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यौन अपराधों से बच्चों की संरक्षण

संदर्भ

हाल हे में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा कि, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम के उद्देश्य को केवल इसलिए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि अपराधी सजा से बचने के लिए अपने नाबालिग पीड़ितों से विवाह कर लेते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी

  • सर्वोच्च न्यायालय पश्चिम बंगाल में 14 वर्षीय लड़की के अपहरण और बलात्कार के मामले की सुनवाई कर रही थी।
    • वर्तमान में वह अपने बच्चे और आरोपी के साथ रह रही है, जिसे ट्रायल कोर्ट ने POCSO अधिनियम के तहत दोषी ठहराया था।
    • दोषसिद्धि के खिलाफ उसकी अपील पर फैसला करते हुए, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पिछले साल अक्टूबर में 20 वर्षीय व्यक्ति को बरी कर दिया था।
  • उच्च न्यायालय ने तब अपने आदेश में किशोरियों को "अपनी यौन इच्छाओं को नियंत्रित करने" की "सलाह" देते हुए कई टिप्पणियाँ की थीं।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए कि न्यायाधीश का काम उपदेश देना नहीं है, इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया था।
  • न्यायालय का मानना है कि यह “स्टॉकहोम सिंड्रोम” (Stockholm syndrome) के समान है और उच्च न्यायालय फैसला इसे बढ़ावा देने के समान है।
    • साथ ही, न्यायालय ने पश्चिम बंगाल सरकार को उसे संस्थागत सुरक्षा और परामर्श प्रदान करने का निर्देश भी दिया है।

स्टॉकहोम सिंड्रोम

स्टॉकहोम सिंड्रोम एक प्रस्तावित स्थिति या सिद्धांत है जिसके अनुसार, एक बंधक कभी-कभी अपने अपहरणकर्ताओं के साथ मनोवैज्ञानिक बंधन विकसित कर लेते हैं। बंधक अपमानजनक रिश्ते को स्वीकार कर लेता है और/या अपने साथ दुर्व्यवहार करने वाले के प्रति सहानुभूति, प्रेम या समर्थन भी दिखा सकता है। इस मनोवैज्ञानिक संबंध के पीछे कई परिस्थितियाँ एक साथ शामिल होकर बंधक को ऐसा करने के लिए मानसिक रूप से ऐसा करने के लिए बाध्य कर देती हैं।

क्या है POCSO अधिनियम

  • यह विशेष रूप से बच्चों के यौन शोषण से निपटने वाला भारत का पहला व्यापक कानून है, जिसे 2012 में लागू किया गया था।
  • इस कानून के संचालन लिए “महिला एवं बाल विकास मंत्रालय” नोडल मंत्रालय के रूप में काम करता है।
  • उद्देश्य: यह अधिनियम 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को यौन उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी अपराधों से संरक्षण प्रदान करता है।
  • ऐसे अपराधों और संबंधित मामलों एवं घटनाओं की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान करता है।

POCSO अधिनियम मुख्य विशेषताएं

  • लिंग-तटस्थ कानून : यह अधिनियम 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को "कोई भी व्यक्ति" के रूप में परिभाषित करता है, इससे बाल यौन शोषण पीड़ित की उपलब्ध कानूनी ढांचे में लिंग-तटस्थ पहचान स्थापित होती है।
  • यह प्रवेशक और गैर-प्रवेशक हमले के साथ-साथ यौन उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी जैसे यौन शोषण के विभिन्न प्रकारों को परिभाषित करता है।
  • यह अधिनियम कुछ परिस्थितियों, जैसे- मानसिक रूप से बीमार बच्चे के साथ या बच्चे के विश्वासपात्र या उस पर अधिकार की स्थिति में किसी व्यक्ति द्वारा किए गए यौन दुर्व्यवहार को गंभीर श्रेणी का यौन उत्पीड़न मानता है।
  • यौन उद्देश्यों के लिए बच्चों की तस्करी : इस अधिनियम में यौन उद्देश्यों के लिए बच्चों की तस्करी को अपराध मन गया है और यदि कोई व्यक्ति ऐसे करता है तो यह यौन अपराध के उकसावे से संबंधित प्रावधानों के तहत दंडनीय हैं।
  • अधिनियम के तहत यौन अपराध करने का प्रयास करने पर अपराध करने के लिए निर्धारित सजा की आधी सजा तक की सजा का प्रावधान किया गया है।
  • कभी भी शिकायत दर्ज की जा सकती है : पीड़ित किसी भी समय अपराध की शिकायत दर्ज करवा सकता है, यहां तक ​​कि दुर्व्यवहार होने के कई साल बाद भी।
  • अधिनियम में ऐसे मामलों में शिकायत दर्ज कराने को भी अनिवार्य बनाया गया है। यौन शोषण का संज्ञान होने पर व्यक्ति का कानूनी कर्तव्य है कि वह इसकी शिकायत कराये। यदि वह ऐसा करने में विफल रहता है, तो छह महीने की कैद या जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।
  • पीड़ितों की सुरक्षा के उपाय: अधिनियम में यौन अपराधों की रिपोर्टिंग, साक्ष्यों की रिकॉर्डिंग, जांच और सुनवाई की प्रक्रिया को बाल-अनुकूल बनाने का प्रयास किया गया है। जैसे:
    • बच्चे का बयान बच्चे के निवास स्थान पर या उसकी पसंद के स्थान पर दर्ज करना, अधिमानतः बिना वर्दी के उप-निरीक्षक या उसके ऊपर के पद वाली एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा।
    • बच्चे की चिकित्सीय जांच बच्चे के माता-पिता या किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति में की जानी चाहिए जिस पर बच्चे को भरोसा हो।
    • किसी भी बच्चे को किसी भी कारण से रात में पुलिस स्टेशन में हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।
    • अधिनियम में विशेष रूप से कहा गया है कि पीड़ित बच्चे की गवाही के समय आरोपी उसे दिखना नहीं चाहिए और सुनवाई बंद कमरे में होनी चाहिए।
    • न्याय प्रक्रिया से पहले, उसके दौरान और बाद में पीड़ित बच्चे की सुरक्षा की जानी चाहिए।
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