(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2: विषय - द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार, भारत एवं इसके पड़ोसी- सम्बंध, भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव; प्रवासी भारतीय, महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ और मंच-उनकी संरचना, अधिदेश)
हाल के दिनों में तमाम रणनीतिक समीकरणों और वैश्विक स्तर पर विभिन्न नए समूहों के बन जाने की वजह से गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता कम हो गई है। इसके साथ ही भारत की विदेश नीति में भी गुटनिरपेक्षता का महत्त्व अब कम होने लगा है।
पृष्ठभूमि:
- गुटनिरपेक्षता शीत युद्ध के दौरान एक नीति थी, जो विश्व के अनेक देशों द्वारा दो राजनैतिक-सैन्य पाखंडों (साम्यवादी सोवियत संघ और पूंजीवादी अमेरिका) के बीच एक छद्म मौन युद्ध के दौरान खुद की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिये अपनाई गई थी।
- गुट निरपेक्ष आंदोलन (NAM) ने इस स्वायत्तता की रक्षा के लिये नव-स्वतंत्र विकासशील देशों को एक मंच प्रदान किया।
- गुट निरपेक्ष आंदोलन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासर एवं युगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसेफ ब्रौज़ टीटो के साथ इंडोनेशिया के डॉ सुकर्णो एवं घाना के क्वामे एन्क्रूमाह द्वारा शुरू किया गया था। इसकी स्थापना अप्रैल 1961 में हुई थी। बेलग्रेड में 1961 ई. में ही इसका पहला सम्मेलन आयोजित हुआ था।
- इस समूह में 120 देश शामिल हैं। यह संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ के कुल सदस्यों की संख्या के लगभग 2/3 एवं विश्व की कुल जनसंख्या के 55% भाग का प्रतिनिधित्त्व करता है। खासकर इसमें तृतीय विश्व यानी विकासशील देश सदस्य हैं।
- हवाना घोषणा-1979 के अनुसार, इस संगठन का उद्देश्य गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता, सार्वभौमिकता, क्षेत्रीय एकता एवं सुरक्षा को साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, जातिवाद, रंगभेद एवं विदेशी आक्रमण, सैन्य अधिकरण, हस्तक्षेप जैसे मुद्दों पर सहायता करते हुए इन मुद्दों के विरुद्ध अभियान चलाना है। इसके साथ ही किसी पावर ब्लॉक के पक्ष या विरोध में न होकर निष्पक्ष रहना है।
- शीत युद्ध की समाप्ति के बाद NAM देश पूर्व-पश्चिम विभाजन के दौर में अपने रिश्तों को और मज़बूत करने में सक्षम थे और विविधता ला सकते थे, लेकिन उसके बाद से धीरे-धीरे इस समूह का अस्तित्व अब खतरे में पड़ता नज़र आ रहा है।
वर्तमान में गुट निरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता:
- शीत युद्ध के दौरान नवीन स्वतंत्र देशों के हितों की रक्षा करने के लिये प्रकाश में आए इस आंदोलन की प्रासंगिकता पर सोवियत संघ के विघटन के पश्चात प्रश्नचिन्ह लगने लगा और वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों का इस समूह के प्रति आकर्षण समय के साथ कम होने लगा।
- सैद्धांतिक या कुछ विषयों या मुद्दों के हिसाब से देखा जाए तो यह आंदोलन अप्रासंगिक प्रतीत होता है लेकिन कुछ मुद्दों के साथ इसकी प्रासंगिकता अभी भी बनी हुई है-
- जलवायु परिवर्तन को लेकर देशों के मध्य विभिन्न विवाद को लेकर।
- गुटबाज़ी की वजह से कई क्षेत्रों में उत्पन्न संघ, जैसे- मध्य पूर्व, खाड़ी देश, अफगानिस्तान आदि।
- शरणार्थी समस्याओं को लेकर (रोहिंग्या, फिलिस्तीन, सीरिया आदि)।
- एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अक्सर शक्ति संतुलन की वजह से होने वाले किसी सम्भव टकराव की स्थिति।
