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सार्क को नई संजीवनी प्रदान करना

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2,विषय- भारत एवं इसके पड़ोसी- सम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार) 

संदर्भ

  • अपनी स्थापना के छत्तीस साल बाद, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन, दक्षेस (SAARC) अब निर्जीव सा प्रतीत हो रहा है। वर्ष 2020 लगातार छठा वर्ष था जब सभी दक्षेस देशों के नेताओं ने एकसाथ किसी बैठक में भाग नहीं लिया।
  • स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाय जा सकता है कि दक्षेस चार्टर दिवस (8 दिसम्बर) के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री ने पुनः इस बात पर ज़ोर दिया कि भारत का पाकिस्तान के खिलाफ रुख वही रहेगा जो पूर्व में था।
  • ध्यातव्य है कि इसी रुख के चलते भारत ने वर्ष 2016 में इस्लामाबाद में हुए शिखर सम्मलेन में भाग लेने से मना कर दिया था।
  • इससे यह बात स्पष्ट होती है कि निकट भविष्य में इस तरह की किसी भी बैठक या सम्मेलन के विधिपूर्वक होने की संभावना नगण्य है।

आशंका के बादल

  • विगत एक वर्ष में, भारत-पाकिस्तान के मुद्दों ने विभिन्न स्तरों पर दक्षेस की बैठकों को प्रभावित किया है, जिससे न सिर्फ सदस्य देशों बल्कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों को भी सामूहिक रूप से काम करने के बजाय अलग अलग समूहों में कार्य करना पड़ रहा है।
  • हालाँकि, वर्ष 2020 की घटनाओं, विशेष रूप से नॉवेल कोरोनोवायरस महामारी और वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर चीन की आक्रामकता ने नए समीकरणों को जन्म दिया है अतः ऐसा हो सकता है कि दक्षेस या स्थनीय सहयोग के लिये भारत, पकिस्तान के मुद्दे पर अपना रुख थोड़ा नम्र करे।
  • आतंकवाद, भारतीय क्षेत्रों पर पकिस्तान के दावों और व्यापार से जुड़ी दक्षेस की विभिन्न पहलों को रोकने में पकिस्तान की संलिप्तता और भारत की समस्याएँ सर्वविदित हैं।किंतु फिर भी इन सभी समस्याओं के कारण पकिस्तान को किसी भी दक्षेस बैठक की मेजबानी करने से रोकना परोक्ष रूप से पाकिस्तान को वीटो देने के समान है। 
  • भारत का यह पूर्वाग्रह हैरान करने वाला है क्योंकि इस दौरान भारत के प्रधानमंत्री एवं अन्य कैबिनेट मंत्री अपने पाकिस्तानी समकक्षों के साथ शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की विभिन्न बैठकों में शामिल होते रहे हैं , जिनमें नवंबर में SCO प्रमुखों की बैठक भी शामिल है, जिसमें भारत ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को भी आमंत्रित किया था। यद्यपि इमरान खान ने किसी दूसरे अधिकारी को अपने जगह प्रतिनियुक्त कर दिया था।
  • इसके अलावा यह बात भी उभर के सामने आती है कि हाल ही में गलवान वैली में चीन की घुसपैठ, उसका अतिक्रमण और भारतीय सैनिकों की हत्या जैसे कुकृत्यों को पूरे विश्व ने देखा लेकिन इसके बावजूद भारत ने शंघाई सहयोग संगठन , रूस-भारत-चीन त्रिपक्षीय वार्ता, जी -20 बैठक और अन्य वार्ताओं या सम्मेलनों में चीनी नेतृत्व के साथ बैठकों में भाग लेने से इनकार नहीं किया।
  • नेपाल के साथ भारत तुरंत उलझ बैठा जबकि नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने मामले को तुरंत संज्ञान में लेते हुए भारत के क्षेत्रों को नेपाल में शामिल दिखाने वाले मानचित्रों को तत्काल बदल दिया था।
  • जब पूरा विश्व और विभिन्न वैश्विक संगठन अपनी हर बैठक ऑनलाइन कर रहे हैं ऐसे में भारत द्वारा आभासी दक्षेस सम्मलेन की अध्यक्षता पकिस्तान द्वारा किये जाने का विरोध करना, ज़्यादा परिपक्व निर्णय नहीं लगता। 

