(प्रारंभिक परीक्षा : भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली, पंचायती राज, लोकनीति, अधिकारों संबंधी मुद्दे इत्यादि) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: केन्द्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय) |
संदर्भ
सर्वोच्च न्यायालय ने अतुल सुभाष मामले में अल्पव्यस्क पुत्र की अभिरक्षा उसकी पत्नी को सौंपने का आदेश दिया है। इससे पूर्व मृतक अतुल सुभाष की माँ ने अल्पव्यस्क की अभिरक्षा की मांग की थी।
अल्पव्यस्क की अभिरक्षा
- अल्पव्यस्क की अभिरक्षा एक कानूनी शब्द है जो माता-पिता या अभिभावक द्वारा बच्चे की देखभाल अधिकारों एवं जिम्मेदारियों को संदर्भित करता है।
- इसमें बच्चे के जीवन, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रहने की स्थिति के बारे में निर्णय लेने का अधिकार शामिल है।
भारत में अल्पव्यस्क की अभिरक्षा संबंधी प्रावधान
- भारत में सभी अल्पव्यस्कों पर उनकी जाति व धर्म के बावजूद संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 (The Guardians and Wards Act, 1890) के प्रावधान लागू होते हैं।
- इसके अतिरिक्त अलग-अलग धर्मों के अल्पव्यस्कों के अभिरक्षा के संदर्भ में उनके पर्सनल लॉ (Personal Law) भी लागू होते हैं।
संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890
- संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 सभी जाति व धर्म के नाबालिगों पर लागू होता है।
- इस अधिनियम से पर्सनल लॉ प्रभावित नहीं होते हैं क्योंकि इसके तहत प्रावधान तब लागू होते हैं जब कोई व्यक्ति पर्सनल लॉ के तहत अल्पव्यस्क का संरक्षक बन जाता है।
- यह अधिनियम किसी अभिभावक के अल्पव्यस्क की अभिरक्षा के अधिकारों से संबंधित है। इसके तहत किसी व्यक्ति को अभिरक्षा का दावा करने के लिए यह साबित करना होगा कि वह अल्पव्यस्क का अभिभावक है।
- यदि अल्पव्यस्क की अभिरक्षा का दावा करने वाला व्यक्ति उसका अभिभावक नहीं है तो उसे पहले अभिभावक बनने के लिए आवेदन करन होगा। इसके बाद अभिरक्षा के लिए दावा करना होगा।
- अभिरक्षा एवं संरक्षकता के मध्य अंतर : अभिरक्षा (Custody) की अवधारणा केवल अल्पव्यस्क की देखभाल एवं उसके नियमित पालन-पोषण से संबंधित है जबकि संरक्षकता (Guardianship) एक वयस्क व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति या अल्पव्यस्क की संपत्ति पर अधिकारों से संबंधित है।
- अंतरिम अभिरक्षा : इस अधिनियम के तहत न्यायिक कार्यवाही चलने तक न्यायालय अल्पव्यस्क की अस्थायी अभिरक्षा के संबंध में अंतरिम आदेश दे सकती है।
- अभिरक्षा संबंधी क्षेत्राधिकार एवं बाल कल्याण : बच्चे की अभिरक्षा तय करते समय बच्चे के कल्याण को माता-पिता के अधिकारों की तुलना में अधिक महत्व दिया जाता है।
- जीजाबाई विट्ठलराव गजरे बनाम पठानखान एवं अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बच्चे की अभिरक्षा उसके पिता को देने से इंकार कर दिया क्योंकि उसने लंबे समय तक बच्चे की देखभाल नहीं की थी। न्यायालय ने बच्चे के कल्याण को ध्यान में रखते हुए बच्चे की अभिरक्षा उसकी मां को प्रदान की।
- बच्चे के कल्याण का निर्धारण करने वाले कारक :
- बच्चे की आयु
- लिंग : संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के तहत कोई भी प्रावधान न्यायालयों को किसी अल्पव्यस्क बालिका की अभिरक्षा केवल महिला अभिभावक को देने के लिए बाध्य नहीं करता है।
- जितेंद्र अरोड़ा बनाम सुकृति अरोड़ा वाद में न्यायालय ने 15 वर्ष की अल्पव्यस्क बालिका की अभिरक्षा उसके पिता को दे दी क्योंकि उसे अपने पिता के साथ रहना पसंद था और न्यायालय ने माना कि यह उसके सर्वोत्तम हित में है।
- व्यक्ति की स्थिति : एक मामले में न्यायालय ने बच्चे की अभिरक्षा माँ की बजाय उसकी दादी को दी क्योंकि अल्पव्यस्क को उचित घर प्रदान करने में माँ की तुलना में दादी अधिक सक्षम पाई गई।
