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राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता

(प्रारंभिक परीक्षा:भारतीय राज्यतंत्र और शासन, मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2;  शासन व्यवस्था, संविधान, शासन प्रणाली) 

संदर्भ

उच्चतम न्यायालय ने पत्रकार विनोद दुआ के विरुद्ध शिमला में दर्ज राजद्रोह के मामले (Sedition Case) को खारिज कर दिया है। एक वर्ष पूर्व उनके विरुद्ध एक स्थानीय सत्ताधारी नेता द्वारा उनके यूट्यूब शो पर केंद्र सरकार की आलोचना करने वाली टिप्पणी पर प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी।

न्यायालय का निर्णय

  • न्यायमूर्ति यू.यू. ललित और विनीत शरण की खंडपीठ ने प्रत्येक पत्रकार द्वारा ‘सरकार के कदमों की आलोचना करने के अधिकार’ को बरकरार रखा, यहाँ तक वह सरकार की कठोर आलोचना भी कर सकता है। खंडपीठ ने कहा कि एक पत्रकार की ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को राजद्रोह के आरोपों से बचाया जाना चाहिये।
  • यह अतीत की बात है, जब सरकारों की आलोचना मात्र पर ही राजद्रोह का मामला आरोपित कर दिया जाता था। निर्णय में कहा गया है कि ‘ईमानदार और युक्तिसंगत’ आलोचना करने का अधिकार किसी समुदाय की कमज़ोरी की बजाय शक्ति का स्रोत है।
  • न्यायालय ने अनुच्छेद 32 के तहत दुआ की रिट याचिका पर विचार किया, क्योंकि हिमाचल प्रदेश पुलिस जाँच-प्रक्रिया पूरी करने तथा दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 173 के तहत अपनी रिपोर्ट जमा करने में विफल रही है।
  • उच्चतम न्यायालय ने ‘केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य वाद्, 1962’ के निर्णय पर भरोसा जताया है। इस निर्णय में न्यायालय ने कहा था कि सरकार की आलोचना या प्रशासन पर टिप्पणी करने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता है। राजद्रोह का मामला तभी माना जाएगा, जब कोई भी वक्तव्य ऐसा हो, जिसमें हिंसा भड़काने की मंशा हो या फिर हिंसा बढ़ाने के तत्त्व विद्यमान हो।

राजद्रोह कानून

  • राजद्रोह की परिभाषा, भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 124क (124A) के अनुसार, जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यरुपण द्वारा या भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान उत्पन्न करना या उत्पन्न करने का प्रयत्न करेगा, उसे आजीवन कारावास, जिसमें ज़ुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष कारावास या जुर्माने से दंडित किया जाएगा।
  • धारा 124क के उपबंध को विशिष्ट मामलों में विभिन्न न्यायालयों में चुनौती दी गई है। हालाँकि, इस उपबंध को केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य वाद्, 1962 में उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक खंडपीठ ने बरकरार रखा था।

