(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी- विकास एवं अनुप्रयोग और रोज़मर्रा के जीवन पर इसका प्रभाव)
पृष्ठभूमि
- सन् 1543 में यूरोप में शुरू हुई वैज्ञानिक क्रांति से पूर्व भारतीय वैज्ञानिक प्राकृतिक विश्व को समझने के साथ-साथ परिणामों को मापने या परिवर्तित करने के लिये दृष्टिकोण व प्रौद्योगिकियों का विकास कर रहे थे।
- दो सहस्राब्दी से अधिक पुरानी चरक संहिता हो या महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय का जंतर मंतर हो, विज्ञान और प्रौद्योगिकी ब्रिटिश शासन से बहुत पहले से ही व्यापक रूप से भारत के ताने-बाने में अंतर्निहित थी।
- औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय विज्ञान को अधिक महत्त्व न दिये जाने के बावजूद जे.एन. टाटा और मैसूर की रीजेंट क्वीन ने वर्ष 1909 में आई.आई.एस.सी. (IISC) की स्थापना के लिये आधार तैयार किया।
- सन् 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद 15 वर्षों में 32 नए शैक्षिक और वैज्ञानिक प्रतिष्ठान स्थापित किये गए, जिन्होंने आदर्श संस्थानों के रूप में कार्य किया।
विकास और विज्ञान
- स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक नेतृत्व ने विज्ञान के साथ-साथ परमाणु और अंतरिक्ष कार्यक्रमों को विकास के लिये आवश्यक माना। वर्ष 1958 में सरकार ने ‘वैज्ञानिक नीति प्रस्ताव’ प्रकाशित किया। इसके अनुसार, समकालीन विश्व की प्रमुख विशेषता बड़े पैमाने पर विज्ञान के प्रयोग को बढ़ावा देना और देश की आवश्यकताओं के लिये इसका अनुप्रयोग करना था।
- अनुच्छेद 51क के आठवें मौलिक कर्तव्य के अनुसार, भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक प्रवृत्ति, मानवतावाद तथा सवाल (प्रश्न) व सुधार की भावना का विकास करे। इस प्रकार, संविधान ने समाज के मूलभूत पहलू के रूप में खोजी मनोवृत्ति और वैज्ञानिक स्वभाव को आवश्यक बना दिया।
- जवाहरलाल नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है कि वैज्ञानिक स्वभाव जीवन का एक तरीका है और यह सोचने व कार्य करने की एक व्यक्तिगत तथा सामाजिक प्रक्रिया है। वैज्ञानिक मनोवृत्ति को ‘पारंपरिक वैज्ञानिक समुदाय के दृष्टिकोण’ और ‘समग्र रूप से समाज के दृष्टिकोण’ के रूप में देखा जा सकता है।
- स्वतंत्रता से पूर्व औपनिवेशिक दौर में भी भारत में कई प्रमुख वैज्ञानिक थे। इनमें वनस्पतिशास्त्री फादर यूजीन लाफोंट ने भारतीय विज्ञान विकास संघ की स्थापना में सहयोग किया और जे.जे. एवरशेड के नाम पर क्रोमोस्फीयर में ‘एवरशेड फ्लो इफेक्ट’ का नामकरण किया गया। के.एस. कृष्णन व सी.वी. रमन जैसे भारतीय वैज्ञानिकों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त थी।
- हालाँकि, इन वैज्ञानिकों ने व्यक्तिगत आधार पर संबंधित क्षेत्रों का विकास किया, फिर भी स्वतंत्रता पश्चात सरकार की नीतियों से भारत में प्रतिस्पर्धी व्यक्तिवाद से संस्था निर्माण को समर्थन प्राप्त था।
अवसरों की समस्या
- स्वतंत्रता के बाद के विस्तारवादी चरण के पश्चात् 21वीं सदी में नए संस्थानों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें आई.आई.टी. (IIT) व ए.आई.आई.एम.एस. (AIIMS) जैसे सफल मॉडल को दोहराया जा रहा है और आई.आई.एस.ई.आर. (IISER) जैसे नए संस्थान बनाए जा रहे हैं।
- बढ़ती आबादी और बदलती दुनिया के साथ तालमेल बैठाने के लिये इसकी ज़रूरत थी किंतु वैश्विक विज्ञान के क्षेत्र में भारत की स्थिति को परिवर्तित करने के लिये इसके परीक्षण की आवश्यकता है।
