(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)
संदर्भ
पिछले कुछ वर्षों से राजद्रोह कानून को लेकर विवाद उत्पन्न होता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर विधि आयोग तक इस कानून की प्रासंगिकता को लेकर प्रश्न-चिन्ह लगा चुके है। हाल ही में, गृह मंत्रालय ने कहा कि देशद्रोह से संबंधित भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code- IPC) की धारा 124क को समाप्त करने का कोई प्रस्ताव नहीं है।
राजद्रोह कानून : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- राजद्रोह की अवधारणा ‘एलिज़ाबेथियन इंग्लैंड’ से ली गई है। इंग्लैंड में राजशाही की आलोचना करने और उसको अस्थिर करने वाले विचारों को राज्य के विरुद्ध अपराध माना जाता था। वहाँ 17वीं शताब्दी में राजद्रोह कानून अधिनियमित किया गया था।
- धारा 124क को पहली बार तत्कालीन ब्रिटिश उपनिवेशी शासन (जेम्स स्टीफन) ने सरकार के विरुद्ध असंतोष का प्रसार करने वाले लोगों के विरुद्ध वर्ष 1870 में लागू किया था। वर्ष 1898 में एक संशोधन द्वारा इसे दंडनीय अपराध बना दिया गया।
- ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1897 में बाल गंगाधर तिलक पर राजद्रोह का मामला दर्ज़ किया। वर्ष 1909 में ‘केसरी’ पत्रिका के लेखों के कारण दूसरी बार उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।
राजद्रोह कानून : प्रमुख तथ्य
- भारत में इस कानून को ‘वहाबी विद्रोह’ से निपटने के लिये लाया गया था।
- तिलक के अतिरिक्त महात्मा गाँधी और ऐनी बेसेंट को भी इस कानून के तहत राजद्रोह का सामना करना पड़ा था।
- महात्मा गाँधी ने इसका वर्णन ‘आई.पी.सी. की राजनीतिक धाराओं के राजकुमार’ के रूप में किया था।
- पं. नेहरु ने भी इस कानून को ‘अत्यंत आपत्तिजनक और घृणित’ की संज्ञा दी थी।
- स्वतंत्र भारत में राजद्रोह का पहला मामला ‘केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य 1960’ था। केदारनाथ सिंह फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे।
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राजद्रोह अधिनियम की वर्तमान स्थिति
- वर्तमान में भारतीय दंड संहिता की धारा 124क में राजद्रोह के तहत अपराध का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार मौखिक, लिखित, सांकेतिक या दृश्य माध्यम से विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा व अवमानना उत्पन्न करना या वैमनस्य व असंतोष को उत्तेजित करना या उसका प्रयास करना राजद्रोह के तहत दंडनीय है।
- राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है, जिसमें 3 वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सजा और जुर्माना या दोनों हो सकता है। इसके तहत व्यक्ति को सरकारी नौकरी से वंचित किया जा सकता है।
- हालाँकि, सरकार के प्रति अवमानना या घृणा न उत्पन्न करने वाली आलोचनात्मक टिप्पणी अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं है।
राजद्रोह अधिनियम के पक्ष में तर्क
- आतंकवादी तत्वों से निपटने और विभिन्न राज्यों में अलगाववादी व उग्रवादी तत्वों को कमज़ोर करने में सहायक।
- नागरिकों द्वारा चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के प्रयास को रोकने में सहायक।
- न्यायालय की अवमानना पर दंडात्मक कार्यवाही की तरह सरकार की अवमानना के लिये भी दंड के प्रावधान की आवश्यकता।
राजद्रोह अधिनियम के विपक्ष में तर्क
- यह अधिनियम संविधान द्वारा प्रदत्त विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को बाधित करता है। सरकार की आलोचना एवं असहमति प्रभावी लोकतंत्र का एक आवश्यक तत्व है।
- यह कानून मूलत: ब्रिटिश सरकार ने निर्मित किया और वर्तमान में ब्रिटेन में भी ये कानून लागू नहीं है अत: भारत में भी इसके मूल्यांकन की आवश्यकता है।
- भारतीय दंड संहिता में ‘असंतोष’ शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं है ऐसे में इसकी व्याख्या जाँच अधिकारी पर निर्भर हो जाती है।
- गैर-क़ानूनी गतिविधि अधिनियम (UAPA) के अंतर्गत सार्वजनिक व्यवस्था में बाधा डालने तथा आतंकवादी व अलगाववादी तत्वों से निपटने के पर्याप्त प्रावधान है, ऐसे में राजद्रोह कानून की आवश्यकता नहीं है।
- विभिन्न सरकारों ने राजद्रोह कानून का उपयोग राजनीतिक उपकरण के रूप में किया गया है।
निष्कर्ष
भारत में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ एक मौलिक अधिकार है और राजद्रोह कानून इसे प्रभावित करता है। साथ ही, देश के विकास के लिये एक स्थिर सरकार का होना भी आवश्यक है। ऐसे में दोनों के मध्य सामंजस्य स्थापित करते हुए राजद्रोह कानून के मूल्यांकन की आवश्यकता है। संविधान सभा के सदस्य के.एम. मुंशी तथा टी.टी. कृष्णामचारी ने आधुनिक लोकतंत्र में ऐसे किसी कानून की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाए थे।