- एक साथ चुनाव का अर्थ है कि लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक ही समय पर कराए जाएं।
- वर्तमान में,भारत में लोकसभा और विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं।
- इससे बार-बार आचार संहिता लागू होती है और प्रशासनिक व आर्थिक बोझ बढ़ता है।
पृष्ठभूमि:
- वर्ष 1952 से 1967 तक भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे।
- वर्ष 1967 के बाद कुछ राज्यों की सरकारें कार्यकाल पूरा होने से पहले गिर गईं, जिससे चुनाव चक्र असमान हो गया।
- वर्ष 1980 के दशक में यह प्रवृत्ति और बढ़ी, और लोकसभा-राज्य विधानसभा चुनावों का अंतराल बढ़ता चला गया।
- अब केंद्र सरकार बार-बार चुनावों के कारण होने वाले व्यय और नीतिगत रुकावटों को कम करने के लिए "एक साथ चुनाव" की संभावना तलाश रही है।

एक साथ चुनाव के संभावित लाभ:
- व्यय में कमी:
- बार-बार होने वाले चुनावों पर खर्च कम होगा।
- गवर्नेंस में सुधार:
- बार-बार आचार संहिता लागू होने से विकास कार्यों पर रोक लगती है, जो रोकी जा सकेगी।
- प्रशासनिक सहूलियत:
- चुनावी प्रक्रिया के लिए प्रशासनिक मशीनरी बार-बार तैनात करने की आवश्यकता नहीं होगी।
- जनता को सहूलियत:
- बार-बार चुनावों से जनता को मतदान में शामिल होने के लिए बार-बार समय निकालना पड़ता है।
- राजनीतिक स्थिरता:
- लगातार चुनावी माहौल से बचाव होगा और सरकारें अपने कार्यकाल पर ध्यान दे पाएंगी।
एक साथ चुनाव से जुड़ी चुनौतियाँ:
- संविधान संशोधन की आवश्यकता: संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 आदि में बदलाव करने होंगे।
- संविधान के संघीय ढांचे पर प्रभाव: राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है।
- अस्थिर सरकारों की स्थिति: अगर किसी राज्य की सरकार गिर जाती है तो पूरे देश में फिर से चुनाव कराना संभव नहीं होगा।
- वोटिंग पैटर्न पर प्रभाव: लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने से क्षेत्रीय दलों को नुकसान हो सकता है।
एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश करने वाली रिपोर्ट्स / आयोग
- भारत के विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट, 1999
- संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिए आयोग, 2002
- संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट, 2015
- 2017 में नीति आयोग का वर्किंग पेपर
वर्तमान स्थिति:
- केंद्र सरकार ने "एक साथ चुनाव" पर अध्ययन के लिए समिति का गठन किया है।
- विधि आयोग ने 2018 में इसे लागू करने की सिफारिश की थी।
परिसीमन आयोग (Delimitation Commission)
- परिभाषा:
- यह लोक सभा और विधान सभाओं के लिए प्रत्येक राज्य में सीटों की संख्या एवं प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों की भौगोलिक सीमाएं तय करने की प्रक्रिया है।
- जिम्मेदारी:
- परिसीमन कार्य की जिम्मेदारी एक उच्च-अधिकार प्राप्त संस्था परिसीमन आयोग (Delimitation Commission) को सौंपी जाती है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 82: परिसीमन का कार्य संसद द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार किया जाता है।
- भारत में गठन: अब तक चार बार परिसीमन आयोग गठित हुए हैं-
- 1952, 1963, 1973 और 2002।
- सांविधिक निकाय: परिसीमन आयोग एक सांविधिक निकाय है, जो कानूनी रूप से स्थापित संस्था होती है।
- निर्णयों की अंतिमता:
- परिसीमन आयोग के निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होते हैं।
- इन निर्णयों को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
- आदेश और संशोधन:
- परिसीमन आयोग के आदेशों की प्रतियां संबंधित लोक सभा और राज्य विधान सभा के समक्ष रखी जाती हैं।
- हालांकि, इनमें किसी भी प्रकार के संशोधन की अनुमति नहीं होती।
परिसीमन आयोग की संरचना:
- अध्यक्ष के रूप में सुप्रीम कोर्ट के सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश
- मुख्य निर्वाचन आयुक्त (CEC) या CEC द्वारा मनोनीत कोई चुनाव आयुक्त
- संबंधित राज्य का राज्य निर्वाचन आयुक्त
साइलेंस पीरियड (Silence Period)
साइलेंस पीरियड (Silence Period) – चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध
परिभाषा:
- साइलेंस पीरियड वह अवधि होती है, जब मतदान से पहले चुनाव प्रचार पूरी तरह प्रतिबंधित होता है।
- इसका उद्देश्य मतदाताओं को बिना किसी दबाव के स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का समय देना है।
समय सीमा:
- मतदान के 48 घंटे पहले शुरू होकर मतदान समाप्त होने तक प्रभावी रहता है।
कानूनी आधार:
- लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में "साइलेंस पीरियड" शब्द का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन इससे संबंधित कई प्रावधान मौजूद हैं।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत मुख्य प्रतिबंध:
- धारा 126 (1):
- टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, सोशल मीडिया या अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों द्वारा चुनाव प्रचार पूर्णतः प्रतिबंधित।
