(प्रारम्भिक परीक्षा: भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनैतिक प्रणाली, लोकनीति, अधिकार सम्बंधी मुद्दे आदि)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: भारतीय संविधान, ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनयादी संरचना)
चर्चा में क्यों?
हालिया घटनाक्रम के अनुसरण में, असामनता के मुद्दे पर कहा गया है कि भारत में नस्लवाद त्वचा के रंग से परे है। साथ ही, यह भी विचारणीय है कि लोगों या समूहों द्वारा धर्म के आधार पर घर के साथ-साथ अन्य सम्पत्ति को खरीदने पर जो प्रतिबंध लगाए जाते हैं उन्हें भी पूर्वाग्रह (Prejudices) के रूप में देखा जाना चाहिये।
पृष्ठभूमि
भारत एक ऐसा लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जहाँ समानता के अधिकार का संवैधानिक प्रावधान होते हुए भी उससे सम्बंधित कोई व्यापक कानून नहीं है। जब भी भेदभाव का मामला सामने आता है तो भेदभाव करने वाला पक्ष (पार्टी) दावा करता है कि वह ऐसा करने के लिये स्वतंत्र है। यहाँ तक कि कई मामलों में सर्वोच्च न्यायलय ने भी प्रतिबंधात्मक व्याख्या (Restrictive Interpretation) का समर्थन किया है। इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए भारत में एक व्यापक भेदभावपूर्ण विरोधी कानून की आवश्यकता है।
अप्रत्यक्ष और अनायास भेदभाव
आज़ादी के 70 वर्ष बाद भी भारतीय समाज संरचनात्मक भेदभाव से ग्रस्त है। ये पूर्वाग्रह आधारभूत वस्तुओं तक पहुँच से लेकर शिक्षा और रोज़गार तक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है किंतु कई अवसरों पर यह भेदभाव अप्रत्यक्ष और आदतन होता है।
ग्रिग्स बनाम ड्यूक पॉवर कम्पनी मामला (1971)
- अमेरिकी सर्वोच्च न्यायलय ने ग्रिक्स बनाम ड्यूक पॉवर कम्पनी मामले (1971) में भेदभाव के स्वरूप को स्पष्टता से समझाया है। वहाँ की अदालत ने पॉवर कम्पनी को अमेरिका के नागरिक अधिकार अधिनियम,1964 के अंतर्गत निजी कार्यस्थल (Private Workplace) पर नस्लीय भेदभाव को अवैध माना था।
- कम्पनी ने प्रवेश स्तर की नौकरियों हेतु अभ्यर्थियों के लिये एक लिखित परीक्षा का आयोजन किया था, जोकि उपरी तौर पर नस्लीय रूप से तटस्थ (Race- Neutral) थी, किंतु व्यवहार में कम्पनी ने अफ़्रीकी-अमेरिकियों के साथ-साथ भेदभाव किया था।
- इस मामले में न्यायधीश ने कहा था कि रोज़गार या पदोन्नति के लिये केवल परीक्षण या मानदंड अवसर की समानता प्रदान नहीं की जा सकती हैं बल्कि व्यावहारिक स्तर पर भी समानता के मूल्य का पालन करना होगा। इस मामले में कार्यस्थल पर हुए विभिन्न भेदभावों का हवाला दिया गया।
मधु बनाम उत्तर रेलवे मामला
- दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 2018 में मधु बनाम उत्तर रेलवे मामले में ग्रिग्स के फ़ैसले का उल्लेख किया गया था।
- इस मामले में रेलवे द्वारा एक कर्मचारी की पत्नी और बेटी को स्वास्थ्य उपचार देने से मना कर दिया गया था, जोकि नियमों के तहत हकदार थे। इसमें रेलवे का तर्क था कि उस कर्मचारी ने स्वास्थ्य कार्ड (Medical Card) से अपनी पत्नी व बेटी का नाम कटवा दिया था।
