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ग्लेशियरों से जुड़े सम्भावित खतरे और रक्षोपाय

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन, आपदा और आपदा प्रबंधन)

संदर्भ

हाल ही में, उत्तराखंड के चमोली ज़िले में ग्लेशियर (हिमनद) टूटने से भारी तबाही हुई। इस घटना के बाद से ग्लेशियरों की निगरानी और उन पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के सम्भावित प्रभावों से जुड़े प्रश्न भी उठ रहे हैं।

क्या होते हैं ग्लेशियर?

  • ग्लेशियर (Glacier) या हिमनद विशाल आकार के बर्फीले पहाड़ों को कहते हैं। ये संपीडित बर्फ (compressed snow) की परतों से बने होते हैं तथा (1) गुरुत्वाकर्षण और (2) चट्टानों के सापेक्ष बर्फ की कोमलता के कारण ये फिसलते हैं या आगे बढ़ते हैं।
  • जैसे-जैसे ग्लेशियर के ऊपरी हिस्से पर बर्फ का भार बढ़ता जाता है, उसके निचले हिस्से पर दबाव बढ़ने लगता है। ग्लेशियर पिघलने की एक बड़ी वजह ग्लोबल वार्मिंग और वनावरण में कमी को माना जाता है।
  • जब भी किसी ग्‍लेशियर का कोई हिस्‍सा टूटकर उससे अलग होता है, तो इसे तकनीकी रूप से काल्विंग (Glacier Calving) कहते हैं।
  • ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर लगभग हर महाद्वीप पर ग्लेशियर पाए जाते हैं, जिनमें से कुछ सैकड़ों हज़ारों वर्ष पुराने हैं।
  • विदित है कि हिमनदों का एक बड़ा समूह हिमालय में भी अवस्थित है। हाल ही में उत्तराखंड में आई आपदा का मुख्य कारण हिमालय के पश्चिमी भाग में अवस्थित ग्लेशियर का टूटना था
  • ग्लेशियर अपने उद्गम स्थानों से सैकड़ों किलोमीटर तक फैले हो सकते हैं तथा बर्फ के संचय या पिघलने के आधार पर इनकी लम्बाई कम या ज़्यादा हो सकती है।
  • ग्लेशियरों के पीछे हटने के बाद बनने वाली प्रोग्लेसियल झीलें (Proglacial lakes) अक्सर तलछट और बोल्डर जैसी संरचनाओं से बंधी होती हैं।
  • विश्व में लगभग 200000 ग्लेशियर हैं। इनमें 1000 को छोड़ दें तो बाकी ग्लेशियरों का आकार बहुत छोटा है। ग्लेशियरों को धरती पर मीठे पानी के भंडार के रूप में जाना जाता है।
  • जीवाश्म ईंधनों का अत्यधिक प्रयोग, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, ओजोन परत में छेद आदि ऐसे अनेक कारण हैं, जिनकी वजह से ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं।
  • आई.पी.सी.सी. के अनुसार इस सदी के अंत तक हिमालय के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ को खो सकते हैं तथा यदि प्रदूषण इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो यूरोप के 80% ग्लेशियर भी वर्ष 2100 तक पिघल जाएंगे।

क्यों टूटते हैं ग्लेशियर?

  • भूकंपीय गतिविधि और पानी में अत्यधिक दबाव का निर्माण ग्लेशियरों के टूटने या फटने का कारण हो सकता है लेकिन जलवायु परिवर्तन को भी इसका प्रमुख कारण माना जा रहा है।
  • ध्यातव्य है कि उच्च तापमान तथा कम बर्फबारी की स्थिति में बर्फ अक्सर तेज़ी से पिघलते हैं, जिससे पानी खतरनाक स्तर तक बढ़ सकता है।
  • ‘वुड्स होल ओशनोग्राफिक इंस्टीट्यूट’ के अनुसार "विश्व के अधिकतर पर्वतीय ग्लेशियर जो पूर्व में बड़े अकार के थे, ग्लोबल वार्मिंग के कारण अब तेज़ी से पिघल और सिकुड़ रहे हैं।"
  • ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेशियरों की अस्थिरता और बुनियादी ढाँचे से जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं में लगातार हो रहा निवेश इस बात का संकेत है कि भविष्य में भी ऐसी घटनाएँ अधिक संख्या में घटित होती रहेंगीं तथा ये और भी अधिक विनाशकारी हो सकती हैं यदि इनके जोखिमों को कम करने के लिये आवश्यक उपाय नहीं किये जाते हैं।
  • विगत कुछ वर्षों में हिमालय और एंडीज़ सहित विश्व में कई ग्लेशियरों की सुभेद्यता को कई अध्ययनों द्वारा रेखांकित किया गया है।यद्यपि तकनीक के माध्यम से ऐसी घटनाओं की निगरानी सम्भव है लेकिन अधिकांश ग्लेशियरों की ‘सुदूर अवस्थिति’ इस दिशा में चुनौती प्रस्तुत करती है।
  • ध्यातव्य है कि उत्तराखंड के जिस क्षेत्र में हिमनद फटने की घटना हुई है वह भूस्खलन और फ्लैश फ्लडिंग से ग्रस्त है और पर्यावरणविदों ने भविष्य में इस क्षेत्र में किये जाने वाले किसी भी निर्माण के प्रति आगाह किया है।

कितना गंभीर है ग्लेशियरों का पिघलना?

