(मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र- 1 एवं सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : भारत एवं इसके पड़ोसीसम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
पृष्ठभूमि
स्वतंत्रता के बाद भारत ने एक ज़िम्मेदार देश के रूप में परम्परागत रूप से ‘युद्ध और शांति’ के लिये महाद्वीपीय दृष्टिकोण और रणनीति पर अधिक ध्यान दिया है। हालाँकि, वर्तमान में भारत की महाद्वीपीय रणनीति एक अस्तित्त्वगत संकट का सामना कर रही है।
महाद्वीपीय रणनीति की स्थिति
- भारत की महाद्वीपीय रणनीतियों की वर्तमान स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है।चीन न तो मौजूदा सीमा गतिरोध को समाप्त करने का इच्छुक लगता है और न ही भारत के साथ मार्च 2020 जैसी यथास्थिति बहाल करने पर विचार कर रहा है।
- पूर्वोत्तर में भारत-चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति अब अतीत की बात है। इस समय चीन ने अक्साई-चिन पर भारत के दावों कोकमज़ोर करने का प्रयास किया है और अब भारत, चीन के प्रादेशिक क्षेत्रीय दावों तथा उसके धीमे परंतु आक्रामक क्रियान्वयन का प्रतिवाद करने में ही लगा है।
- उत्तर-पश्चिम में पाकिस्तान सीमा पर भी गतिरोध में वृद्धि हो रही है। वर्ष 2019 में भारत द्वारा जम्मू और कश्मीर की स्थिति में बदलाव तथा पाकिस्तान द्वारा सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर को शामिल करते हुए कुछ महीने पूर्व जारी राजनीतिक मानचित्र से कश्मीर पर भारत-पाकिस्तान विवाद उग्र हो गया है।
- पाकिस्तान व चीन के बीच भू-राजनीतिक गठजोड़ भारत को रोकने एवं उस पर दबाव बनाने की रणनीति है, जो दोनों पक्षों के लिये समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि, यह गठजोड़ कोई नई घटना नहीं है परंतु वर्तमान में भारत के खिलाफ चीन-पाकिस्तान की रणनीति की तीव्रता अभूतपूर्व है।
अफगानिस्तान में बदलाव
- अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव में कमीआएगी।
- साथ ही अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी, जिसके साथ भारत का सम्पर्क बहुत सीमित है, भारत के विरुद्ध भू-राजनीति का रूख मोड़ सकता है, जो 1990 के दशक की शुरुआती स्थिति के समान है।
- हालाँकि, 1990 के दशक के विपरीत अफगानिस्तान में स्थितियाँ काफ़ी कुछ बदल गईं है और अब तालिबानबहिष्कृत या अछूत नहीं रहा है, अर्थात वार्ताओं आदि में वह एक महत्त्वपूर्ण पक्षकार बन गया है।
- साथ ही नाटो की वापसी के साथ पाकिस्तान, चीन और रूस के भू-राजनीतिक हित मोटे तौर पर इस क्षेत्र में व्यापक रूप से एकाग्र होंगे। अफगानिस्तान में भू-राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन और ईरान-भारत सम्बंधों में कुछ ठहराव भारत के‘मिशन सेंट्रल एशिया को और अधिक प्रभावित करेगा।
रणनीति में बदलाव की आवश्यकता
- भारत को दुविधा की स्थिति से निकलने के तरीकों की तलाश करनी चाहिये। ऐसा करने के लिये भारत को पहले तुलनात्मक रूप से आसान हिस्से,पाकिस्तान के मोर्चे पर निपटने की आवश्यकता होगी, जिससे पाकिस्तान के मोर्चे से दबाव को कम किया जा सकता है।
- पाकिस्तान के मोर्चे पर निपटने के लिये नियंत्रण रेखा पर सामान्य स्थिति बनाने हेतु सैन्य अभियान महानिदेशक (DGMO) हॉटलाइन जैसे मौजूदा तंत्रों को सक्रिय करनाभी एक तरीका हो सकता है।
- अब यह स्पष्ट हो गया है कि भारत द्वारा स्वतंत्रता के बाद महाद्वीपीय क्षेत्र पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित किया गया परंतु सुरक्षित सीमाओं,पड़ोसियों के साथ मज़बूत सम्बंध या स्थाई निरोध के संदर्भ में अभी तक कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम नहीं प्राप्त हो सका है।
- ऐसी स्थिति में भारत को अपने विस्तृत सामरिक दृष्टिकोण (Grand StrategicApproach) में बदलाव की आवश्यकता है, जिसके लिये भारत को अपने विशिष्ट फोकस को अधिकांशत: महाद्वीपीय क्षेत्र से समुद्री क्षेत्र की ओर स्थानांतरित करना चाहिये।
