(प्रारम्भिक परीक्षा: संविधान व राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा: प्रश्नपत्र-2: भारतीय संविधान- महत्त्वपूर्ण प्रावधान, बुनियादी संरचना, राज्य विधायिका: संरचना, कार्य, कार्य संचालन, शक्तियाँ व विशेषाधिकार)
चर्चा में क्यों?
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के वर्तमान कार्यकाल से एक संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है।
पृष्ठभूमि
पिछले वर्ष नवम्बर में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने शपथ ली थी, उस समय वे विधानमंडल के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। ऐसी स्थिति में शपथ-ग्रहण के 6 माह के भीतर किसी-न-किसी सदन का सदस्य होना अनिवार्य है। इसकी अवधि मई के अंतिम सप्ताह में समाप्त हो रही है।
क्या है मुद्दा?
उल्लेखनीय है कि श्री उद्धव ठाकरे ने संविधान के अनुच्छेद 164(4) के तहत महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। इस अनुच्छेद के अनुसार, कोई मंत्री जो निरंतर 6 माह की किसी अवधि तक राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा।
- इस प्रकार, मुख्यमंत्री सहित सभी मंत्रियों को पदभार ग्रहण करने के कम-से-कम 6 माह के भीतर किसी सदन का सदस्य होना अनिवार्य है। हालाँकि निर्वाचन आयोग ने पहले ही कोविड-19 के कारण राज्यसभा चुनाव तथा उपचुनावों सहित निकाय चुनाव स्थगित कर दिये हैं।
उपलब्ध विकल्प-
- संविधान के अनुच्छेद 171(5) के अधीन राज्यपाल साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और समाज सेवा से सम्बंधित किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को विधान परिषद के लिये नामित कर सकता है।
- यदि राज्यपाल किसी व्यक्ति को विधान परिषद के लिये नामित करता है तो उसके निर्णय को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। महाराष्ट्र विधान परिषद में राज्यपाल द्वारा 2 सदस्य नामित किये जाने हैं।
- जनप्रतिनिधित्व अधिनियम,1951 की धारा 151(a) के माध्यम से निर्वाचन आयोग संसद के दोनों सदनों और राज्य के विधायी सदनों में रिक्त सीटों को रिक्त होने की तिथि से 6 माह के भीतर उपचुनाव द्वारा भरने के लिये अधिकृत है, बशर्ते रिक्ति से जुड़े किसी सदस्य का शेष कार्यकाल 1 वर्ष अथवा उससे अधिक हो।
- दूसरे शब्दों में, संसद या विधान मंडल की खाली सीटों के लिये चुनाव नहीं कराया जाता है, यदि उस रिक्त सीट के लिये कार्यकाल 1 वर्ष से कम अवधि के लिये शेष हो।
- दो सदस्यों द्वारा इस्तीफा देने के कारण उत्पन्न हुई रिक्तियों का कार्यकाल जून में समाप्त हो रहा है, अत: शेष अवधि 1 वर्ष से कम है। परंतु ये रिक्तियाँ राज्यपाल द्वारा नामित किये जाने वाले कोटे से सम्बंधित हैं।
- यह तर्क दिया जा रहा है कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 151(a) किसी व्यक्ति को विधान परिषद में नामित करने के लिये राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों पर रोक लगाती है। परंतु यह नियम निर्वाचन से सम्बंधित है, न कि किसी को सदन में नामित करने से।
- ध्यातव्य है कि गैर-निर्वाचित मंत्रियों को नामित किये जाने की परम्परा सामान्य नहीं है, परंतु यह असंवैधानिक भी नहीं है। वर्ष 1952 में सी. राजगोपालाचारी को राज्यपाल श्री प्रकाश द्वारा मद्रास का मुख्यमंत्री नामित किया गया था।
- पिछले महीने ही राष्ट्रपति द्वारा पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिये नामित किया गया था, भले ही उनके निर्धारित योग्यताओं को पूरा करने में संदेह था।
- इनके अतिरिक्त, तकनीकी रूप से भी उद्धव ठाकरे द्वारा इस्तीफा देने के बाद पुनः उनको मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
इससे सम्बंधित न्यायालयों के निर्णय व आदेश
- बिना किसी सदन का सदस्य रहते हुए मंत्री बनने, इस्तीफा देने और पुनः नियुक्ति सम्बंधी एक मामला पंजाब में देखा जा चुका है। पंजाब में तेज प्रकाश सिंह को वर्ष 1995 में मंत्री नियुक्त किया गया था। 6 माह के बाद बिना निर्वाचित हुए उन्हें पुनः मंत्री नियुक्त कर दिया गया था।
- वर्ष 2001 में उच्चतम न्यायालय द्वारा एस.आर. चौधरी बनाम पंजाब राज्य व अन्य के मामले में इस्तीफे और पुन: नियुक्त को अनुचित, अलोकतांत्रिक, अमान्य तथा असंवैधानिक कहा गया है।
- हरशरण वर्मा बनाम चंद्रभान गुप्ता व अन्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वर्ष 1961 में कहा कि राजनीति को भी समाज सेवा के रूप में माना जा सकता है।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ के ऐतिहासिक महत्त्व के मामले में यह कहा गया था कि कोई मंत्रिमंडल बहुमत में है या नहीं, इसका निर्धारण सदन के भीतर किया जाना चाहिये।
राज्यपाल का विवेकाधिकार
- कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 'विमान चंद्र बोस बनाम डॉ. एच.सी. मुखर्जी मामले' में वर्ष 1952 में यह तर्क निरस्त कर दिया था कि विधायिका के लिये नामित 9 सदस्यों में से किसी ने भी आवश्यक मानदंडों को पूरा नहीं किया है।
- साथ में, यह भी माना कि राज्यपाल विधान परिषद में सदस्यों को नामित करने में अपने विवेक का उपयोग नहीं कर सकते हैं। उन्हें मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के अनुसार कार्य करना होगा।
- संविधान का अनुच्छेद 163(1) स्पष्ट करता है कि राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिये एक मंत्रिपरिषद होगी। मंत्रिपरिषद की अनुशंसा के आधार पर ही राज्यपाल को कार्य करना होगा। इस अनुच्छेद के अनुसार, संविधान द्वारा आवश्यक कुछ कृत्यों को छोड़कर राज्यपाल अपने विवेक का प्रयोग नहीं कर सकता है।
कुछ प्रमुख प्रावधान
- अनुच्छेद 163(1) और अनुच्छेद 74(1) के बीच अंतर यह है कि अनुच्छेद 163(1) में इस बात का उल्लेख है कि संविधान के अधीन कुछ कृत्य राज्यपाल अपने विवेकानुसार करेगा। अनुच्छेद 74 राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिये मंत्रिपरिषद से सम्बंधित है, जिसकी सलाह पर राष्ट्रपति अपने कृत्यों का निर्वहन करेगा।
- संविधान का अनुच्छेद 169 राज्यों में विधान परिषद के सृजन या समाप्ति से सम्बंधित है। इसके अनुसार, संसद को विधान परिषद को स्थापित करने या समाप्त करने की शक्ति प्राप्त है। इसके लिये राज्य विधानसभा द्वारा इस आशय का संकल्प विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों की संख्या के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित किया जाना आवश्यक है।