संदर्भ
कुछ राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्रों में, संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत भेदभाव के लिए एक विशिष्ट आधार के रूप में विकलांगता को शामिल करने की बात कही गई है।
विकलांगता अधिकारों को मान्यता की वर्तमान स्थिति
- विकलांगता व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (यूएनसीआरपीडी) : इसे 13 दिसंबर, 2006 को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाया गया।
- इसमें विकलांग व्यक्तियों को ऐसे व्यक्तियों के रूप में परिभाषित किया गया है "जो दीर्घकालिक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी दुर्बलताएं के कारण समाज में दूसरों के साथ समान आधार पर अपनी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी में बाधा का सामना करते हैं"।
- भारत ने अक्टूबर 2007 में कन्वेंशन की पुष्टि की।
- विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016 : इसमें विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (यूएनसीआरपीडी) के तहत आने वाले विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को शामिल किया गया है।
- इस अधिनियम के माध्यम से विकलांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 को प्रतिस्थापित किया गया था।
- अधिनियम की धारा 3 में प्रावधान है कि किसी भी विकलांग व्यक्ति के साथ विकलांगता के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
- विकलांगता अधिकारों के लिए अनुच्छेद 15 में संशोधन की मांग
- मूल अधिकार के रूप में मान्यता : वर्तमान में, अनुच्छेद 15 में भेदभाव के आधार के रूप में विकलांगता का उल्लेख नहीं है।
- इसमें संशोधन करने से विकलांगता अधिकारों को मौलिक अधिकार के स्तर तक बढ़ाया जा सकता है और भेदभाव के खिलाफ मजबूत कानूनी सुरक्षा प्रदान की जा सकती है।
- अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप : यह संशोधन भारत के संविधान को विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के अनुरूप लाएगा, जिसे भारत ने 2007 में अनुमोदित किया था।
- यह विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिए घरेलू कानून को वैश्विक प्रतिबद्धताओं के साथ संरेखित करता है।
- विधिक खामियों को दूर करना : 2016 के विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम की धारा 3 में प्रावधान है कि किसी भी विकलांग व्यक्ति के साथ विकलांगता के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
- यह अधिनियम 'वैध उद्देश्य' (Legitimate Aim) समझे जाने वाले मामलों में अपवाद की अनुमति देता है, जिससे विकलांगता अधिकारों के उल्लंघन को बल मिलता है।
- संविधान में विकलांगता अधिकारों को शामिल करके, ऐसे अपवादों के संभावित दुरुपयोग को कम किया जा सकता है।
- समानता को बढ़ावा : अनुच्छेद 15 के तहत संविधान में विकलांगता को मान्यता देने से ऐतिहासिक अन्याय दूर होंगे और विकलांग व्यक्तियों के सामने आने वाली अनूठी चुनौतियों को मान्यता मिलेगी, जिससे समाज में सच्ची समानता और एकीकरण को बढ़ावा मिलेगा।
- न्यायिक और राजनीतिक जिम्मेदारी : विकलांगता अधिकारों को संविधान में शामिल करने से इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी न्यायपालिका से विधायिका में स्थानांतरित होती है। यह अधिक सक्रिय शासन को बढ़ावा देता है और सुरक्षा की व्याख्या करने के लिए न्यायालय पर निर्भरता कम होती है।
न्यायिक उदाहरण और सीमाएँ
- नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ : 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 15 के तहत उल्लिखित अन्य आधारों के 'सदृश्य' के रूप में मान्यता देते हुए 'यौन अभिविन्यास' के लिए अनुच्छेद 15 के संरक्षण को बढ़ा दिया था।
- इस निर्णय ने इस संभावना को खोल दिया कि न्यायपालिका विकलांगता को भी ‘सदृश्यता’ के आधार पर विभेद का एक आधार मानकर समान सुरक्षा प्रदान कर सकती है।
- हालाँकि, सदृश्य आधार दृष्टिकोण संवैधानिक मुकदमेबाजी की प्रक्रिया के माध्यम से इसे मान्यता देने के लिए मुकदमा करने वाले पर बोझ डालता है और विकलांग व्यक्तियों द्वारा सामना किए जाने वाले प्रणालीगत हाशिए पर ध्यान नहीं देता है।
आगे की राह
- भारत में विकलांगता अधिकार समूह कई प्रभावी तरीकों की वकालत करते हैं:
- फरवरी 2024 में, ‘विकलांग व्यक्तियों के रोजगार संवर्धन के लिए राष्ट्रीय केंद्र’ और ‘राष्ट्रीय विकलांगता नेटवर्क’ जैसे संगठनों ने एक विकलांगता-केंद्रित घोषणापत्र जारी किया, जिसमें राजनीतिक दलों से विकलांगता के मुद्दों को प्राथमिकता देने का आग्रह किया गया।
- इन समूहों ने संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत भेदभाव के आधार के रूप में विकलांगता को शामिल करने पर लगातार जोर दिया है।
- इसके अलावा, यह विकलांगता अधिकार आंदोलन की दीर्घकालिक मांगों को संबोधित करने की दिशा में राजनीतिक दृष्टिकोण में संभावित बदलाव का संकेत देता है।