महामारी जन्य चुनौतियाँ

  • महामारी द्वारा प्रस्तुत की गई नई चुनौतियों का मुकाबला करने के लिये दक्षेस को पुनर्जीवित करना महत्त्वपूर्ण है।
  • अध्ययनों से पता चला है कि महामारी का दक्षिण एशिया पर प्रभाव दुनिया के अन्य क्षेत्रों के सापेक्ष ‘अलग और विशेष’ रहा है और भविष्य में महामारियों का मुकाबला करने के लिये इसपर व्यापक तरीके से अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है।
  • भविष्य में टीकों के विकास और उनके वितरण के लिये यह भी आवश्यक है कि दक्षिण एशिया को एक विशाल बाज़ार के रूप में स्थापित किया जाय, जिससे भविष्य में न सिर्फ लोगों का नैदानिक परीक्षण सुलभ हो सके बल्कि एक सुविकसित बाज़ार के रूप में दक्षिण एशिया का विकास भी हो।
  • दक्षिण एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था पर महामरी का प्रभाव एक और ऐसा क्षेत्र है जहाँ समन्वय की विशेष आवश्यकता है। दक्षिण एशियाई देशों को मंदी के अलावा, वैश्विक स्तर पर रोज़गार में कटौती का सामना भी करना पड़ा है, जिसके फलस्वरूप इन देशों में प्रवासियों और श्रमिकों द्वारा भेजे जाने वाले धन में लगभग 22% की कमी आ सकती है।
  • विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार COVID-19 के कारण मात्र पर्यटन क्षेत्र पर पड़े प्रभाव के कारण ही लगभग 10.77 मिलियन रोज़गार और सकल घरेलू उत्पाद में $ 32 बिलियन अमेरिकी डॉलर के नुकसान होने की संभावना है।
  • विश्व बैंक ने यह भी कहा है कि दक्षिण एशिया के सभी देशों को साथ आकर ‘श्रम एवं पर्यटन’ के सामूहिक मानकों को निर्धारित करना चाहिये तथा ‘पूर्वी अफ़्रीका संयुक्त एकल वीज़ा’ (East Africa Single Joint Visa) या मेंकोंग व कैरेबियाई क्षेत्रों के जैसे सामूहिक पर्यटन अवसरों की तलाश भी करनी चाहिये

क्षेत्रीय सहयोग की बात

  • दीर्घावधि में, स्वास्थ्य सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और नौकरी की सुरक्षा की प्राथमिकताओं में भी बदलाव होने की संभावना है, जिसका असर दक्षिण एशिया पर भी पड़ने की संभावना है।
  • COVID -19 का व्यापक प्रभाव, व्यापार, यात्रा और प्रवासन की बढ़ती अरुचि जैसे वैश्विक रुझानों में परिलक्षित होगा; साथ देशों में राष्ट्रवाद के प्रति बढ़ती रूचि, आत्म निर्भरता और स्थानीय आपूर्ति श्रृंखला आदि को बढ़ावा देने जैसी प्रवृत्तियाँ भी देखी जाएंगीं।
  • हालाँकि वैश्विक बाज़ार से खुद को पूरी तरह से अलग कर लेना देशों के लिये असंभव होगा तथा ऐसी दशा में क्षेत्रीय पहलें "गोल्डीलॉक्स विकल्प" (वैश्वीकरण और अति-राष्ट्रवाद के बीच मध्य मार्ग) का कार्य करेंगी ।
  • यह नोट करना महत्त्वपूर्ण है कि विश्व विभिन्न क्षेत्रीय व्यापार व्यवस्थाओं जैसे नए संयुक्त राज्य अमेरिका-मैक्सिको-कनाडा समझौते या यू.एस.एम.सी.ए. (उत्तरी अमेरिका), दक्षिणी आम बाज़ार या MERCOSUR (दक्षिण अमेरिका) यूरोपीय संघ (यूरोप), अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र, या AfCFTA (अफ्रीका), खाड़ी सहयोग परिषद, या GCC (खाड़ी) और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी या RCEP (दक्षिण पूर्व एशिया और चीन से आस्ट्रेलिया) में विभाजित है , भारत वर्तमान में एकमात्र क्षेत्रीय व्यापारिक समझौते ‘दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र’ या SAFTA (SAARC देशों के साथ) का भाग है, भारत को इस तरह के स्थानीय क्षेत्रीय व्यापार व्यवस्थाओं की नींव रखनी होगी।

