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दल-बदल: बढ़ते मामले व इससे जुड़े कानून

(प्रारम्भिक परीक्षा: भारतीय राज्यतन्त्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली, पंचायती राज, लोकनीति, अधिकार सम्बंधी मुद्दे इत्यादि; मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: विषय-भारतीय संविधान- ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना, संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय)

आज के दौर में भारत में राजनीतिक पार्टियों में जोड़-तोड़ लगातार बढ़ता जा रहा है। पूर्व में मणिपुर व अभी हाल में राजस्थान में इस तरह की खबरें आयीं थीं जहाँ पार्टियों में जोड़-तोड़ की ख़बरें लगातार राष्ट्रीय पटल पर आईं थीं।1970 के दशक मेंइस प्रकार के जोड़-तोड़ की शुरुआत हुई थी, जिस पर अंतिम रूप से कानून वर्ष 1985 में बनाया गया। भारतीय संविधान में 52वें संशोधन द्वारा ‘दलबदल विरोधी’ कानून इसी वर्ष 1985 मेंपारित किया गया। साथ ही इस संशोधन के द्वारा दसवीं अनुसूची को भी संविधान में जोड़ा गया।

हाल के मामले:

1. राजस्थान में उपमुख्यमंत्री सहित कॉंग्रेस के कुछ बागी विधायक 'कॉंग्रेस विधायक दल' (Congress Legislature Party- CLP) की बैठकों में बार-बार निमंत्रण देने के बावज़ूद शामिल नहीं हो रहे थे, जिसके बाद सचेतक/व्हिप के द्वारा विधानसभा अध्यक्ष ने इन सभी विधायकों को अयोग्यता सम्बंधी नोटिस जारी की थी।

2. मणिपुर में इससे जुड़ा एक विशेष मामला सामने आया था, जबसत्तारूढ़ पार्टी के एक मंत्री बाद में दूसरी पार्टी में शामिल हो गए थे तथा विधानसभा अध्यक्ष के पास दलबदल कानून के तहत इन्हें अयोग्य ठहराए जाने की याचिकाएँ वर्ष 2017 से ही लम्बित पड़ी थीं, जिस पर वो कोई निर्णय नहीं ले रहे थे। इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अंतरिम आदेश द्वारा मणिपुर सरकार के मंत्री को मंत्रिमंडल से हटा दिया था।

दल-बदल कानून : एक परिचय-

  • 52 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा भारतीय संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गई और इसी सूची में दल-बदल कानून को भी अन्तःस्थापित किया गया। इस कानून के माध्यम से यह प्रावधान किया गया कि दल बदल के सम्बंध में किसी सदस्य की योग्यता का निर्धारण सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा किया जाएगा और इस बारे में उसका निर्णय अंतिम होगा। यह कानून संसद तथा राज्य विधानमंडल, दोनों निकायों पर लागू होता है।
  • वर्ष 1985 में पारित किये गए इस कानून में यह व्यवस्था की गई थी कि यदि किसी दल के एक तिहाई या उससे अधिक सदस्य अपना दल छोड़कर एक साथ दूसरे दल में जाते हैं तो वे अयोग्य नहीं माने जाएंगे। लेकिन 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा एक तिहाई की पूर्व संख्या को दो तिहाई कर दिया गया अर्थात यदि कसी दल के दो तिहाई से ज़्यादा सदस्य दूसरी पार्टी में शामिल होते हैं तो उन्हें अयोग्य नहीं माना जाएगा।

कानून के तहत अयोग्यता:

इस कानून के तहत निम्न परिस्थितियों में किसी सदस्य की योग्यता समाप्त हो सकती है-

  • यदि कोई सदस्य स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ता है।
  • यदि कोई सदस्य अपने राजनीतिक दल के दिशा-निर्देशों के विपरीत वोटिंग करता है और उसके दल के द्वारा 15 दिनों के भीतर उसे माफ़ी नहीं दी जाती है तो ऐसी स्थति में उसे अयोग्य माना जाएगा।
  • अगर चुनाव के बाद कोई निर्दलीय उम्मीदवार किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • यदि कोई मनोनीत सदस्य अपने मनोनयन के 6 माह बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण करता है तो उसकी सदस्यता चली जाएगी।

कानून के तहत अपवाद:

  • दल-बदल कानून के तहत कुछ ऐसी परिस्थितियों का भी ज़िक्र किया गया है, जिनके तहत दल बदलने के बावजूद भी सदस्यों की सदस्यता पर कोई संकट नहीं आता –
  • यदि किसी दल के कम से कम दो तिहाई सदस्य एक साथ दल बदलने का निर्णय ले लें।
  • यदि पीठासीन अधिकारी (राज्यसभा के मामले में उपसभापति, सभापति नहीं) पार्टी द्वारा दिशा निर्देश जारी करने के बावजूद ‘वोटिंग के मामले में’ निर्दलीय व्यवहार करें तो भी उसकी सदस्यता पर कोई आँच नहीं आ सकती।
  • इसके अलावा यदि कोई मनोनीत सदस्य अपने मनोनयन के 6 महीने के अंदर किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो उसकी सदस्यता बरकरार रहेगी।

सदन के अध्यक्ष के अधिकार:

  • दल-बदल कानून के सभी अधिकार सदन के अध्यक्ष या सभापति को दिये गए हैं।
  • वर्ष 1985 में पारित मूल कानून में अध्यक्ष के द्वारा लिये गए किस भी निर्णय को न्यायिक समीक्षा की परिधि से बाहर रखा गया था और न्यायलय के पास किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप का अधिकार नहीं था।
  • लेकिन वर्ष 1992 के कोहितो होलोहान बनाम जचिल्हू मामले में उच्चतम न्यायलय ने इस प्रावधान को खारिज करते हुए एक नई व्यवस्था दी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पीठासीन अधिकारी द्वारा सदस्यों की योग्यता के सम्बंध में किया गया निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा।
  • हालाँकि न्यायालय ने यह भी कहा था कि जब तक पीठासीन अधिकारी इस पर निर्णय नहीं दे देता तब तक न्यायालय इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। हालाँकि मणीपुर के मामले में यह अवधि बहुत ज़्यादा हो जाने के कारण अंततः उच्चतम न्यायलय को हस्तक्षेप करना पड़ा तथा अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करना पड़ा।

मणिपुर के विशेष मामले के संदर्भ में:

  • संविधान के अनुच्छेद 142 के अनुसार अपने समक्ष लम्बित मामलों के निस्तारण के लिये उच्चतम न्यायालय निर्णय दे सकता है तथा जब तक इन मामलों पर कोई कानून नहीं बन जाता है तब तक न्यायालय का निर्णय ही सर्वोच्च होगा। उच्चतम न्ययालय को सम्पूर्ण भारत संघ के लिये ऐसे निर्णय लेने की शक्ति है।
  • संविधान के अनुच्छेद 164 (1) (ख) के अनुसार ‘किसी राज्य के विधानमंडल के किसी भी सदन (विधानसभा या विधानपरिषद) का कोई भी सदस्य, चाहे वह किसी भी पार्टी से सम्बद्ध हो, यदि उसे दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराया गया है तो वह अयोग्य घोषित होने की तिथि से ही मंत्रिपद धारण करने के लिये भी अयोग्य होगा’।
  • अनुच्छेद 191 (2) के अनुसार ‘कोई व्यक्ति, जिसे दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया गया है तो वह राज्य के विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य बनने के लिये भी अयोग्य होगा।
  • हालाँकि संविधान के अनुच्छेद 212 में न्यायालयों द्वारा विधानमंडल की कार्यवाही की जाँच ना करने की बात भी कही गई है, जिसके अनुसार राज्य विधानमंडल की किसी भी कार्यवाही पर अनियमितता या उसकी विधिक मान्यता के आधार पर सवाल नहीं किया जायेगा।

आगे की राह:

  • जैसा कि कुछ दिन पहले सुर्ख़ियों में था इस तरह के मामलों से निपटने के लिये एक स्वतंत्र ट्रिब्यूनल बनाया जाना चाहिये।
  • दल-बदल के सम्बंध में सदन के अध्यक्ष की शक्तियों की व्यापक समीक्षा की जानी चाहिये।
  • सत्ता का उचित विभाजन विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच होना चाहिये तथा सदस्यों के इस्तीफे के बाद भी योग्यता कीस्थिति जारी रहनी चाहिये।
  • इस कानून के प्रावधानों में कुछ विसंगतियाँ भी हैं। उदाहरण के लिये यदि कोई सदस्य अपनी ही पार्टी के किसी फैसले की सार्वजनिक आलोचना करता है या पार्टी द्वारा व्हिप के विरुद्ध कार्य करता है तो पार्टी द्वारा यह मान लिया जाता है कि सम्बंधित सदस्य 10वीं अनुसूची के तहत स्वेच्छा से दल छोड़ना चाहता है। अर्थात यह प्रावधान पार्टियों को किसी स्थिति की मन मुताबिक व्याख्या करने की सुविधा प्रदान करता है। अतः राजनीतिक दलों को इस मनोवृत्ति से बाहर आना चाहिये।

(स्रोत- ई.पी.डब्ल्यू.)

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