राजद्रोह कानून की पृष्ठभूमि

  • राजद्रोह को दंडित करने वाली धारा 124क को पहली बार तत्कालीन ब्रिटिश उपनिवेशी शासन द्वारा सरकार के विरुद्ध असंतोष का प्रसार करने वाले लोगों के विरुद्ध वर्ष 1870 में लागू किया गया था। वर्ष 1898 में एक संशोधन के द्वारा इसे एक दंडनीय अपराध बना दिया गया था।
  • ‘राजद्रोह की अवधारणा ‘एलिज़ाबेथियन इंग्लैंड’ से ली गई है, जहाँ जनता द्वारा राजा की आलोचना करने तथा विद्रोह को भड़काने को, राज्य के विरुद्ध एक अपराध माना जाता था। भारत में इस कानून को ‘वहाबी विद्रोह’ से निपटने के लिये लाया गया था।
  • गौरतलब है कि, वहाबी आंदोलन एक इस्लामी पुनरुत्थानवादी आंदोलन था, जिसका नेतृत्व सैयद अहमद बरेलवी ने किया था। भारत में सर्वप्रथम इस कानून का प्रयोग वर्ष 1891 में एक पत्रकार जोगेंद्र चंद्र बोस के विरुद्ध किया गया था।
  • महात्मा गांधी ने इस धारा का वर्णन “आई.पी.सी. की राजनीतिक धाराओं के राजकुमार के रूप में किया था, जिसे नागरिकों की स्वाधीनता का दमन करने के लिये तैयार किया गया है।”
  • महात्मा गांधी को इस धारा के अंतर्गत कई बार राजद्रोह का दोषी माना गया था। इस धारा के अन्य पीड़ितों में बाल गंगाधर तिलक और ऐनी बेसेंट जैसे सुविख्यात स्वतंत्रता सेनानी भी शामिल थे।   
  • संविधान सभा के अनेक सदस्य, विशेषतया के.एम. मुंशी तथा टी.टी. कृष्णामचारी ने आधुनिक लोकतंत्र में ऐसे किसी कानून की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाए थे। यहाँ तक कि पं. नेहरु ने भी इसे ‘अत्यंत आपत्तिजनक और घृणित’ की संज्ञा दी थी। 

केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य वाद, 1962

  • वर्ष 1953 में, फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के एक सदस्य, केदार नाथ सिंह ने बेगूसराय (बिहार) में एक रैली के दौरान सत्ताधारी कांग्रेस के विरूद्ध आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। उग्र भाषण के कारण राजद्रोह के आरोप में एक प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट ने उन्हें दोषी करार दिया था। इसके अतिरिक्त, पटना उच्च न्यायालय में उनकी अपील भी खारिज हो गई थी।
  • वर्ष 1962 में अभियुक्त ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की, जिसमें धारा 124क की संवैधानिकता पर सवाल उठाया गया तथा कहा कि इससे संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त उनके ‘वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।
  • एक ऐतिहासिक निर्णय में, उच्चतम न्यायालय की एक संविधान खंडपीठ ने आई.पी.सी. की धारा 124क की वैधता को बरकरार रखा, तथापि  औपनिवेशिक कालखंड के इस कानून के दुरुपयोग के दायरे को सीमित करने का प्रयास किया तथा इस अंतर को सीमांकित करने की कोशिश की गई, जो ये तय कर सके की कौन-से कृत्य राजद्रोह के अंतर्गत आएँगे और कौन-से नहीं।

केदारनाथ सिंह वाद के दिशा-निर्देश

  • उच्चतम न्यायालय ने उन स्थितियों को निर्दिष्ट करते हुए, सात सिद्धांत नियत किये, जिनमें राजद्रोह के आरोप को लागू नहीं किया जा सकता है। 
  • पहला, ‘कानून द्वारा स्थापित सरकार’ की अभिव्यक्ति को, उस समय प्रशासन को संचालित करने में संलग्न व्यक्तियों से पृथक किया जाना चाहिये। कानून द्वारा स्थापित सरकार राज्य का ‘सदृश्य प्रतीक’ है। यदि कानून द्वारा स्थापित सरकार को उलट दिया गया तो राज्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
  • दूसरा, धारा 124क की परिभाषा के भीतर कोई भी कार्य, जो उस सरकार के विरुद्ध अवमानना या घृणा या उसके विरुद्ध असंतोष उत्पन्न करके सरकार को विचलित करने का प्रयास करता हो, वो दंड विधान के अंतर्गत आता है।
  • तीसरा, ऐसी टिप्पणियाँ, जो चाहे कितने भी कठोर शब्दों में हों, सरकार के कार्यों की अस्वीकृति व्यक्त करते हुए, उन भावनाओं को उत्तेजित किये बिना, जो हिंसा के कृत्यों द्वारा ‘सार्वजनिक अव्यवस्था’ का कारण बनती हैं, दंडनीय नहीं होगी।
  • चौथा, एक नागरिक को यह अधिकार है कि वह आलोचना या टिप्पणी के माध्यम से सरकार या उसके कार्यों के बारे में, जो कुछ भी पसंद करता है, उसे कहने या लिखने का अधिकार है, जब तक कि वह लोगों को कानून द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध या सार्वजनिक अव्यवस्था के इरादे से हिंसा को उकसाता नहीं है।
  • पाँचवाँ, धारा 124क के उपबंध को इसके समस्त अनुभागों व स्पष्टीकरणों के साथ पढ़ने पर स्पष्ट हैं कि अनुभागों का उद्देश्य केवल ऐसी गतिविधियों को दंडित करना है, जिनका उद्देश्य या प्रवृत्ति हिंसा का सहारा लेकर सार्वजनिक अशांति या अव्यवस्था उत्पन्न करना है।
  • छठा, ऐसे लिखित या बोले गए शब्द जिनमें सार्वजनिक अव्यवस्था या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी उत्पन्न करने की हानिकारक प्रवृत्ति या इरादा हो, तब कानून, सार्वजनिक व्यवस्था के हित में ऐसी गतिविधियों को रोकने के लिये कदम उठा सकता है।
  • सातवाँ, हिंसा को उकसाने वाली  या सार्वजनिक अव्यवस्था उत्पन्न करने की मंशा या प्रवृत्ति या सार्वजनिक शांति में गड़बड़ी उत्पन्न करने वाली गतिविधियाँ।  

