(प्रारंभिक परीक्षा : सामयिक घटनाएँ तथा शासन संबंधी मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–2 : सरकारी नीतियाँ, उनका क्रियान्वयन और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप)
संदर्भ
हाल ही में, ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009’ की निष्पक्षता को लेकर बहस चल रही है। कहा जा रहा है कि यह अधिनियम अल्पसंख्यक व गैर-अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में भेदभाव करता है, जो सार्वभौमिक शिक्षा सुनिश्चित करने के लक्ष्य के विरुद्ध है।
शिक्षा के अधिकार की प्रवर्तनीयता
- अधिकांश मौलिक अधिकार राज्य के विरुद्ध लागू होते हैं, उन्हें निजी व्यक्तियों के विरुद्ध लागू नहीं किया जा सकता है। यह व्यवस्था ‘मौलिक अधिकारों का ऊर्ध्वाधर अनुप्रयोग’ कहलाती है।
- जबकि कुछ मौलिक अधिकार व्यक्तियों के विरुद्ध भी लागू होते हैं, जैसे– अस्पृश्यता का अंत (अनुच्छेद 17), नि: शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का अधिकार इत्यादि। यह व्यवस्था ‘मौलिक अधिकारों का क्षैतिज अनुप्रयोग’ कहलाती है।
- आरंभ में ‘शिक्षा के अधिकार’ का उल्लेख भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्त्वों में अनुच्छेद 45 के अंतर्गत किया गया था। इसमें राज्य से अपेक्षा की गई थी कि वह एक दशक के भीतर 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा। उल्लेखनीय है कि पहले शिक्षा का अधिकार प्रवर्तनीय नहीं था, किंतु वर्ष 2009 में इसके मौलिक अधिकार बन जाने के बाद से यह प्रवर्तनीय हो गया है।
संबंधित वाद
- वर्ष 1992 में उच्चतम न्यायालय ने ‘मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य’ वाद में शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का ही एक भाग बताया था।
- इसके पश्चात् वर्ष 1993 में ‘उन्नीकृष्णन जे.पी. बनाम आंध्रप्रदेश’ वाद में न्यायालय ने कहा था कि राज्य 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों को अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार शिक्षा प्रदान करने के लिये कर्तव्य-बद्ध है।
- न्यायालय ने स्वीकार किया कि शिक्षा के सार्वभौमिक प्रसार का कार्य राज्य द्वारा अकेले ही पूरा नहीं किया जा सकता है, इसमें अल्पसंख्यक संस्थानों सहित निजी शिक्षण संस्थानों के सहयोग को भी आवश्यकता है।
- इसी पृष्ठभूमि में संसद ने वर्ष 2002 में 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से संविधान में अनुच्छेद 21ए अंतःस्थापित किया, जिसके अंतर्गत शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा प्रदान किया गया था।
- टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन तथा पी.ए. इनामदार जैसे ऐतिहासिक निर्णयों ने शिक्षा के अधिकार के लिये संवैधानिक आधार तैयार किया।
- वर्ष 2005 के पी.ए. इनामदार वाद में न्यायालय ने स्पष्ट कहा था कि निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं किया जाएगा तथा अल्पसंख्यक एवं गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।
93वाँ संविधान संशोधन अधिनियम एवं उसके प्रभाव
- 93वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 के माध्यम से संविधान में अनुच्छेद 15(5) शामिल किया गया था, जो ‘भेदभाव के विरुद्ध मौलिक अधिकार’ से संबंधित था। इसके अंतर्गत राज्य को यह अधिकार प्रदान किया गया था कि निजी शिक्षण संस्थानों सहित सभी संस्थानों में वह ‘पिछड़े वर्गों’ के प्रवेश के लिये प्रावधान कर सकेगा, ताकि उनकी दशा में सुधार लाया जा सके।
- हालाँकि इसके अंतर्गत राजकीय सहायता प्राप्त तथा गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को शामिल नहीं किया गया था। चूँकि इस नव स्थापित अनुच्छेद से सभी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को छूट प्रदान गई थी, अतः यह वर्ष 2005 के इनामदार मामले के उस निर्णय के विरुद्ध था, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अल्पसंख्यक एवं गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।
शिक्षा के अधिकार में भेदभाव
- वर्ष 2009 में जब ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम’ लागू किया गया था, तो इसमें अल्पसंख्यक व गैर-अल्पसंख्यक निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों के मध्य कोई भेदभाव नहीं किया गया था तथा सभी निजी शिक्षण संस्थानों में समाज के पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों के लिये 25% सीटें आरक्षित की गई थीं।