समुद्री रणनीति
- भारत ने अप्रैल 2019 में हिंद-प्रशांत क्षेत्र से सम्बंधित मुद्दों के लिये विदेश मंत्रालय (MEA) में एक नया प्रभाग स्थापित करने के साथ इस दिशा में स्पष्ट रूप से सोचना शुरू कर दिया है।
- इस दिशा में वैचारिक और व्यवहारिक दोनों ही स्तरों पर उभरती हुई वास्तविकताओं के साथ तालमेल रखने और नए अवसरों का उपयोग करने के लिये तेज़ी से कार्य करने की आवश्यकता है।
- समुद्री क्षेत्रीय रणनीति में भारत के लिये नए गठबंधनों का निर्माण करने, नियमों को स्थापित करनेऔर रणनीतिक अन्वेषण के अन्य रूपों को प्रारम्भ करने के लिये समुद्री क्षेत्र खुला हुआ है।
- भारत,‘हिंद-प्रशांत भू-राजनीतिक’ कल्पना के केंद्र में स्थित है क्योंकि हिंद महासागर का समुद्री क्षेत्र अफ्रीका के तट तकफैला हुआ है।
- पाकिस्तान और चीन के साथ भारत की स्थलीय सीमाओं में यूरो-अमेरिकी रुचि लगभग न के बराबर है और महाद्वीपीय व सीमाई विवाद में कोई देश भारत के लिये ज़्यादा सहायता नहीं कर सकता है।
- समुद्री क्षेत्र में स्थिति इसके ठीक विपरीत है। महान शक्तियाँ समुद्री क्षेत्र में अधिक रुचि रखती हैं और हिंद-प्रशांत अवधारणा के बाद इसमें काफी वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिये फ्रांस की तरह जर्मनी ने भी हाल ही में अपने हिंद-प्रशांत दिशा निर्देश ज़ारी किये हैं।
- दक्षिण चीन सागर में चीन का आक्रामक व्यवहार इस क्षेत्र में यूरो-अमेरिकी शक्तियों और ऑस्ट्रेलिया व जापान सहित क्षेत्र के अन्य देशों में चीनी एक पक्षवाद के विरुद्ध इच्छाशक्ति का एक बड़ा कारण है।
लाभ
- महाद्वीपीय क्षेत्र के विपरीत समुद्री क्षेत्र में बड़ी शक्तियों की बढ़ती रुचि, विशेष रूप से हिंद-प्रशांत में, का लाभ भारत व्यापक रूप से उठा सकता है।
- हिमालय में रणनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य प्रयासों की तुलना में समुद्री क्षेत्र चीन के लिये बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बड़े पैमाने पर चीनी व्यापार समुद्री मार्गों से होता है और समुद्री चोक पॉइंट्स के आसपास की जटिल भू-राजनीति सम्भावित रूप से इस व्यापार को बाधित कर सकती है।
- निश्चित रूप से यह रणनीति भारत को हिमालयी क्षेत्र में चीन के दबाव को कम करने के लिये अधिक विकल्प मुहैया कराएगी।
आगे की राह
- विदेश मंत्रालय द्वारा‘हिंद-प्रशांत विभाग’एक अच्छी शुरुआत है और इसी सम्बंध मेंवर्ष 2019 में भारत, जापान,अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच ‘क्वाड’ बैठकों को मंत्री स्तर तक ले जाने का निर्णय लिया गया है। इसको और मज़बूत करने की आवश्यकता है।
- भारत को वर्तमान और भविष्य की समुद्रिक चुनौतियों पर ध्यान देना, सैन्य तथा गैर-सैन्य उपकरणों को मज़बूत करना,रणनीतिक साझेदारों को शामिल करना और हिंद-प्रशांत पर एक व्यापक दृष्टिकोण दस्तावेज़ प्रकाशित करना चाहिये।
- इसके अलावा, भारत को हिंद-प्रशांत मामलों के लिये एक विशेष दूत नियुक्त करने पर भी विचार करना चाहिये।
निष्कर्ष
महाद्वीपीय रणनीति शायद भारत के उत्तर-पूर्वी और उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में भू-राजनीतिक बढ़त में रुकावट है।निश्चित रूप सेभारत को इस स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता खोजने की ज़रूरत है।समाधान का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा अपनी महाद्वीपीय दुविधाओं से रचनात्मक रूप से निपटना है।इस गठजोड़ के पीछे की मंशा और विस्तार आने वाले समय में हिमालय में उच्चस्तरीय रणनीतिक व सामरिक दावके भविष्य का निर्धारण करेगी यह भारत को अपने प्रभाव को बढ़ाने और क्षेत्र में चीनी महत्त्वाकांक्षाओं को रोकने की सम्भावना का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है।