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जल का अधिकतम उपयोग

(प्रारंभिक परीक्षा- पर्यावरणीय पारिस्थितिकी)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 व 3 : मुख्य प्राकृतिक संसाधनों का वितरण, सिंचाई के विभिन्न प्रकार एवं सिंचाई प्रणाली)

संदर्भ

22 मार्च को विश्व जल दिवस के अवसर पर जल के अधिकतम एवं गुणवत्तापूर्ण उपयोग को सुनिश्चित करने के लिये प्रधानमंत्री ने सरकार के एक प्रमुख कार्यक्रम ‘कैच द रेन’ अभियान की शुरुआत की है। इस अभियान को एक निश्चित दिशा और विस्तार प्रदान करने के लिये इसे ‘मनरेगा’ से जोड़ने का भी प्रस्ताव किया।

अभियान के पीछे के प्रमुख कारक

  • वर्ष 2019 की केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत को लगभग 3,880 बिलियन क्यूबिक मीटर (बी.सी.एम.) औसत वार्षिक वर्षा प्राप्त होती है, जिसमें से केवल 18% का उपयोग हो पाता है। शेष जल वाष्पीकरण या अन्य कारणों से बर्बाद हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार, भारत में जल की माँग वर्ष 2025 तक 843 बी.सी.एम. और वर्ष 2050 तक 1180 बी.सी.एम. रहने की संभावना है।
  • संयुक्त राष्ट्र का सतत विकास लक्ष्य-6 ‘सभी के लिये स्वच्छ जल और स्वच्छता’ से संबंधित है। इसको वर्ष 2030 तक प्राप्त करना है, जिसमें भारत पिछड़ रहा है। वर्ष 2019 तक भारत इस लक्ष्य का केवल 6% ही प्राप्त कर सका है।
  • नीति आयोग के समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (2019) के अनुसार, भारत के 75% घरों में उनके परिसर में पीने के स्वच्छ पानी तक पहुँच नहीं है। साथ ही, भारत जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों की सूची में 120 वें स्थान पर है।

जल से जुड़े कुछ प्रमुख मुद्दे

  • भारत में तीन-चौथाई से भी अधिक अर्थात लगभग 78% ताजे जल का उपयोग कृषि क्षेत्र में ही हो जाता है। चूँकि भारत का संक्रमण विकासशील से विकसित देश में हो रहा है, अतः स्वभाविक रूप से यहाँ पेयजल, उद्योग व अन्य उपयोगों में पानी की हिस्सेदारी बढ़ने की संभावना है। अतः ‘प्रति बूँद, अधिक फसल’ जैसी प्रक्रियाओं को अपनाना आवश्यक हो गया है।
  • इसके अतिरिक्त, वर्तमान प्रतिमानों में बदलाव करते हुए भूमि की उत्पादकता (टन प्रति हेक्टेयर) के साथ ही सिंचाई से उत्पादकता (किलोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर) को भी बढ़ाने की आवश्यकता है।
  • सिंचाई क्षेत्र में अनेक प्रयासों और परियोजनाओं के बावजूद देश का केवल आधा हिस्सा ही सिंचित है, जिसमें भू-जल का योगदान लगभग 64%, नहरों का 23% व अन्य स्रोतों का 11% है।
  • भू-जल के दोहन से देश के कुछ भाग, विशेषकर उत्तर-पश्चिम भाग (हरित क्रांति वाले क्षेत्र), उच्चतम जल जोखिम वाले हॉट-स्पॉट बनते जा रहे हैं। नाबार्ड के अनुसार, देश में दो फसलों, यथा- चावल और गन्ना में ही लगभग 60% पानी का उपयोग हो जाता है।
  • तमिलनाडु और हरियाणा में धान की फसल के लिये तथा महाराष्ट्र, कर्नाटक और आँध्र प्रदेश में गन्ने की फसल के लिये ‘ड्रिप सिंचाई’ को पायलट परियोजना के तौर पर चलाया गया है, जिसके बेहतर परिणाम प्राप्त हुए हैं। पारंपरिक सिंचाई में जहाँ 1 किलोग्राम धान के लिये लगभग 3,065 लीटर जल लगता था, वहीं ‘ड्रिप सिंचाई’ में यह घटकर सिर्फ 842 लीटर रह जाता है। कर्नाटक में गन्ने के मामले में ड्रिप सिंचाई का लाभ लागत अनुपात 2.64 है।
  • उल्लेखनीय है कि पंजाब सरकार ने विश्व बैंक के साथ मिलकर ‘पानी बचाओ, पैसे कमाओ’ की एक पहल पायलट परियोजना के तौर पर शुरू की है। इसमें किसानों के पंपों में मीटर लगाये जाते हैं और यदि वे तुलनात्मक रूप से पानी या बिजली की बचत करते हैं तो उनको भुगतान किया जाता है।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों और परिस्थितियों के अलोक में यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में जल, बिजली (और यहाँ तक की उर्वरक) की अत्यधिक रियायती मूल्य नीति के स्थान पर प्रत्यक्ष आय समर्थन, नई प्रोद्यौगिकी और नवाचार से संबंधित नीति को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है ताकि सतत कृषि के लिये जल और बिजली की उसके आर्थिक मूल्य के सापेक्ष उपलब्धता सुनिश्चित हो सके।

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