(प्रारंभिक परीक्षा : सामाजिक-आर्थिक विकास, समावेशन तथा सामाजिक क्षेत्र में की गई पहलें)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय)
संदर्भ
हाल के दिनों में, भारतीय मुद्रा बाज़ार में व्यापक अनिश्चितता देखी गई। हालाँकि इस संबंध में ऐसे विनियमन का अभाव है, जो भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के क्रियाकलापों को परिभाषित करता हो।
वर्तमान परिदृश्य
- मौद्रिक नीति, जिसे ‘मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण’ का स्पष्ट अधिदेश प्राप्त है, के इतर विदेशी मुद्रा प्रबंधन को आर.बी.आई. के विवेक पर छोड़ा गया है। विगत कई वर्षों से आर.बी.आई. ने रुपए का मूल्य लक्षित नहीं किया बल्कि इसकी अस्थिरता को नियंत्रित करने के लिये समय-समय पर कई हस्तक्षेप किये हैं।
- हालाँकि मुद्रा बाज़ार के वृहत् परिमाण तथा प्रकृति को देखते हुए आर.बी.आई. का यह हस्तक्षेप विनिमय दर के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विशेषकर, विगत कुछ माह से मुद्रा बाज़ार में केंद्रीय बैंक की भूमिका प्रभावी रूप में सामने आई है।
- वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान आर.बी.आई. की हस्तक्षेप नीति को उत्कृष्ट माना गया क्योंकि इस दौरान विदेशी मुद्रा का उच्च अंतर्प्रवाह देखा गया। इस नीति के द्वारा आर.बी.आई. ने मुद्रा बाज़ार की अस्थिरता को रोकने में सफलता प्राप्त की।
- इसके अतिरिक्त, आर.बी.आई. ने रुपए के अत्यधिक अधिमूल्यन को रोकने का भी प्रयास किया, जो भारत के घरेलू उत्पादन, रोज़गार तथा आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को प्रभावित कर सकता था।
वर्ष 2020-21 में विदेशी मुद्रा का प्रवाह
- वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान भारत में विदेशी मुद्रा का रिकॉर्ड अंतर्प्रवाह हुआ। कोविड-19 के दौरान उपभोग तथा आयात में भारी गिरावट दर्ज़ की गई, परिणामस्वरूप फरवरी 2021 तक चालू खाते में लगभग $27 बिलियन का अधिशेष दर्ज़ किया गया।
- इसी अवधि में $41 बिलियन का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) तथा $36 बिलियन का विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (FPI) प्राप्त हुआ। विदेशी मुद्रा के रिकॉर्ड अंतर्प्रवाह के बावजूद डॉलर, रुपए के मुकाबले मात्र 2% ही कमज़ोर हो सका। डॉलर-रुपए के समीकरण में यह सापेक्षिक स्थिरता इसलिये रही क्योंकि आर.बी.आई. ने ‘स्पॉटमार्केट’ में लगभग $74 बिलियन तथा वायदा बाज़ार में लगभग $79 बिलियन की खरीदारी की थी।
- बाज़ार में किये गए हस्तक्षेप और उसके व्यापक प्रभाव को देखते हुए, आर.बी.आई. ने पुनः स्पष्ट किया कि उसके बाज़ार-हस्तक्षेप का उद्देश्य किसी भी स्तर को लक्षित नहीं करना होता है, बल्कि इसका उद्देश्य केवल अस्थिरता को कुछ कम करना होता है।
आवश्यकता क्यों?
- भारत में मुद्रास्फीति को लक्षित करने के लिये तो ‘मौद्रिक नीति समिति’ के रूप में एक विधिक ढाँचा स्थापित है, लेकिन ऐसे किसी भी सार्वजनिक ढाँचे का अभाव है, जो ‘विदेशी मुद्रा संचालन’ के क्षेत्र में आर.बी.आई. का मार्गदर्शन कर सके।
- आर.बी.आई. को इस पर भी विचार करना होगा कि क्या वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान हुआ विदेशी मुद्रा का भारी अंतर्प्रवाह एक-तरफा था? इससे पूर्व भारत में वित्तीय वर्ष 2017-18 में $28.9 बिलियन विदेशी मुद्रा का उच्च अंतर्प्रवाह हुआ था।
- वर्तमान परिदृश्य में यदि आर.बी.आई. रुपए को बाज़ार के हाल पर छोड़ देता तो इसका स्तर डॉलर के मुकाबले 68 रुपए या उससे भी नीचे जा सकता था। इसी तरह, यदि विदेशी मुद्रा का बहिर्प्रवाह होता तो रुपए में तीव्र गिरावट हो सकती थी। इस प्रकार की अस्थिरता अंतर्राष्ट्रीय व्यापार तथा निवेश के लिये प्रतिकूल होती है।
- उक्त परिस्थितियों में आर.बी.आई. द्वारा बाज़ार से अतिरिक्त तरलता कम करने के लिये उठाए गए कदमों को उचित ठहराया जा सकता है, किंतु यह उत्तर अभी भी शेष है कि ऐसे हस्तक्षेपों का आधार क्या होना चाहिये?