- तत्पश्चात् ‘सोसाइटी फॉर अनएडेड प्राइवेट विद्यालय ऑफ राजस्थान बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ वाद में निजी संस्थानों में 25% आरक्षण के प्रावधान को चुनौती दी गई थी, जिसमें न्यायालय ने इस कानून को वैधता प्रदान की तथा केवल गैर-सहायता प्राप्त निजी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों ही इसके दायरे से बाहर रखा।
- आगे वर्ष 2012 में न्यायालय के इस निर्णय के ज़वाब में संसद ने आर.टी.ई. अधिनियम में संशोधन किया और प्रावधान किया कि ‘सहायता प्राप्त व गैर-सहायता प्राप्त सभी गैर-अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को आरक्षण के प्रावधान का पालन करना होगा, जबकि सहायता प्राप्त व गैर-सहायता प्राप्त सभी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को आरक्षण के प्रावधान से छूट प्राप्त होगी।’ इस प्रावधान का आधार संविधान के अनुच्छेद 29 व 30 को बनाया गया, जो अल्पसंख्यकों को निजी शिक्षण संस्थानों के प्रशासन का अधिकार प्रदान करते हैं। इसके कारण गैर-सहायता प्राप्त निजी विद्यालयों का दायित्व (आर्थिक व प्रशासनिक) सरकारी विद्यालयों की तुलना अत्यधिक बढ़ गया था।
- गौर करने लायक है कि इस भेदभावमूलक आर.टी.ई. अधिनियम को जिस अनुच्छेद 21 के आलोक में पारित किया गया है, किंतु वह अल्पसंख्यक व गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों के बीच कोई भेदभाव नहीं करता है। आर.टी.ई. अधिनियम के इन प्रावधानों को अनुच्छेद 14 द्वारा प्रदत्त ‘समता के अधिकार’ का उल्लंघन माना जाता है तथा इससे कई निजी शिक्षण संस्थानों पर अनुचित आर्थिक बोझ भी बढ़ता है।
- ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम’ बिना किसी तार्किक कारण के, न केवल अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक विद्यालयों में विभेद करता है, बल्कि यह अल्पसंख्यक विद्यालयों को इसके दायरे से बाहर कर सार्वभौमिक शिक्षा के उद्देश्य प्राप्ति में भी बाधा उत्पन्न करता है।
अल्पसंख्यक विद्यालयों में आर.टी.ई. लागू करने की आवश्यकता
- मौलिक अधिकारों में सामंजस्य स्थापित करने के लिये तथा शिक्षा के सार्वभौमिक प्रसार को तीव्र करने के लिये अल्पसंख्यक संस्थानों को आर.टी.ई. अधिनियम से पूर्ण छूट नहीं दी जानी चाहिये। असल में, आर.टी.ई. अधिनियम के अधिकांश प्रावधान ऐसे भी हैं, जो उनके प्रशासनिक अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करते हैं।
- आर.टी.ई. अधिनियम में विद्यार्थियों के प्रति शारीरिक व मानसिक क्रूरता की रोकथाम के पर्याप्त उपाय किये गए हैं तथा शैक्षिक गुणवत्ता की जाँच करने के लिये भी विभिन्न मानदंड स्थापित किये गए हैं। अतः अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में आर.टी.ई. अधिनियम लागू नहीं होने से वहाँ पढ़ने वाले विद्यार्थी न सिर्फ शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना के शिकार हो जाते हैं, बल्कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से भी वंचित रह जाते हैं।
- वर्ष 2016 के ‘सोभा जॉर्ज बनाम केरल राज्य’ वाद में केरल उच्च न्यायालय ने कहा था कि आर.टी.ई. की धारा-16 अल्पसंख्यक विद्यालयों पर भी लागू होगी। अधिनियम की धारा-16 के अनुसार, यदि कोई विद्यार्थी प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं कर पाता है तो भी, उसे अगली कक्षा में पदोन्नत करने से नहीं रोका जाएगा।
- पीठ ने कहा कि न्यायालयों को इस बात की जाँच करनी चाहिए कि क्या आर.टी.ई. की धारा-16 जैसे प्रावधान वैधानिक अधिकार हैं अथवा नहीं। न्यायालय ने कहा कि अल्पसंख्यक संस्थानों की कार्य प्रणाली आर.टी.ई. अधिनियम के अधीन न होकर संविधान में निहित मौलिक अधिकारों के अधीन हैं।
निष्कर्ष
- यह सही है ‘शिक्षा का अधिकार’ क़ानून एक बेहतर उद्देश्य से लाया गया था, किंतु निजी गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ इसकी भेदभावपूर्ण प्रकृति की पुनः जाँच किये जाने की आवश्यकता है। 93वें संविधान संशोधन अधिनियम तथा उसके बाद के न्यायिक निर्णयों से इन शिक्षण संस्थानों को हुई क्षति पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय को केरल उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए प्रगतिशील निर्णय से प्रेरणा लेनी चाहिये तथा प्रमति एजुकेशनल सोसाइटी में दिये गए अपने निर्णय की समीक्षा करनी चाहिये।