(मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: गवर्नेंस; लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका)
संदर्भ
- हाल ही में महाराष्ट्र सरकार द्वारा मुंबई पुलिस आयुक्त को उसके पद से हटाए जाने के उपरांतपुलिस प्रमुखों की नियुक्ति तथा पद से हटाने की प्रक्रिया पुनः चर्चा का विषय बना हुआ है। इस प्रक्रिया के माध्यम से सरकारें राज्य पुलिस पर नियंत्रण स्थापित कर तय करती हैं की पुलिस प्रमुख कौन होगा?
- ध्यातव्य है कि चयन हेतु उपयुक्त उम्मीदवारों की योग्यता आकलन करने हेतुकिसी पारदर्शी तथा स्वतंत्र प्रणाली की बजाय एक अपारदर्शी प्रक्रिया के द्वारा इनका चयन सरकारों द्वारा ‘बंद दरवाजों के भीतर’ किया जाता है।
सुधारों की आवश्यकता
- राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1979) ने वर्षों पूर्व पुलिस सुधार से संबंधित कई दिशा-निर्देश जारी किये थे, किंतु इनमे से किसी को प्रभावी तौर पर क्रियान्वित नहीं किया गया है।
- वर्ष 1996 में उच्चतम न्यायालय में दायर याचिका मेंपुलिस द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग करने एवंपक्षपातपूर्ण तरीके से अपने कर्तव्यों का निर्वहनकरनेसंबंधी आरोप लगाए गए थे।
- प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ, 2006 मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा केंद्र एवं राज्यों की पुलिस सुधार संबंधी दिशा-निर्देश तय किया गया।
प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, रिबेरो समिति (1998) या सोराबजी समिति (2006) द्वारा संस्तुत किसी मॉडल पर राज्य सुरक्षा आयोग (एस.एस.सी.) का गठन किया जाए।
- राज्य के पुलिस महानिदेशक का चयन संघ लोक सेवा आयोग (यू.पी.एस.सी.) द्वारा उक्त रैंक में पदोन्नति के लिये पैनल में शामिल किये गए विभाग के तीन वरिष्ठतम अधिकारियों में से किया जाए । साथ ही, चयन के पश्चात् उनका कार्यकाल न्यूनतम ‘दो वर्ष’ के लिये निर्धारित किया जाए, चाहे उनकी अधिवर्षिता की तिथि कुछ भी हो।
- प्रचालन-संबंधी कर्तव्यों पर तैनात पुलिस अधिकारियों के लिये दो वर्षों का कार्यकाल निर्धारित हो।
- दस लाख या इससे अधिक जनसंख्या वाले नगरों/शहरी क्षेत्रों से आरंभ करते हुए अन्वेषण कार्यों को कानून एवं व्यवस्था से पृथक किया जाए तथा क्रमिक रूप से इसे छोटे नगरों/शहरी क्षेत्रों तक बढाया जाए।
- साथ ही, पुलिस उपाधीक्षक रैंक या इससे ऊपर के अधिकारियों के स्थानांतरण, तैनाती, पदोन्नति तथा सेवा संबंधी सभी मामलों पर निर्णय लेने के लिये राज्य-स्तर पर एक पुलिस स्थापना बोर्ड का गठनकिया जाए।
- पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध शिकायतों को संबोधित करने के लिये राज्य एवं ज़िला-स्तर पर पुलिस शिकायत प्राधिकरणों का गठन किया जाए।
- केंद्र-स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग का गठन किया जाए।यह न्यूनतम दो वर्ष के लिये केंद्रीय पुलिस संगठनों के प्रमुखोंके चयन व पदस्थापन के लिये उचित नियुक्ति प्राधिकारी के समक्ष रखे जाने हेतु एक पैनल तैयार करेगा।
उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों की वस्तुस्थिति
- 26 राज्यों व संघ राज्य-क्षेत्रों ने एस.एस.सी को स्थापित तो किया है लेकिन इससे संबंधित प्रावधान उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों के समतुल्य नहीं हैं। कुछ राज्यों ने इसमें विपक्ष के नेता को शामिल नहीं किया है तो कुछ राज्यों द्वारा न ही स्वतंत्र सदस्यों को शामिल किया जाता है और न ही स्वतंत्र चयन प्रक्रिया का अनुपालन किया जाता है।