- आतंकवाद के विषय को लेकर।
- नव साम्राज्यवाद को केंद्र में रखकर की जाने वाली राजनीतिक कूटनीति को लेकर।
- ऋण जाल (Debt Trap) की राजनीति को लेकर।
- साइबर हमलों, जैव रासायनिक हमलों, परमाणु ऊर्जा से जुड़े विषयों को लेकर और अंतरिक्ष से जुड़ी अंधाधुंध प्रतिस्पर्द्धा को लेकर।
वर्तमान संदर्भ में गुटनिरपेक्षता और भारत की विदेश नीति:
- विगत कुछ वर्षों से भारत के नीति निर्धारकों द्वारा भारत की विदेश नीति के सिद्धांत के रूप में गुटनिरपेक्षता को महत्त्व नहीं दिया जा रहा है।
- वैश्विक स्तर पर भारत को अभी तक गुटनिरपेक्षता का कोई सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत विकल्प नहीं मिला है।
- एक विकल्प के रूप में भारत द्वारा "रणनीतिक स्वायत्तता" की धारणा ने वैश्विक रूप से ज़्यादा महत्त्व हासिल कर लिया है।
- किसी भी प्रकार के वैश्विक गुटवाद को सार्वभौमिक स्वीकार्यता अब नहीं मिल रही है, क्योंकि यह अवसरवाद की धारणा को व्यक्त कर सकता है।
- किसी विशेष विषय पर आधारित साझेदारी या गठबंधन अक्सर बहुत देर नहीं टिकता और समूह अक्सर बीच में हीं कहीं अपने उद्देश्य से भटक जाता है।
- "समृद्धि और प्रभाव को आगे बढ़ाना " उन मुख्य आकांक्षाओं में से एक है जो भारत के लिये अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी के लिये मुख्य बिंदु हो सकती हैं।
भूगोल और राजनीति की भूमिका:
- भारत के भूगोल से जुड़े दो प्रमुख राजनैतिक बिंदु हैं- 1) भारत-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक और सुरक्षा हित। 2) महाद्वीपीय भू-भाग के उत्तर और पश्चिम में सामरिक महत्त्व।
- भारत-प्रशांत अवधारणा ने दक्षिण-पूर्व एशिया, पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में पूर्व की ओर केंद्रित द्विपक्षीय और बहुपक्षीय नीतियों को प्रेरित किया है।
- समुद्री क्षेत्र में चीन से चुनौती, वर्ष 2000 से ही भारत-अमेरिका की द्विपक्षीय साझेदारी का एक रणनीतिक आधार है, जिससे निपटने के लिये ये दोनों ही देश विभिन्न मुद्दों पर रणनीतिक रूप से एक-दूसरे के साथ रहे हैं।
अमेरिका-भारत साझेदारी से जुड़ी समस्याएँ:
- तात्कालिक अवधि में,यदि भारत के महाद्वीपीय पड़ोस में देखा जाए तो भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों का अभिसरण बहुत मुश्किल रहा है।
- अफगानिस्तान और मध्य एशिया के साथ सम्बंध और सहयोग, ईरान और रूस के साथ सहयोग तथा क्षेत्र में रूस-चीन के बीच जुड़ाव की वजह से भारत-अमेरिका रिश्ता बहुत मज़बूत नहीं बन पा रहा है।
- रूस-चीन की करीबी साझेदारी की वजह से भारत को अपने पड़ोस में रूस से रिश्तों के प्रति ज़्यादा सचेत रहना चाहिये और महाद्वीपीय स्तर पर रूस के साथ अपने सम्बंधों पर ध्यान देना चाहिये।
- यदि भारत रूस के सम्बंध मज़बूत होते हैं तो निश्चित रूप से रूस और चीन के बीच घनिष्टता कम होगी जो कि रणनीतिक रूप से भारत के लिये अच्छी बात होगी।
- अमेरिका और चीन के मध्य बढ़ते संघर्ष के बीच में रूस के साथ रणनीतिक रूप से भागीदार होना न सिर्फ महाद्वीपीय रूप से बल्कि वैश्विक स्तर पर भी भारत के लिये शक्ति संतुलन का काम करेगा।
- अमेरिका को भारत के साथ अपने सम्बंधों को एक संयुक्त उद्यम के रूप में देखना चाहिये, दृष्टिकोणों के अंतर की वजह से सम्बंध खराब करना अमेरिका के लिये घाटे का सौदा होगा।
निष्कर्ष
भारत को गुटनिरपेक्षता का विकल्प ढूँढना चाहिये जो अमेरिका के साथ भारत के सम्बंधों को प्रभावित ना करे और भारत को "रणनीतिक स्वायत्तता" की अनुमति दे।