  • वर्तमान में विश्व की अधिकाँश आबादी साफ पानी के लिये ग्लेशियरों पर ही आश्रित है।
  • हिमालय के ग्लेशियरों से मिलने वाली पानी से लगभग दो अरब लोग लाभान्वित होते हैं।
  • कृषि के लिये पानी भी इन्हीं ग्लेशियरों से मिलता है।
  • यदि ग्लेशियरों से पानी आना बंद हो जाए तो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे।
  • वहीं, यूरोप में भी पीने के पानी का अकाल पड़ जाएगा। सूखे की स्थिति से आम जनजीवन भी खतरे में पड़ सकता है।
  • वर्ष 2019 में ही आईसलैंड के सबसे प्राचीन ग्लेशियरों में से एक ‘ओकजोकुल ग्लेशियर’ (Okjokull glacier) का अस्तित्व ही खत्म हो गया था। इस तबाही की तस्वीरें सोशल मीडिया पर भी खूब वायरल हुईं थी।
  • तब भी वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को इसका ज़िम्मेदार बताया था। हालाँकि, पर्यावरण को प्रभावित करने वाले सबसे बड़े देशों ने इस विषय पर तब भी ध्यान नहीं दिया था।
  • वैज्ञानिकों का यह कहना है कि हमने पर्यावरण को इतना दूषित कर दिया है कि अब स्थिति हमारे नियंत्रण से बाहर निकल चुकी है। हम अगर आज ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को शून्य कर दें तब भी इसे सामान्य करने में कम से कम 200 वर्षों का वक्त लग जाएगा।

ग्लेशियल झीलों का बढ़ना 

  • हिमालय तथा इसके पारिस्थितिकी तंत्र में स्थित हिमनद उपमहाद्वीप में कई नदियों के पानी के स्रोत हैं और सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदी प्रणालियों में पानी की बारहमासी आपूर्ति बनाए रखने के लिये ज़िम्मेदार हैं। लेकिन हिमयुग के बाद से इन ग्लेशियरों के द्रव्यमान और सतह क्षेत्र में काफी कमी आई है।
  • वर्ष 1850 के बाद वैश्विक तापमान बढ़ना शुरू हुआ तथा 20 वीं शताब्दी में ग्रीनहाउस गैस के स्तर के बढ़ने के कारण यह तापमान और अधिक बढ़ने लगा।
  • 1980 के दशक की शुरुआत से यह वृद्धि और भी तेज़ देखी गई।कुछ अध्ययनों के अनुसार वर्ष 2070 तक वैश्विक तापमान में वर्ष 1850 के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है जिस वजह से 45% मध्यम और बड़े ग्लेशियर (10 वर्ग किमी या अधिक) पूरी तरह से गायब हो जाएंगे तथा लगभग 70% छोटे ग्लेशियर पिघल जाएंगें। 
  • हिमनदों के सिकुड़ने से हिमालय क्षेत्र में बड़ी संख्या में हिमनद झीलें (Glacial Lakes) बन गई हैं।
  • अत्यधिक ऊँचाई पर अवस्थित इन झीलों में से कई खतरनाक साबित हो सकती हैं, क्योंकि इनमें किसी भी प्रकार के विक्षोभ की स्थिति ‘फ्लैश फ्लड’ का कारण बन सकती है।
  • पिछले कुछ दशकों में ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के कारण ऐसी झीलों की संख्या में वृद्धि हुई है।वर्ष 2005 में काठमांडू स्थित आई.सी.आई.एमओ.डी. (इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट) के एक अध्ययन में उत्तराखंड की ऐसी 127 झीलों को सूचीबद्ध किया था। 
  • हाल के अध्ययनों को देखा जाय तो राज्य में ऐसी झीलों की संख्या लगभग 400 हो गई है। ग्लेशियोलॉजिस्टों के लिये, यह आश्चर्य की बात नहीं है लेकिन यह चिंता का कारण अवश्य है। 

भारत के लिये समस्याएँ

  • संयुक्त राष्ट्र ने वैश्विक पर्यावरण रिपोर्ट में आगाह किया है कि समुद्रतल में वृद्धि होने से वर्ष 2050 तक भारत के कई शहरों पर खतरा बढ़ सकता है।
  • इसमें भारत के मुंबई और कोलकाता जैसे बड़े शहर भी शामिल हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत के लगभग 4 करोड़ लोग इसके चपेट में आ सकते हैं।
  • इसके अलावा नासा की एक रिपोर्ट के अनुसार कर्नाटक के मंगलोर पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

