भारत के मौसम विभाग (IMD) के अनुसार, ला-नीना के कारण दक्षिणी प्रायद्वीपीय क्षेत्र में वर्षा की मात्रा में कमी आई है। ला-नीना की स्थिति में दक्षिण-पश्चिम मानसून के द्वारा होने वाली वर्षा पर सकारात्मक, जबकि पूर्वोत्तर मानसून से होने वाली वर्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
ला-नीना के कारण चक्रवात तंत्र तथा निम्न दबाव क्षेत्र की स्थिति अपनी सामान्य स्थिति के उत्तर में बनी रहती है। जिसके कारण पूर्वोत्तर मानसून पश्चिम की ओर बढ़ने की बजाए उत्तरी क्षेत्र में ही पुनरावृत्ति करता रहता है, इसलिये तमिलनाडु जैसे दक्षिणी क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा में कमी आती है।
गौरतलब है की भारत में वर्षा मुख्यतया दो मौसमों के दौरान होती है। देश में वार्षिक वर्षा का लगभग 75% हिस्सा जून और सितम्बर के मध्य दक्षिण-पश्चिम मानसून से प्राप्त होता है, जबकि पूर्वोत्तर मानसून, जिसे शीतकालीन मानसून भी कहा जाता है, दक्षिणी प्रायद्वीप तक ही सीमित रहता है। इसके द्वारा अक्तूबर से दिसम्बर माह के बीच तुलनात्मक रूप से कम वर्षा होती है।
मध्य अक्तूबर तक दक्षिण-पश्चिम मानसून के निवर्तन के बाद वायु तेजी से दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा की ओर बहने लगती है। तमिलनाडु अपनी वार्षिक वर्षा का 48% इन महीनों के दौरान ही प्राप्त करता है। पूर्वोत्तर मानसूनी वर्षा लगभग पूरे दक्षिण भारत के लिये महत्त्वपूर्ण है और यह राज्य में कृषि गतिविधियों और जलाशय प्रबंधन के लिये महत्त्वपूर्ण है। पूर्वोत्तर मानसून के द्वारा अक्तूबर से दिसम्बर के मध्य कुछ दक्षिण एशियाई देशों, जैसे- मालदीव, श्रीलंका और म्यांमार में भी वर्षा होती है।
ला-नीना का प्रभाव
ला-नीना के कारण पूर्वी प्रशांत महासागर का तापमान सामान्य से 3 से 5 डिग्री सेल्सियस तक कम हो जाता है तथा समुद्र से ठंडी पवनें चलती हैं जिसके कारण वैश्विक तापमान में कमी आती है। जबकि एल-नीनो के कारण समुद्र का तापमान 2 से 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है तथा गर्म पवनें चलती हैं। ला-नीना का प्रभाव एल-नीनो के विपरीत होता है इसलिए इसे प्रति एल-नीनो भी कहा जाता है।
ध्यातव्य है कि ला-नीना तथा एल-नीनो मध्य व पूर्वी प्रशांत महासागर में घटने वाली घटनाएँ हैं, जो बड़े पैमाने पर मौसम और जलवायु को प्रभावित करती हैं। भारत में ला-नीनो के कारण अत्यधिक वर्षा होती है, जबकि एल-नीनो के कारण यहाँ सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ता है ।