(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का पृथक्करण, विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान)
संदर्भ
संभल की जामा मस्जिद को लेकर विवाद जारी है। संभल की जामा मस्जिद एक ‘संरक्षित स्मारक’ है, जिसे 22 दिसंबर, 1920 को प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम, 1904 के तहत अधिसूचित किया गया था।
इसे राष्ट्रीय महत्व का स्मारक भी घोषित किया गया है और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट पर केंद्रीय संरक्षित स्मारकों की सूची में इसका नाम शामिल है। इस संदर्भ में उपासना स्थल अधिनियम, 1991 चर्चा में है।
उपासना स्थल अधिनियम, 1991 के बारे में
उपासना स्थल अधिनियम, 1991 के अनुसार किसी भी उपासना स्थल का धार्मिक चरित्र (स्वरुप) वैसा ही बना रहना चाहिए, जैसा वह 15 अगस्त, 1947 को था।
यह केंद्रीय कानून 18 सितंबर, 1991 को पारित किया गया था। इसका उद्देश्य पूजा स्थल के कथित ऐतिहासिक ‘रूपांतरण’ से उत्पन्न सभी विवादों को समाप्त करना है।
उपासना स्थल अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
इस अधिनियम की धारा 3 किसी भी धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल को पूर्णतः या आंशिक रूप से किसी अन्य धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल में परिवर्तित करने पर रोक लगाती है या यहां तक कि उसी धार्मिक संप्रदाय के किसी अन्य भाग के पूजा स्थल में भी परिवर्तित करने पर रोक लगाती है।
धारा 4(1) के अनुसार 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान किसी उपासना स्थल का धार्मिक स्वरुप वैसा ही बना रहेगा, जैसा कि वह 15 अगस्त, 1947 को था।
धारा 4(2) में कहा गया है कि 15 अगस्त, 1947 को मौजूद किसी भी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरुप के परिवर्तन के संबंध में किसी भी न्यायालय, अधिकरण या किसी अन्य प्राधिकारी के समक्ष लंबित कोई भी मुकदमा या कानूनी कार्यवाही समाप्त हो जाएगी और कोई नया मुकदमा या कानूनी कार्यवाही शुरू नहीं की जाएगी।
यदि 15 अगस्त, 1947 के बाद तथा इस अधिनियम के लागू होने से पहले किसी उपासना स्थल का धार्मिक स्वरुप बदला गया है और उससे संबंधित कोई वाद या अपील किसी न्यायालय में लंबित है, तो उसका निर्णय धारा 4(1) के अनुसार होगा।
धारा 5 के अनुसार इस अधिनियम की कोई धारा राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मामले से संबंधित किसी भी मुकदमे, अपील या कार्यवाही पर लागू नहीं होगी।
धारा 6 के अनुसार इस अधिनियम के प्रावधानों का उल्लघंन करने पर अधिकतम 3 वर्ष तक की सजा का प्रावधान है।
यह अधिनियम निम्नलिखित मामलों में लागू नहीं होता है
यह अधिनियम ऐसे किसी पुरातात्त्विक स्थल पर लागू नहीं होता है, जो प्राचीन स्मारक व पुरातत्त्व स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 द्वारा संरक्षित है।
यदि कोई वाद इस अधिनयम के लागू होने से पहले ही अंतिम रूप से निपटाया जा चुका है, तो ये अधिनियम उस वाद पर भी लागू नहीं होता है।
यदि कोई विवाद जिसे इस अधिनियम के लागू होने से पहले ही दोनों पक्षों द्वारा आपसी सहमति से सुलझाया जा चुका हो, तो उस पर भी यह अधिनियम लागू नहीं होता है।
संबंधित कानूनी मुद्दे
यद्यपि यह अधिनियम बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद के आलोक में लाया गया था, किंतु इसे विशेष रूप से इसके दायरे से बाहर रखा गया था क्योंकि इस कानून के पारित होने के समय यह विवाद पहले से ही न्यायालय में विचाराधीन था।
मई 2022 में न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा था कि यद्यपि वर्ष 1991 के कानून के तहत धार्मिक स्थल की प्रकृति को बदलने पर रोक है किंतु प्रक्रियात्मक साधन के रूप में किसी स्थान के धार्मिक चरित्र का पता लगाना वस्तुतः इस अधिनियम की धारा 3 एवं 4 के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं हो सकता है।
इसका अर्थ यह है कि 15 अगस्त, 1947 को पूजा स्थल की प्रकृति की जांच की अनुमति दी जा सकती है, भले ही बाद में उस प्रकृति को बदला न जा सके।
मथुरा एवं ज्ञानवापी दोनों मामलों में मस्जिद पक्ष ने उपासना स्थल अधिनियम की इस व्याख्या को चुनौती दी है।
सर्वोच्च न्यायालय को अभी इस प्रारंभिक मुद्दे पर अंतिम बहस सुननी है कि क्या 1991 का अधिनियम ऐसी याचिका दायर करने पर भी रोक लगाता है या फिर केवल उपासना या पूजा की प्रकृति में अंतिम बदलाव करता है।
इसी प्रकार, वर्तमान में संभल मस्जिद विवाद भी न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है।