- शोध के प्रकाशन के मामले में भारत की स्थिति में सुधार हो रहा है। हालाँकि, उनकी गुणवत्ता और उच्च स्तरों पर उनकी स्वीकृति के साथ-साथ बाद में उनकी उपयोगिता कम ही है। देश के सर्वोत्तम संस्थानों के छात्र पढ़ाई पूरी होने के बाद अक्सर विदेश चले जाते हैं। वैज्ञानिक समुदाय पोस्ट-डॉक्टरेट पदों और अवसरों की कमी को लेकर चिंतित रहते हैं।
- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के छात्रों में अकादमिक क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में रोज़गार की कमी पिछले कुछ दशकों में तेज़ी से महसूस हुई है। नवाचार के लिये मौलिक खोज और उसके अनुप्रयोग दोनों की आवश्यकता होती है।कुछ समय पहले तक उद्योग सहभागिता को वैज्ञानिक प्रयासों के रूप में देखा जाता था जो अपने स्वयं के बुनियादी अनुसंधान क्षेत्रों से समझौता नहीं कर सकते थे।एक तरफ केवल संस्थानों की स्थापना और दूसरी तरफ उनके लिंकेज की कमी का तात्पर्य है कि देश में न तो विभिन्न क्षेत्रों में अकादमिक प्रतिस्पर्धात्मक उत्कृष्टता के लिये महत्त्वपूर्ण परिस्थितियाँ हैं और न ही नवाचार के लिये पारिस्थितिक तंत्र उपलब्ध है।
बदलाव के प्रयास
- वर्ष 2020 की ‘विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार नीति’ के अनुसार, भारत को ‘सतत विकास मार्ग पर आगे बढ़ने तथा 'आत्मनिर्भर भारत' के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में पारंपरिक ज्ञान प्रणाली विकसित करने, स्वदेशी प्रौद्योगिकियों के विकास पर अधिक जोर देने तथा ज़मीनी स्तर पर नवाचारों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
- सी.एस.आई.आर. (CSIR) और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने अपनी योजनाओं के माध्यम से विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का प्रयास किया है, किंतु इसके लिये बड़े पैमाने पर संसाधनों के समर्थन की आवश्यकता है।
- कोविड-19 जैसी महामारी वैज्ञानिक मूल्य को संप्रेषित करने और वैज्ञानिक सोच की कमी के कारण उत्पन्न चुनौतियों का मुकाबला करने का एक अवसर है। वर्ष 1962 में स्थापित केरल शास्त्र साहित्य परिषद् के सामान इस आवश्यकता को 1970 के दशक में विभिन्न प्रकार से 'लोगों के विज्ञान आंदोलनों' द्वारा भी मान्यता दी गई थी।
- इस मुद्दे को वैज्ञानिकों ने भी पहचाना किंतु समाज के साथ संचार का उनका चैनल सीमित रहा है जो महामारी के दौरान उपचार के अप्रमाणित तरीकों में विश्वासों के बढ़ने और गलत सूचनाओं के व्यापक दुष्प्रचार से परिलक्षित होता है।
- भारत के अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों की व्यापक रूप से सराहना और उस पर विश्वास किया जाता है। इन कार्यक्रमों और गणित व रसायन विज्ञान के कुछ क्षेत्रों का विकास उन व्यक्तियों के कारण हुआ जिन्होंने सरकार को इन संस्थानों में निवेश करने और नौकरशाही के इतर उनका समर्थन करने के लिये राजी किया। हालाँकि, अन्य क्षेत्रों ने समाज या सरकार के दृष्टिकोण से उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है।
निष्कर्ष
वैज्ञानिक सोच के बिना एक समाज के रूप में जीवित रह पाना कठिन है। इस सोच को अविष्कार और विकास की प्रक्रिया में आवश्यक रूप से योगदान दिये बिना भी विश्व के अन्य हिस्सों में जो विकसित किया गया और सीखा गया है उसे स्वीकार करके भी प्राप्त किया जा सकता है।