- किसी भी प्रकार के मनोरंजन कार्यक्रम (जैसे संगीत, नाटक, कॉमेडी शो आदि) के जरिए चुनाव प्रचार निषिद्ध।
- धारा 126A:
- एग्जिट पोल आयोजित करने और उसके परिणाम प्रकाशित करने या प्रसारित करने पर प्रतिबंध।
- धारा 126 (1) (b):
- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ओपिनियन पोल (जनमत सर्वेक्षण) को प्रदर्शित करने पर रोक।
- उद्देश्य:
- मतदाताओं को बिना किसी बाहरी प्रभाव के सोचने और सही निर्णय लेने का अवसर प्रदान करना।
- चुनाव प्रक्रिया को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाए रखना।
- उल्लंघन की स्थिति में दंड:
- उल्लंघन करने पर चुनाव आयोग कानूनी कार्रवाई कर सकता है, जिसमें जुर्माना या अन्य दंडात्मक प्रावधान शामिल हो सकते हैं।
- साइलेंस पीरियड चुनावी निष्पक्षता बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है।
दल-बदल रोधी कानून (Anti-Defection Law)
दल-बदल रोधी कानून: लोकतंत्र की रक्षा का उपाय
परिचय
- दल-बदल रोधी कानून का उद्देश्य विधायिका में स्थिरता बनाए रखना है।
- जनप्रतिनिधियों को अनैतिक दल-बदल करने से रोकना है।
- यह कानून उन विधायकों या सांसदों को अयोग्य ठहराने का प्रावधान करता है, जो अपने राजनीतिक दल की टिकट पर निर्वाचित होने के बाद स्वेच्छा से अपनी पार्टी छोड़ देते हैं या पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करते हैं।
प्रारंभ और संवैधानिक प्रावधान
- 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से इस कानून को संविधान की 10वीं अनुसूची में शामिल किया गया।
- यह कानून लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं और विधान परिषदों में दल-बदल को रोकने के लिए लागू किया गया।
अयोग्यता के आधार
- निम्नलिखित स्थितियों में किसी सांसद या विधायक की सदस्यता समाप्त हो सकती है:
- स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोड़ना -
- यदि कोई निर्वाचित सदस्य अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, तो उसे अयोग्य ठहराया जा सकता है।
- दल के निर्देशों का उल्लंघन -
- यदि कोई सदस्य सदन में अपनी पार्टी के व्हिप के विरुद्ध मतदान करता है या मतदान से अनुपस्थित रहता है और पार्टी उसे 15 दिनों के भीतर क्षमा नहीं करती, तो वह अयोग्य हो सकता है।
- निर्दलीय सदस्य का किसी दल में शामिल होना -
- यदि कोई निर्दलीय उम्मीदवार निर्वाचित होने के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है, तो उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
- मनोनीत सदस्य का दल में शामिल होना –
- यदि कोई मनोनीत सदस्य, सीट ग्रहण करने की तारीख से 6 महीने की अवधि समाप्त होने के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है, तो उसकी सदस्यता समाप्त हो सकती है।
अयोग्यता पर निर्णय लेने की प्रक्रिया
- दल-बदल से जुड़ी अयोग्यता के मामलों का निर्णय संबंधित सदन के पीठासीन अधिकारी (लोकसभा अध्यक्ष/विधानसभा अध्यक्ष या राज्यसभा/विधान परिषद के सभापति) द्वारा लिया जाता है।
- उनके फैसले को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
- हालाँकि, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि अध्यक्षों को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए।
दल-बदल कानून के अपवाद
- कुछ विशेष परिस्थितियों में यह कानून लागू नहीं होता:
- दल का विलय -
- यदि किसी राजनीतिक दल के कम से कम दो-तिहाई विधायक किसी अन्य दल में विलय के पक्ष में होते हैं, तो यह दल-बदल नहीं माना जाएगा।
- लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति –
- यदि कोई व्यक्ति लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति के रूप में चुना जाता है, तो वह अपने दल से इस्तीफा दे सकता है और बाद में फिर से उस दल में शामिल हो सकता है।
समस्याएँ और सुधार की संभावनाएँ:
- निर्णय लेने में देरी -
- वर्तमान में, पीठासीन अधिकारियों के लिए दल-बदल विरोधी मामलों पर निर्णय लेने की कोई समय-सीमा तय नहीं है, जिससे अनिश्चितता बनी रहती है।
- न्यायिक समीक्षा का अभाव-
- पीठासीन अधिकारी के निर्णय को सीधे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, जिससे कभी-कभी पक्षपात की संभावना रहती है।
- विधायकों की खरीद-फरोख्त का खतरा-
- कई बार इस कानून का दुरुपयोग कर राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न की जाती है।
- सुधार की आवश्यकता:
- दल-बदल मामलों पर शीघ्र निर्णय लेने के लिए समय-सीमा निर्धारित की जानी चाहिए।
- सुप्रीम कोर्ट को अंतिम अपील का अधिकार मिलना चाहिए।
- निर्दलीय और मनोनीत सदस्यों के लिए अलग नियम बनाए जाने चाहिए।
दसवीं अनुसूची के संबंध में महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
- किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिलु, 1992:
- सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि दल-बदल विरोधी कानून के तहत अध्यक्ष का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
- कीशम मेघचंद्र सिंह वाद, 2020:
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता संबंधी याचिकाओं पर अध्यक्ष द्वारा तीन महीने के भीतर निर्णय लिया जाना चाहिए।