(प्रारंभिक परीक्षा- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-3: मुख्य फसलें- देश के विभिन्न भागों में फसलों का प्रतिरूप, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी- विकास एवं अनुप्रयोग और रोज़मर्रा के जीवन पर इसका प्रभाव)
संदर्भ
हाल के शोध से ज्ञात हुआ है की मुख्य भोजन के रूप में प्रयोग किये जाने वाले चावल और गेहूँ में पोषक तत्त्वों की मात्रा में कमी आ रही है।
पृष्ठभूमि
- लगभग 10,000 वर्ष पहले मनुष्यों द्वारा चावल का घरेलू प्रयोग आरंभ किया गया था, जो अब तीन अरब से अधिक लोगों के लिये मुख्य भोजन बन गया है। शोध टीम के अनुसार वर्तमान चावल में आवश्यक पोषक तत्त्वों की मात्रा उतनी नहीं है, जितनी 50 वर्ष पूर्व थी।
- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR) और विधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय के तहत विभिन्न संस्थानों के शोधकर्ताओं ने पाया कि भारत में चावल और गेहूँ की खेती में ‘जस्ता और लोहे’ की मात्रा में कमी आई है। ये निष्कर्ष ‘पर्यावरण और प्रायोगिक वनस्पति विज्ञान’ में प्रकाशित किये गए थे।
- टीम ने आई.सी.ए.आर.-राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, चिनसुराह चावल अनुसंधान केंद्र और आई.सी.ए.आर.-भारतीय गेहूँ और जौ अनुसंधान संस्थान में अनुरक्षित जीन बैंक से चावल (16 किस्में) और गेहूँ (18 किस्में) के बीज एकत्र किये हैं।
फसल रिपॉजिटरी
- उक्त संस्थान, नोडल संस्थान हैं, जो देश के पुराने बीजों या किस्मों को संरक्षित और संग्रहित करते हैं। ये संस्थान आनुवंशिक सामग्री के भंडार हैं।
- ये संस्थान वास्तविक किस्म के अध्ययन, जैसा कि वनस्पति विज्ञानी उन्हें एक पौधे का ‘सच्चा प्रकार’ कहते हैं, के मुख्य स्रोत हैं।
- एकत्रित बीजों को प्रयोगशाला में अंकुरित किया गया, गमलों में बोया गया और बाहरी वातावरण में रखा गया तथा उन्हें आवश्यक उर्वरकों के साथ उपचारित करने के पश्चात् उनकी पोषक सामग्री के लिये कटाई के बाद बीजों का अध्ययन किया गया।
पोषक तत्त्वों की कम मात्रा
- शोध टीम ने नोट किया कि वर्ष 1960 के दशक में जारी चावल की किस्मों के अनाज में जस्ता और लोहे की सांद्रता 27.1 मिलीग्राम / किग्रा. और 59.8 मिलीग्राम / किग्रा. थी।
- यह 2000 के दशक में क्रमशः 20.6 मिलीग्राम/किग्रा. और 43.1 मिलीग्राम/किग्रा. तक कम हो गया।
- गेहूँ में, जस्ता और लोहे की सांद्रता 33.3 मिलीग्राम/किग्रा. और 57.6 मिलीग्राम/किग्रा., 1960 के दशक के दौरान जारी की गई किस्मों में क्रमशः 23.5 मिलीग्राम/किग्रा. और 46.4 मिलीग्राम/किग्रा. तक गिर गई है।
- इस तरह की कमी के कई संभावित कारण हो सकते हैं, जैसे ‘कमज़ोर पड़ने वाला प्रभाव’ (Dilution Effect), जो उच्च अनाज उपज के प्रतिउत्तर में पोषक तत्त्वों की मात्रा में कमी के कारण होता है।
- इसका अभिप्राय यह है कि उपज में वृद्धि की दर, पौधों द्वारा पोषक तत्त्व ग्रहण करने की दर को क्षतिपूर्ति प्रदान नहीं कर पा रही है। साथ ही, पौधों को सहारा देने वाली मृदा में पौधों के लिये उपलब्ध पोषक तत्त्व कम हो सकते हैं।
- जस्ता और लौह की कमी वैश्विक स्तर पर अधिकतर लोगों को प्रभावित करती है और ऐसी कमी वाले देशों में मुख्य रूप से चावल, गेहूँ, मक्का तथा जौ से बने आहार प्रचलित होते हैं।
- हालाँकि, भारत सरकार ने स्कूली बच्चों को पूरक गोलियाँ उपलब्ध कराने जैसी पहल शुरू की है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।
- सरकार को ‘बायोफोर्टिफिकेशन’ जैसे अन्य विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, जहाँ सूक्ष्म पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्य फसलों की कृषि की जाती है।
निष्कर्ष
- शोध-पत्र का निष्कर्ष है कि भारतीय जनसंख्या में जस्ता और लौह कुपोषण को कम करने के लिये चावल और गेहूँ की नए बीजों (1990 के बाद में) की खेती करना एक स्थायी विकल्प नहीं हो सकता है।
- भविष्य के बीज कार्यक्रमों में किस्मों को जारी करते हुए ‘अनाज आयनोम’, अर्थात पोषण संबंधी पैटर्न, में सुधार करके इन नकारात्मक प्रभावों को दूर करने की आवश्यकता है।