की अस्पष्टता तथा कार्यवाहियों के स्वतंत्र जाँच को लेकर कई विधिवेत्ताओं ने चिंता ज़ाहिर की है।
  • इन चिंताओं को सामान्यतया कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य गतिरोध के संदर्भ में देखा जाता है। इस प्रकार के गतिरोध का प्रत्यक्ष प्रभाव उच्च न्यायालयों की ‘प्रस्थिति’ पर पड़ता है।
  • वर्तमान में बिना किसी स्पष्ट संवैधानिक स्वीकृति के कॉलेजियम प्रभावी रूप से प्रत्येक उच्च न्यायालयों पर पर्यवेक्षण संबंधी शक्तियों का प्रयोग करता है।
  • मोटे तौर पर कॉलेजियम के निर्णय निम्नलिखित आधार पर आशंकाओं के घेरे में रहते हैं :-
    1. किसी न्यायाधीश को चयनित करने या ख़ारिज करने का तर्क;
    2. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्थानांतरण की प्रक्रिया के कारण। 

संतुलन की आवश्यकता

  • शक्तियों का पृथक्करण, भारतीय संविधानवाद का एक आधारभूत सिद्धांत है, इस सिद्धांत के तहत स्वायत्त न्यायपालिका को आधारभूत माना गया है। 
  • न्यायपालिका की स्वायत्तता में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रक्रिया भी शामिल है। भारतीय गणतंत्र को इस प्रश्न ने लंबे समय से परेशान किया है कि न्यायिक नियुक्तियों और न्यायपालिका की स्वायत्तता के मध्य संतुलन कैसे स्थापित किया जाए।
  • इस प्रश्न पर संविधान निर्माताओं के मध्य कई दिनों तक वाद-प्रतिवाद चला था, अंततः डॉ. बी.आर. अंबेडकर द्वारा वर्णित ‘मध्यम मार्ग’ (Middle Course) को अपनाया गया।
  • इसके अनुसार, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और ऐसे अन्य न्यायाधीशों के ‘परामर्श’ से नियुक्त किया जाएगा।
  • उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सी.जे.आई., संबंधित राज्य के राज्यपाल तथा उस न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के ‘परामर्श’ से की जाएगी।
  • स्थानांतरण के मामले में, राष्ट्रपति सी.जे.आई. से ‘परामर्श’ करने के उपरांत किसी न्यायाधीश को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर सकता है।

न्यायिक नियुक्तियाँ

  • उक्त संरचना में ‘कॉलेजियम’ शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन ‘एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद, 1993’ में उच्चतम न्यायालय ने ‘परामर्श’ शब्द की व्याख्या ‘सहमति’ के रूप में की थी।
  • उक्त ‘सहमति’ का अभिप्राय केवल सी.जे.आई. की सहमति न होकर न्यायाधीशों के एक निकाय की सहमति से है, जिसे इस निर्णय में ‘कॉलेजियम’ के रूप में वर्णित किया गया है।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने ‘नियुक्तियों और स्थानांतरण’ की एक पूरी प्रक्रिया को समाप्त कर दिया तथा एक ऐसी प्रणाली तैयार की, जहाँ न्यायपालिका के शीर्ष क्षेत्रों में उसकी (उच्चतम न्यायालय) प्रधानता स्थापित हो गई।
  • उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियों और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्थानांतरण के लिये कॉलेजियम में सी.जे.आई. एवं उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होंगे, जबकि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति में सी.जे.आई. व उनके दो वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होंगे।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग 

  • ंसद ने 99वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2015 के माध्यम से उच्चतम न्यायालय द्वारा अपनाई जा रही पेचीदा प्रक्रियाओं (नियुक्तियाँ एवं स्थानांतरण) को ठीक करने का प्रयास किया गया।
  • इस संशोधन के माध्यम से कॉलेजियम के स्थान पर ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ (NJAC) के गठन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था, इस सीमित में न्यायपालिका, कार्यपालिका और आम नागरिकों के सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान किया गया था।
  • हालाँकि, उच्चतम न्यायालय ने कॉलेजियम को बदलने के प्रयासों को विफल कर दिया तथा ‘चौथे न्यायाधीशों के मामले’ में माना कि ‘नियुक्तियों एवं स्थानांतरण’ में न्यायिक प्रधानता संविधान की एक अनिवार्य विशेषता है।
  • दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि न्यायालय ने कहा कि जिस निकाय (कॉलेजियम) का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है, उसे इतना ‘पवित्र’ मान लिया गया है कि उसे एक संवैधानिक संशोधन द्वारा भी छुआ नहीं जा सकता है।
  • कई विधिवेत्ताओं ने भी माना कि एन.जे.ए.सी. पूर्णता से बहुत दूर था। उसके संदर्भ में वैध आशंकाएँ भी थीं कि आयोग के द्वारा ‘कमज़ोर न्यायाधीशों’ की नियुक्ति हो सकती है।
  • अतः यह तर्क देना उचित है कि जब तक एक बेहतर विकल्प तैयार नहीं हो जाता है, तब तक कॉलेजियम को ‘सर्वोत्तम समाधान’ माना जाएगा। अतः न्यायालय ने भी माना कि उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों को नियुक्तियों और स्थानांतरण में प्राथमिकता देना ही न्यायपालिका की स्वतंत्रता की गारंटी का एकमात्र व्यावहारिक रास्ता है।

एन.जे.ए.सी. के बाद की स्थिति 

  • न्यायालय ने एन.जे.ए.सी. को असंवैधानिक घोषित करने के साथ-साथ मौजूदा व्यवस्था में सुधार का भी वादा किया लेकिन छह वर्ष बाद उसने अपने वक्तव्यों को ही भुला दिया है।
  • नियुक्तियों और स्थानांतरण से संबंधित नई प्रक्रिया का कहीं ज़िक्र नहीं हो रहा है। चयन की प्रक्रिया में जिन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिये, उन्हें अस्पष्ट छोड़ दिया गया है।
  • ये प्रश्न उठाया जाता है कि न्यायिक स्वायत्तता के नाम पर चयन प्रक्रिया पर पर्दा डालना आवश्यक क्यों है? साथ ही, ऐसा कोई वैध कारण नहीं है जिसके तहत नागरिकों को ये नहीं जानना चाहिये कि न्यायाधीशों को कैसे चुना या स्थानांतरित किया जाता है।
  • हालिया नई सिफारिशों में उच्च न्यायालयों के पाँच मुख्य न्यायाधीशों को स्थानांतरित किया गया है, जबकि मूल संवैधानिक योजना में उच्च न्यायालयों पर उच्चतम न्यायालय के ‘प्रशासनिक अधीक्षण’ की किसी शक्ति की कोई परिकल्पना नहीं की गई है।

निष्कर्ष

उच्च न्यायालयों की प्रस्थिति को बहाल करना संविधान में विश्वास बहाल करने के समान है। अतः इसे हासिल करने के लिये नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की आवश्यकता है। अब समय गया है कि मौजूदा प्रक्रियाओं में सुधार संबंधी कार्यों को गंभीरता से संबोधित किया जाए क्योंकि यथास्थिति अंततः उन्हीं संस्थानों के लिये हानिकारक है, जिनकी (उच्च न्यायालय) वह रक्षा करना चाहता है।

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