- संक्षेप में कहा जाए तो इन आयोगों पर राजनीतिक कार्यपालिका का प्रभुत्व बना हुआ है। इसके अतिरिक्त, 23 राज्यों की सरकारें पुलिस प्रमुख का चयन अपने ‘विवेकानुसार’ करती हैं। असम, कर्नाटक, झारखंड तथा मेघालय एकमात्र ऐसे राज्य हैं, जहाँ एस.एस.सी को उम्मीदवारों को ‘शॉर्टलिस्ट’ करने की सीमित ज़िम्मेदारी दी गई है।
- अन्वेषण को कानून व्यस्था से पृथक करना आपराधिक जाँच में भ्रष्टाचार को समाप्त करने में सहायक हो सकता है। हालाँकि, यह प्रक्रिया अभी भी ठंडे बस्ते में है।
पुलिस शिकायत प्राधिकरण
- सामान्य धारणा के अंतर्गत आशंका व्यक्त की जाती है कि पुलिस की आपराधिकता के विरुद्ध पुलिस या गृह विभाग कार्रवाई नहीं करेगा। इसीलिये उच्चतम न्यायालय ने राज्य-स्तर पर एक पुलिस शिकायत प्राधिकरण (पी.सी.ए.) के गठन का सुझाव दिया था।
- उक्त प्राधिकरण का अध्यक्ष उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश होगा, जिसका चयन राज्य उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता एक पैनल द्वारा किया जाएगा।
- इसी प्रकार की एक संरचना ज़िला-स्तर पर होनी चाहिये। इसके अतिरिक्त, लोकायुक्त, राज्य मानवाधिकार आयोग तथा राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा इस प्राधिकरण को सहायता प्रदान किया जाएगा।
- दिशा-निर्देशों में यह कहा गया था कि उक्त प्राधिकरण के निर्णय राज्य सरकार पर ‘बाध्यकारी’ होंगे।
- हालाँकि, उच्चतम न्यायालय में दाख़िल शपथपत्र से ज्ञात होता है कि किसी एक राज्य या संघ राज्य क्षेत्र ने पी.सी.ए. के प्रावधानों को क्रियान्वित नहीं किया है। राज्यों ने न तो किसी पैनल का गठन किया है और न ही इस उद्देश्य से किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को अध्यक्ष नियुक्त किया है।
- राज्यों ने पुलिस के विरुद्ध शिकायतों से ध्यान हटाने के उद्देश्य से पी.सी.ए. का नाम ही परिवर्तित कर दिया है, जैसे त्रिपुरा और मिज़ोरम ने इसका नाम ‘पुलिस जवाबदेही आयोग’ कर दिया है।
पारदर्शिता की आवश्यकता
- पुलिस सुधारों के लिये आवश्यक है कि पुलिस प्रमुखों को नियुक्ति या स्थानान्तरण के लिये एक स्वतंत्र एवं पारदर्शी चयन तथा निर्णय-निर्माण प्रक्रिया हो।
- न्यायालय के दिशा-निर्देश तथा मॉडल पुलिस अधिनियम के अनुसार नियुक्तियों के लिये आवश्यक है कि यू.पी.एस.सी./ एस.एस.सी. ऐसे अभ्यर्थियों को शॉर्टलिस्ट करे, जिनका विगत 10 वर्ष की अवधि से अधिक के दौरान सेवावधि, सेवा रिकॉर्ड, अनुभव सीमा तथा प्रदर्शन मूल्यांकन किया गया हो।
- हालाँकि, इन शर्तों की व्याख्या या इन्हें क्रियान्वित करने के लिये किसी प्रकार के दिशा-निर्देशों को जारी नहीं किया गया। इसी प्रकार पद से हटाने संबंधी किसी जाँच प्रक्रिया को भी निर्धारित नहीं किया गया है।
- राष्ट्रीय पुलिस आयोग की संस्तुतियों के अनुसार पुलिस प्रमुख को उसके पद से हटाने से पूर्व एस.एस.सी. की मंज़ूरी आवश्यक थी। हालाँकि, प्रकाश सिंह वाद् में ‘मंज़ूरी’ को हटा कर ‘परामर्श’ करना आवश्यक कर दिया गया था।
- हालाँकि राज्य सरकारें उक्त सुझाव के अनुपालन में भी विफल रही हैं। टी.पी.सेनकुमार बनाम भारत संघ वाद्, 2017 में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि “पुलिस प्रमुख के पद से हटाने के लिये सरकार की प्रथम दृष्टया संतुष्टि पर्याप्त नहीं है”।
निष्कर्ष
राजनीति से प्रेरित नियुक्ति या निष्कासन, दोनों पर निर्णय लेने के लिये एक स्पष्ट व विशिष्ट मानक निर्धारित किया जाना चाहिये। प्रशासनिक निर्णयों में निष्पक्षता तथा पुलिस की तटस्थता को सुनिश्चित करने के लिये सुधारों की तत्काल आवश्यकता है। इस क्षेत्र से संबंधित सुधारों में देरी से पुलिस का मनोबल गिरेगा तथा विधि के शासन की स्थापना में बाधा उत्पन्न होगी।