प्रासंगिकता

  • नागरिकों के ‘वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को सीमित करने वाली घटनाएँ आधुनिक संवैधानिक लोकतंत्र में इस कानून की प्रासंगिकता के संदर्भ में गंभीर सवाल खड़े करती हैं।
  • वर्ष 1922 में गांधीजी ने अपने मुकदमे के दौरान कहा था कि “स्नेह को कानून द्वारा विनिर्मित या विनियमित नहीं किया जा सकता है, यदि किसी को किसी व्यक्ति के प्रति कोई स्नेह नहीं है, तो उसे उस समय तक अपना असंतोष पूर्णतः व्यक्त करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिये, जब तक की वह हिंसा के विषय में विचार न करे, उसे बढ़ावा न दे या उसे भड़काए नहीं।”
  • उच्चतम न्यायालय ने भी स्पष्ट किया है कि इस धारा को केवल उन्ही कृत्यों के लिये लागू किया जाना चाहिये, जो हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था उत्पन्न करते हैं।
  • प्रायः यह समस्या अधीनस्थ न्यायलयों में तथा अन्वेंषण प्राधिकारियों में विद्यमान रहती है, जो उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों की निरंतर अवहेलना करते हैं।
  • अधिकांश विकसित देशों में, राजद्रोह के अपराध को उनकी क़ानूनी पुस्तकों से या तो हटा दिया गया है या उसे अत्यंत सीमित कर दिया गया है, जैसे यूनाइटेड किंगडम, न्यूज़ीलैंड आदि।
  • आधुनिक उदारवादी लोकतंत्रों में राजद्रोह के अपराध को अनावश्यक और अनुपयुक्त माना जाता है, जहाँ सरकार की संरचनाओं और प्रक्रियाओं की आलोचना करने और उन्हें चुनौती देने के नागरिकों के अधिकार को पूर्णतः स्वीकार किया जाता है।

    निष्कर्ष

    • यदि समाज में सकरात्मक आलोचना के लिये स्थान नहीं है, तो वहाँ स्वतंत्रता होने या न होने का कोई अभिप्राय नहीं है। सरकार की आलोचना को इस धारा की परिधि से बाहर रख जाना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त, नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षित करने के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित होना चाहिये की कतिपय व्यक्तियों की अनियंत्रित स्वतंत्रता दूसरे व्यक्तियों के लिये हिंसा और अव्यवस्था का कारण न बन जाए।
    • अंततः ‘राजद्रोह’ को पुनः परिभाषित करने के संदर्भ में कानूनी विशेषज्ञों, गैर-सरकारी संगठनों, विद्यार्थियों आदि के मध्य पर्याप्त संवाद स्थापित करने की आवश्यकता है।
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