चीन की चुनौती

  • चीन की चुनौती से निपटने के लिये, भारत द्वारा पड़ोसी देशों को साथ लेकर एक एकीकृत दक्षिण एशियाई मंच को सशक्त करना भारत की कूटनीतिक पहलों में से एक है।
  • यह भी स्पष्ट है कि भारत की पकिस्तान तथा नेपाल के साथ लगी सीमाओं पर तनाव भारत को चीन के खिलाफ सुभेद्य बनाता है विशेषकर तब जब सभी दक्षेस देशों (भूटान को छोड़कर) ने ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल को अपना समर्थन दिया हुआ है।
  • गौरतलब है कि वर्ष 2005 से 2014 के दौरान चीन वास्तव में दक्षेस में शामिल होना चाहता था।इस मुद्दे पर दक्षेस अधिकारयों में कई बार विचार विमर्श भी हुआ लेकिन भारत ने हमेशा अपना पक्ष रखा कि तीन दक्षेस देशों से सीमा साझा करने के बावजूद चीन दक्षिण एशियाई देश नहीं  है अतः वह दक्षेस का भाग नहीं बन सकता।
  • विगत कुछ वर्षों में कई तरह की वैश्विक आलोचना झेलने के बावजूद चीन ने विश्वविद्यालयों में निवेश, व्यापार, पर्यटन आदि के रूप में दक्षिण एशिया में अपनी राह बनाना जारी रखा है।
  • विगत वर्ष, चीन की सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना के संयुक्त मोर्चा कार्य विभाग (UFWD) जैसे समूहों ने महामारी के दौर में भी विभिन्न अवसरों को देशहित के लिये प्रयोग में लाने में सफलता हासिल की है।
  • अपनी ‘हेल्थ सिल्क रूट’ पहल की हिस्से के रूप में दवाइयों, व्यक्तिगत सुरक्षा के उपकरण किटों और विभिन्न टीकों को सार्क देशों को भेजने के अलावा चीन के उपमंत्री ने अफगानिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका आदि अलग अलग समूह में तीन बैठकें कीं और इन सभी देशों के साथ आर्थिक मुदों पर चर्चा करने के अलावा ‘साइनोवैक वैक्सीन’ की उपलब्धता पर भी चर्चा की।

भारत की पहलें  

इसके विपरीत, भारत ने इस क्षेत्र में अपनी स्वास्थ्य और आर्थिक कूटनीति को आगे बढ़ाया, लेकिन मार्च में मोदी द्वारा बुलाई गई ‘दक्षेस बैठक’ के अलावा अन्य सभी बैठकें आमतौर पर द्विपक्षीय ही थीं न कि दक्षिण एशिया के लिये संयुक्त प्रयास। 

आगे की राह

  • इतिहास और राजनीतिक शिकायतों को अलग-अलग नज़रिए से देखा जा सकता है लेकिन भूगोल वास्तविकता है।
  • यदि चीन के नज़रिए से देखा जाय तो अभी भी विभिन्न दक्षेस देशों का भारत के प्रति नज़रिया सकारात्मक ही है और एक दो देशों को छोड़कर अधिकतर देश भारत को नेता के रूप में स्वीकार भी करते हैं।
  • विगत कुछ वर्षों की निराशा के बावजूद, दक्षेस का अस्तित्व बरकरार है, और भारत इसे अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के लिये एक मंच के रूप में उपयोग कर सकता है। अतः भारत को दक्षिण एशिया में अपने कदमों को मज़बूत करने के लिये सार्क के पुनरुद्धार में लगना होगा।
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