- इस मामले में अदालत द्वारा कहा गया कि चिकित्सा सेवाएँ एवं आवश्यक लाभ कर्मचारी द्वारा की गई घोषणा (Declaration) के तहत आते हैं लेकिन ये विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों पर असमान प्रभाव पैदा करते हैं।
- ऐसे मामले में राज्य द्वारा इस प्रकार के भेदभाव, जैसे- आवास, स्कूल तथा रोज़गार हेतु प्रवेश सम्बंधी बाधाएँ, निजी अनुबंधों (Private Contract) के तहत आती हैं।
ज़ोरास्टरियन को-आपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी बनाम ज़िला रजिस्ट्रार सहकारी समितियाँ (शहरी) और अन्य, मामला
- इस मामले में वर्ष 2005 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारसी हाउसिंग सोसाइटी के उप-कानून (Bye-Law) का पक्ष लेते हुए प्रतिबंधात्मक बंधन (Restrictive Bond) का समर्थन किया था। इसमें पारसी हाउसिंग सोसाइटी ने किसी ग़ैर-पारसी के लिये सम्पत्ति हस्तांतरण को प्रतिबंधित कर रखा था। यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15 (2) को नज़रंदाज़ करता है।
- प्रथम दृष्टया अनुच्छेद 15 (2) कुछ हद तक सीमित लग सकता है परंतु इसमें प्रयुक्त ‘दुकानें’ शब्द को व्यापक अर्थों में लिया जाना चाहिये। संविधान सभा ने इरादतन ऐसी किसी भी आर्थिक गतिविधि को प्रतिबंधित करने का प्रयास किया था, जिससे किसी समूह विशेष के बहिष्कार का खतरा हो। उदहारण के लिये, जब कोई व्यक्ति ग्राहक की आस्था के आधार पर अपनी सम्पत्ति को पट्टे (Lease) पर देने से मना करता है तो यह समानता के अधिकार के विरूद्ध होगा।
परिवर्तन के प्रयास
हाल ही के दिनों में भारत में कुछ प्रयास किये गए हैं। सांसद शशि थरूर द्वारा निजी स्तर पर एक विधेयक (तरुनभ खेतान द्वारा तैयार) पेश किया गया, जबकि सेण्टर फॉर लॉ एंड पालिसी रिसर्च द्वारा गत वर्ष समानता से सम्बंधित विधेयक का मसौदा तैयार किया गया था। इन प्रयासों द्वारा यह सुनिश्चित होता है कि राज्य द्वारा प्रदान की गई नागरिक स्वतंत्रताएँ किसी निजी व्यक्ति या संस्था के कृत्यों से उत्पन्न खतरे से लड़ने में सक्षम हैं।
आगे की राह
- अनुच्छेद 15 (2) के तहत किसी भी भारतीय नागरिक को जाति, धर्म, लिंग, जन्म स्थान और वंश के आधार पर दुकानों, होटलों, सार्वजानिक भोजनालयों, सार्वजानिक मनोरंजन स्थलों, कुओं, स्नान घाटों, तालाबों, सड़कों और पब्लिक रिसॉर्ट्स में प्रवेश करने से नहीं रोका जा सकता है। इन सभी प्रावधानों के बावजूद यह अधिकार केवल ऊपरी तौर पर लागू होता है।
- न्याय की कोई भी उचित अवधारणा समाज में गहराई से जकड़ें हुए वर्तमान ढाँचे से परे तथा नए सामाजिक परिवर्तनों को जन्म देने वाली होनी चाहिये। इस सम्बंध में दक्षिण अफ्रीका का अवलोकन किया जाना चाहिये, जहाँ संवैधानिक गारंटी को सर्वव्यापी कानून द्वारा सम्वर्धित किया जाता है|
- भारत को एक ऐसा कानून बनाने के सम्बंध में विचार करना होगा जो भारतीय संस्कृति में व्याप्त भेदभाव की जड़ो को ख़त्म करने के साथ-साथ समाज के जीवन स्तर को बेहतर बनाने में सहायता प्रदान करें, तभी भारत की संवैधानिक प्रतिबद्धताएँ पूरी हो सकेंगी।