- मृतक माता-पिता की प्राथमिकता : अभिरक्षा का निर्धारण करते समय अल्पव्यस्क के मृतक माता-पिता की प्राथमिकता को भी ध्यान में रखा जाता है। हालाँकि, इस स्थिति में भी बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि माना जाएगा।
- बच्चे की स्वयं की वरीयता (चुनाव)
विभिन्न धर्मों के पर्सनल लॉ
हिंदू अप्राप्तवयता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956
- प्राकृतिक अभिभावक के रूप में पिता : यह अधिनियम पिता को उसके जीवनकाल के दौरान अल्पव्यस्क की अभिरक्षा पर पूर्ण अधिकार देता है। हालाँकि, संरक्षकता एवं अभिरक्षा के मुद्दों पर निर्णय लेते समय अल्पव्यस्क के हित को सर्वोपरि महत्व दिया जाएगा।
- सुकुमार आयु के संबंध में अभिरक्षा
- पिता की मृत्यु के बाद माँ बच्चे की प्राकृतिक संरक्षक एवं देखभालकर्ता होती है। इस अधिनियम के अनुसार जब तक बच्चा पाँच वर्ष का नहीं हो जाता है, तब तक बच्चे की अभिरक्षा सामान्यतः माँ के पास रहेगी।
- सरस्वतीबाई बनाम श्रीपद मामले में न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि माँ बच्चे की देखभाल के लिए उपयुक्त व्यक्ति है तो उसका विकल्प खोजना असंभव है।
- रॉक्सन शर्मा बनाम अरुण शर्मा वाद में न्यायालय ने माना कि पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे की अभिरक्षा सामान्यत: माँ को दी जानी चाहिए जब तक कि पिता सिद्ध न कर दे कि यह बच्चे के कल्याण में नहीं है।
- तीसरे पक्ष को अभिरक्षा
- इस अधिनियम के तहत बच्चे की अभिरक्षा उसके माता-पिता के अलावा किसी तीसरे पक्ष को भी सौंपी जा सकती है।
- एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बच्चों की अभिरक्षा उनके मामा को दे दी क्योंकि बच्चों की माँ की मृत्यु के बाद पूर्व में माँ के साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण बच्चे अपने पिता के साथ जाने को तैयार नहीं थे।
- धर्म की भूमिका : इस अधिनियम के अनुसार यदि कोई व्यक्ति हिंदू नहीं रह गया है तो उसे बच्चे के संरक्षक की अनुमति नहीं दी जाएगी। हालाँकि, बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि रखते हुए न्यायालय इसके विरुद्ध निर्णय दे सकता है।
अभिरक्षा के संबंध में मुस्लिम विधि
- मुस्लिम विधि के अंतर्गत भी पिता को अल्पव्यस्क बच्चे का प्राकृतिक अभिभावक बताया गया है।
- फिर भी, माँ को अल्पव्यस्क की स्पष्ट अभिरक्षा तब तक दी जाती है जब तक पुत्र सात वर्ष का नहीं हो जाता है और पुत्री यौवनावस्था नहीं प्राप्त कर लेती है।
- हनफ़ी कानून के तहत माँ को अल्पव्यस्क पुत्री की हिरासत तब तक रखने का अधिकार है जब तक वह यौवनावस्था प्राप्त नहीं कर लेती है जबकि शिया व मालिकी कानूनों के तहत माँ को पुत्री का विवाह होने तक उसकी अभिरक्षा का अधिकार है।
- हनफ़ी कानून माँ को पुत्र के 7 वर्ष होने तक, शिया कानून अल्पव्यस्क पुत्र के दो वर्ष का होने तक जबकि मालिकी कानून पुत्र के यौवनावस्था प्राप्त करने तक पुत्र की अभिरक्षा का अधिकार देता है।
- यदि वह आयु या समय समाप्त हो जाता है जब तक के लिए माँ को अल्पव्यस्क की अभिरक्षा प्राप्त है तो अल्पव्यस्क की अभिरक्षा स्वतः ही उसके पिता को हस्तांतरित हो जाती है।
- यदि माँ बच्चे की अभिरक्षा छोड़ने से इनकार करती है तो इसे बच्चे को गलत तरीके से बंधक बनाना माना जाएगा।
- माँ की अनुपस्थिति में अल्पव्यस्क की अभिरक्षा : यदि अल्पव्यस्क की माँ मौजूद नहीं है, तो निकटतम महिला रिश्तेदारों को अभिरक्षा का अधिकार होगा। इनकी अनुपस्थिति में अल्पव्यस्क की अभिरक्षा पिता को प्राप्त होगी।
ईसाई विधि
- ईसाई धर्म में अभिरक्षा से संबंधित मामलों को सभी धर्मों पर लागू संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 और भारतीय तलाक अधिनियम, 1869 के प्रावधानों के अनुसार तय किया जाता है।
