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पॉक्सो अधिनियम के अंतर्गत सहमति की उम्र में संशोधन

प्रारंभिक परीक्षा के लिए - पॉक्सो अधिनियम
मुख्य परीक्षा के लिए : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र:2 - केन्द्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय

संदर्भ 

  • हाल ही में महिला एवं बाल विकास मंत्री द्वारा राज्यसभा में कहा गया, कि यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम(पॉक्सो अधिनियम) के तहत सहमति की आयु को संशोधित करने की सरकार की कोई योजना नहीं है।
  • CJI और कई उच्च न्यायालयों द्वारा किशोरों के बीच सहमति के संबंधों के अपराधीकरण को रोकने के लिए सहमति की आयु को कम करके 16 वर्ष करने के लिए कानून में संशोधन करने की अपील की गयी थी।
  • पॉक्सो अधिनियम के अंतर्गत सहमति की आयु को 18 वर्ष निर्धारित किया गया है।
  • विश्व के अधिकांश देशों में सहमति की आयु 13-16 वर्ष के बीच है। 

पॉक्सो अधिनियम 

  • इस अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य, बच्चों को यौन उत्पीड़न, और अश्लील साहित्य के अपराधों से बचाने तथा संबंधित मामलों और घटनाओं के परीक्षण के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना करना है।
  • यह अधिनियम, भारत द्वारा हस्ताक्षरित, संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकारों पर कन्वेंशन, 1989 के प्रावधानों से भी सुसंगत है।
  • विभिन्न अपराधों के लिए सजा प्रावधानों को कठोर बनाने के लिए 2019 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया था।

मुख्य प्रावधान

  • पॉक्सो अधिनियम, 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को यौन उत्पीड़न, यौन शोषण, और बाल पोर्नोग्राफी से बचाने के लिए बनाया गया था।
  • इस अधिनियम के तहत, 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति की सहमति भी अप्रासंगिक है।
  • पॉक्सो अधिनियम के अनुसार, एक यौन हमले को और अधिक गंभीर माना जाना चाहिए, यदि - 
    • प्रताड़ित बच्चा मानसिक रूप से बीमार है।
    • या अपराध निम्नलिखित व्यक्तियों में से किसी के द्वारा किया गया है -
      • सशस्त्र बलों या सुरक्षा बलों का सदस्य।
      • एक लोक सेवक।
      • बच्चे के भरोसे या अधिकार की स्थिति में एक व्यक्ति, जैसे परिवार का सदस्य, पुलिस अधिकारी, शिक्षक, या डॉक्टर या अस्पताल का कोई व्यक्ति-प्रबंधन या कर्मचारी, चाहे वह सरकारी हो या निजी।
  • अधिनियम में 2019 के संसोधन द्वारा, अधिक गंभीर यौन हमले के लिए न्यूनतम सजा को दस साल से बढ़ाकर 20 साल और अधिकतम सजा के रूप में मृत्युदंड का प्रावधान कर दिया गया है।
  • अधिनियम में अपराधों और इससे संबंधित मामलों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान है।
  • अधिनियम में कहा गया है, कि ऐसे कदम उठाए जाने चाहिए जो जांच प्रक्रिया को यथासंभव बाल-सुलभ बना दें, और अपराध की सूचना देने की तारीख से एक वर्ष के भीतर मामले का निपटारा कर दिया जाए।
  • न्यायिक प्रणाली के हाथों बच्चे के पुन: शिकार से बचने के लिए पर्याप्त प्रावधान किए गए है, अधिनियम जांच प्रक्रिया के दौरान एक पुलिसकर्मी को बाल रक्षक की भूमिका सौंपता है।
  • अधिनियम ऐसे मामलों की रिपोर्ट करना भी अनिवार्य बनाता है, यह यौन शोषण की रिपोर्ट करने के लिए अपराध से अवगत व्यक्ति का कानूनी कर्तव्य बनाता है। यदि वह ऐसा करने में विफल रहता है, तो व्यक्ति को छह महीने के कारावास या जुर्माना से दंडित किया जा सकता है।
  • यह उन लोगों के लिए भी सजा का प्रावधान करता है, जो यौन उद्देश्यों के लिए बच्चों की तस्करी करते है।
  • अधिनियम में झूठी शिकायतों या असत्य जानकारी के लिए भी दंड का प्रावधान किया गया है।
  • बाल पोर्नोग्राफी पर अंकुश लगाने के लिए अधिनियम में प्रावधान है, कि जो लोग अश्लील उद्देश्यों के लिए बच्चे का उपयोग करते हैं, उन्हें पांच साल तक की कैद और जुर्माने से दंडित किया जाना चाहिए।
  • अधिनियम की धारा 42 ए में प्रावधान है, कि किसी अन्य कानून के प्रावधानों के साथ असंगति के मामले में, पॉक्सो अधिनियम ऐसे प्रावधानों को ओवरराइड करेगा।
  • अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) और राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एससीपीसीआर) को नामित प्राधिकारी बनाया गया है।
  • अधिनियम की धारा 45 के तहत नियम बनाने की शक्ति केंद्र सरकार के पास है।

महत्वपूर्ण विशेषताएं 

  • एक बच्चे को 18 वर्ष से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति के रूप में परिभाषित करके, यह अधिनियम लिंग के आधार पर बाल यौन शोषण के अपराधियों के बीच भेद नहीं करता है।
  • यह अधिनियम ना केवल यौन शोषण के अपराधी को दंडित करता है, बल्कि उन लोगों को भी दंडित करता है, जो अपराध की रिपोर्ट करने में विफल रहे है।
  • कोई पीड़ित किसी भी समय अपराध की रिपोर्ट कर सकता है, यहां तक ​​कि दुर्व्यवहार किए जाने के कई साल बाद भी।
  • पॉक्सो अधिनियम की धारा 23 अधिनियम के तहत स्थापित विशेष अदालतों द्वारा अनुमति के अलावा, यह किसी भी रूप में पीड़ित की पहचान के प्रकटीकरण को प्रतिबंधित करता है।
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