- उल्लेखनीय है कि वर्तमान दौर में उपभोग, आयात तथा वैश्विक तरलता में हुई गिरावट कोविड-19 से उत्पन्न परिस्थितियों से प्रेरित है।
मुद्रा का उचित मूल्य
- मुद्रा का उचित मूल्य मापने की सबसे आसान और प्रभावी व्यवस्था ‘वास्तविक प्रभावी विनिमय दर’ (REER) होती है। इसे एक उदाहारण से समझ सकते हैं–
- माना कि आज $1 का मूल्य 75 रुपए है। संयुक्त राज्य अमेरिका में एक चॉकलेट का मूल्य $1 है तथा इसी चॉकलेट का मूल्य भारत में 75 रुपए है। इसी तरह, मान लें कि संयुक्त राज्य अमेरिका में मुद्रास्फीति की वार्षिक दर 2% है, जबकि भारत में यही दर 6% है।
- एक वर्ष उपरांत यदि डॉलर का मूल्य स्थिर रहता है तो उसी चॉकलेट का मूल्य यू.एस.ए. में 1.02 डॉलर तथा भारत में 79.5 रुपए होगा। डॉलर का मूल्य स्थिर रहने के कारण उसे यू.एस.ए. से 76.5 रुपए ($02 X 75) के मूल्य पर आयात किया जा सकता है, जो घरेलू मूल्य स्तर 79.5 रुपए से काफी कम होगा। ऐसी स्थिति में, चॉकलेट के घरेलू उत्पादक तब तक प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकते हैं, जब तक चॉकलेट की कीमतें तथा मुद्रा की दर पुनः संतुलित नहीं हो जाती है।
- बेशक, कई अन्य कारक भी मुद्रा के मूल्य निर्धारण के लिये उत्तरदायी होते हैं, लेकिन भारत के घरेलू उत्पादन एवं रोज़गार को बढ़ाने तथा ‘आत्मनिर्भर भारत’ का सपना साकार करने के लिये ये सिद्धांत भी उपयोगी हैं।
इम्पॉसिबल ट्रिनिटी
- ‘असंभव-त्रय’ या ‘इम्पॉसिबल ट्रिनिटी’ से आशय ऐसी स्थिति से है, जब एक केंद्रीय बैंक, दीर्घकाल में स्वतंत्र मौद्रिक नीति के संचालन के लिये एक निश्चित विनिमय दर तथा पूँजी के मुक्त आवागमन की उम्मीद करता है।
- उदाहरण के लिये, एक केंद्रीय बैंक लचीली मौद्रिक नीति के द्वारा समग्र मुद्रा आपूर्ति को बढ़ाकर तथा मुद्रा बाज़ार में अपनी मुद्रा की बिक्री को प्रतिबंधित किये बिना यह उम्मीद नहीं कर सकता है कि उसकी मुद्रा की विनिमय दर स्थिर रहेगी। यह विचार ‘मुंडेल-फ्लेमिंग के सिद्धांत’ पर आधारित है।
- उक्त अकादमिक परिभाषा से परे, इस तथ्य पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि भारत इसका संचालन कैसे करता है।
- कुछ समय पूर्व मौद्रिक नीति के माध्यम से लचीली मुद्रास्फीति को लक्षित किया गया था। हालाँकि यह ढाँचा ‘इम्पॉसिबल ट्रिनिटी’ से भिन्न है। इसका निहितार्थ यह है कि मुद्रा बाज़ार को अलग से प्रबंधित करने की आवश्यकता है, जबकि एम.पी.सी. केवल मुद्रास्फीति से निपटने के लिये मौद्रिक नीति का प्रयोग करती है।
- हालाँकि एम.पी.सी. की समीक्षा के आधार पर आर.बी.आई. द्वारा निर्धारित ब्याज दरें मुद्रास्फीति से ज़्यादा, मुद्रा बाज़ार और उसमें होने वाले प्रवाह को प्रभावित कर सकती हैं।
भावी राह
- कोविड-19 के दौरान बड़ी मात्रा एकत्रित हुए इस ‘बफर’ (विदेशी मुद्रा भंडार) का प्रयोग महामारी और उससे आगे की कठिनाइयों से लड़ने के लिये किया जा सकता है। इस कठिन घड़ी में यह मुद्रा भंडार केंद्रीय बैंक के समक्ष न सिर्फ पर्याप्त विदेशी मुद्रा की उपस्थिति सुनिश्चित करेगा, बल्कि उसे मौद्रिक नीति के स्वतंत्र संचालन में भी सक्षम बनाएगा।
- इसके अलावा, आर.बी.आई. अवसंरचना निर्माण के क्षेत्र में निवेश के लिये भी कदम उठा सकता है, जैसे– यदि निवेश रुपए में है तो उधारकर्ता उसे आसानी से डॉलर में बेच सकता है, इससे आर.बी.आई. का मुद्रा भंडार भी बरकरार रहेगा।
- विदेशों में निवेशित आर.बी.आई. के व्यापक रिज़र्व के उचित प्रयोग को लेकर अभी भी ठोस रणनीति की आवश्यकता है। हालाँकि इसके विदेशों में निवेश के बारे में अभी भी सीमित जानकारी उपलब्ध है। इस संबंध में अनुमान है कि यह राशि उच्च गुणवत्ता वाले तथा अल्पकालिक संप्रभु बॉण्ड और जमाओं के रूप में मौजूद है।
निष्कर्ष
समेकित रूप से कहा जाए तो ऐसी स्थिति में केंद्रीय बैंक भूमिका सराहनीय रही है किंतु अन्य वैश्विक अनुभवों को देखते हुए विदेशी मुद्रा भंडार को प्रबंधित करने के लिये एक विशिष्ट एजेंसी की स्थापना की आवश्यकता है। इससे संबंधित अस्पष्टता को समाप्त करने के लिये आर.बी.आई. के विदेशी मुद्रा प्रबंधन के उद्देश्यों, उसके इंटर-लिंकेज तथा परिणामों के बारे में पर्याप्त संवाद की आवश्यकता है।