- भारतीय तलाक अधिनियम, 1869 न्यायालय को अलगाव या तलाक के मुकदमे में कार्यवाही के दौरान अल्पव्यस्क की अभिरक्षा के संबंध में अंतरिम आदेश पारित करने की शक्ति देता है।
पारसी विधि
पारसी धर्म में बच्चे की अभिरक्षा से संबंधित मामलों को संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के साथ ही पारसी विवाह एवं तलाक अधिनियम के तहत निपटाया जाता है। पारसी कानून अभिरक्षा के मुद्दे पर निर्णय लेते समय बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि मानता है।
अभिरक्षा के संबंध में अंतर्देशीय विवादों का निपटारा
ए. नित्या आनंद राघवन बनाम दिल्ली राज्य, 2017
- इस मामले में ब्रिटिश नागरिकता प्राप्त अल्पव्यस्क बच्चे की मां ने नई दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराध प्रकोष्ठ में अपने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई।
- इसके प्रत्युत्तर में प्रतिवादी-पति ने पुत्री की अभिरक्षा और उसे यूनाइटेड किंगडम न्यायिक अधिकार क्षेत्र में पुत्री को वापस करने के लिए हाई कोर्ट फॉर जस्टिस, फैमिली डिवीजन, यू.के. में याचिका दायर की।
- भारत ‘अंतर्राष्ट्रीय बाल अपहरण नागरिक पहलू’ पर 1980 के हेग अभिसमय का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है।
- इस अभिसमय के तहत गैर-हस्ताक्षरकर्ता देशों के संबंध में यह कानून है कि इस तरह के मामलों पर निर्णय लेते समय न्यायालयों को बच्चे के कल्याण को सर्वोच्च महत्व देना चाहिए।
- ऐसे मामलों में न्यायालय संक्षिप्त अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकते हैं तथा अल्पव्यस्क को उसके मूल देश के अधिकार क्षेत्र में वापस भेज सकते हैं, यदि वे संतुष्ट हों कि यह अल्पव्यस्क के लिए हानिकारक नहीं है।
- संक्षिप्त अधिकार क्षेत्र का प्रयोग तब किया जा सकता है, जब अल्पव्यस्क बच्चे को उसके मूल देश से किसी ऐसे देश में भेज दिया जाता है :
- जहाँ उसकी मूल भाषा नहीं बोली जाती या
- यदि वह उन सामाजिक रीति-रिवाजों से अलग हो जाता है, जिनका वह आदी है या
- यदि उसकी मूल शिक्षा विदेशी शिक्षा प्रणाली के कारण बाधित होती है।
बी. लहरी सखामुरी बनाम सोभन कोडाली
- इस मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायालयों को प्रत्येक मामले में तथ्यों एवं परिस्थितियों की समग्रता के संबंध में बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि मानते हुए अल्पव्यस्क को वापस भेजने या न भेजने के सवाल पर निर्णय लेना चाहिए।
- बच्चे के सर्वोत्तम हित में निर्णय लेते समय विभिन्न देशों के न्यायालय की विनम्रता, बच्चे एवं माता-पिता की नागरिकता, विदेशी न्यायालय के आदेश व घनिष्ठ संपर्क जैसे कारकों को शामिल किया जाना चाहिए।
भारत में बाल अभिरक्षा कानूनों में सुधार के लिए सुझाव
- विधि आयोग ने अपनी 257वीं रिपोर्ट में भारत में बाल अभिरक्षा कानूनों में कुछ सुधारों का सुझाव दिया है।
- इनमें से एक सुधार माता एवं पिता को दिए गए संरक्षकता अधिकारों में भेदभावपूर्ण स्थिति से संबंधित है।
- कुछ भारतीय कानूनों के तहत पिता के संरक्षकता के अधिकार को माता के अधिकार से बेहतर माना जाता है। इस स्थिति को संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 में एक संशोधन के माध्यम से बदल दिया गया था।
- हालाँकि, पूर्व वाली स्थिति इस अधिनियम में अप्रत्यक्ष रूप से अभी भी मौजूद है। ऐसी स्थिति समाज में पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा देती है।
- विधि आयोग ने इस अधिनियम में संशोधन का सुझाव दिया है ताकि माता एवं पिता दोनों को संरक्षकता अधिकारों का समान रूप से हकदार बनाया जा सके।
- विधि आयोग ने नाबालिगों के कल्याण के सिद्धांत का निर्धारण करने के लिए कुछ विशिष्ट दिशा-निर्देशों का सुझाव दिया है क्योंकि इसके अभाव में विभिन्न न्यायालय अभिरक्षा प्रदान करने के लिए अपनी व्यक्तिगत व्याख्या के आधार पर निर्णय देते हैं।