वैश्विक स्तर पर प्रभाव

  • द ग्लोबल एन्वायरन्मेंट आउटलुक (जी.ई.ओ-6) की रिपोर्ट के अनुसार, इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता, मालदीव, चीन में गुआंगझाऊ और शंघाई, बांग्लादेश में ढाका, म्यांमार में यंगून, थाईलैंड में बैंकाक और वियतनाम में हो ची मिन्ह सिटी तथा हाइ फोंग सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे।
  • ऑस्ट्रेलिया के कुछ शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि वर्ष 1870 से 2004 के बीच समुद्री जल स्तर में 19.5 सेंटीमीटर की वृद्धि हुई थी।
  • जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित उनके रिसर्च में कहा गया था कि वर्ष 1990 से 2100 के बीच समुद्री जल का स्तर 9 सेंटीमीटर से 88 सेंटीमीटर के बीच बढ़ सकता है।

सम्भावित उपाय

(1) निगरानी करना

  • ग्लेशियल झीलों से जुड़े खतरे से निपटने का सबसे पहला कदम है, इन झीलों और ग्लेशियरों की अधिक सक्रिय और नियमित रूप से निगरानी करना।
  • उल्लेखनीय है कि हर ग्लेशियर पर नज़र रखने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि किसी विशेष बेसिन में स्थित ग्लेशियरों के गुणों में बहुत भिन्नता नहीं होती।
  • यदि प्रत्येक बेसिन में आसानी से सुलभ एक या दो बेंचमार्क ग्लेशियरों की पहचान करके उनका विस्तृत अध्ययन किया जाय तो उस बेसिन या राज्य में अवस्थित अन्य ग्लेशियरों के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
  • लेकिन केवल उपग्रहों और रिमोट सेंसिंग पर निर्भर रहना काफी नहीं है।ज़मीनी स्तर पर लोगों और आवश्यक माप उपकरणों का होना भी आवश्यक है। यही कारण है कि इन हिमनदों की सुदूर अवस्थिति को एक महत्त्वपूर्ण कारक माना जाता है।
  • बाथमीट्रिक परिवर्तनों, झीलों के विस्तृत होने के भौतिक कारण, उनके जल स्तर में परिवर्तन, निक्षेप, द्रव्यमान संतुलन और अन्य विशेषताओं को बहुत बारीकी से मापने की आवश्यकता है।
  • इसके लिये बहुत अधिक श्रमशक्ति और धन की आवश्यकता होती है, लेकिन इन संसाधनों पर निवेश करना समय की माँग है।

(2) योजना निर्माण

  • हाल में , उत्तराखंड में आई आपदा का निर्माण संबंधी गतिविधियों से सीधा सम्बन्ध तो नहीं है लेकिन परोक्ष रूप से ये गतिविधियाँ अवश्य ज़िम्मेदार हैं।
  • हिमालय पर्वत श्रेणी, एक नवीन पर्वत श्रेणी है और आपदाओं की दृष्टि से सुभेद्य भी है।चट्टानों के अभिविन्यास में मामूली बदलाव भूस्खलन को ट्रिगर करने के लिये पर्याप्त हो सकता है। 
  • अतः इन क्षेत्रों में बांधों के निर्माण जैसी प्रमुख परियोजनाओं के लिये यदि किसी भी प्रकार का पर्यावरण प्रभाव आकलन किया जा रहा है तो उसमें ग्लेशियरों को शामिल करना अति महत्त्वपूर्ण है बल्कि वैज्ञानिकों का कहना है कि जलग्रहण से जुड़े सभी क्षेत्रों को प्रभावी मूल्यांकन का हिस्सा बनाया जाना चाहिये।
  • परियोजना संचालित कर रहे व्यक्तियों या संस्थाओं को भी इस तरह के अध्ययन में निवेश करने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये क्योंकि उनकी खुद की संपत्ति भी दाँव पर होती है। 

(3) शमन उपाय

  • यदि नियमित रूप से ग्लेशियरों की निगरानी की जाएगी तो उन झीलों की पहचान हो सकेगी, जिन्हें शमन समाधान की आवश्यकता होगी।
  • इससे जुड़े कई संरचनात्मक और भू-तकनीकी उपाय लागू किए जा सकते हैं और ऐसे कई सफल उदाहरण हैं, जहाँ इन झीलों से जुड़े खतरों को कम किया जा सका है।
  • झीलों से पानी के क्रमिक और विनियमित निर्वहन के लिये चैनलों का निर्माण करने से उन पर दबाव कम हो जाएगा और उनमें किसी प्रकार के सम्भावित विक्षोभ की संभावना कम हो जाएगी।इसके अलावा यह ‘फ्लैश फ्लड’ में जाने वाले पानी की अतिरिक्त मात्रा को भी कम कर देता है। 
  • इसके अलावा, झीलों में अलार्म सिस्टम भी स्थापित किये जा सकते हैं, जो किसी भी अतिप्रवाह की स्थिति में चेतावनी दे सकें।
  • आपदा प्रबंधन से जुड़ी तैयारियों पर भी ज़ोर देना चाहिये जैसा सरकार चक्रवात या सुनामी आदि के लिये करती है।
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