(प्रारम्भिक परीक्षा, सामान्य अध्ययन 2: स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित विषय।) |
संदर्भ
भारत में छात्रों में आत्महत्या बढ़ती प्रवृत्ति गंभीर चिंता का विषय है। हाल ही में आईसी3 इंस्टिट्यूट द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘स्टूडेंट सुसाइड : एन एपिडेमिक स्वीपिंग इंडिया’ के अनुसार, भारत में छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की दर कुल आत्महत्या प्रवृत्तियों और जनसंख्या वृद्धि से कहीं ज़्यादा है।
रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष
- छात्र आत्महत्या के बढ़ते मामले: रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल आत्महत्या के मामलों में वार्षिक आधार पर 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, वहीं छात्र आत्महत्या के मामलों में 4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
- जबकि छात्र आत्महत्या के मामलों की संभावित रूप से रिपोर्टिंग भी कम होती है।
- वर्ष 2021 में कुल आत्महत्या के मामले 164,033 और वर्ष 2022 में 170,924 दर्ज हुए, जिसने से छात्र आत्महत्या के मामले क्रमशः 13,089 और 13,044 थे।
- कुल आत्महत्याओं में से 7.6 प्रतिशत छात्र आत्महत्याएँ हैं, यह दर वेतनभोगी श्रमिकों, किसानों, बेरोजगार लोगों और स्व-रोज़गार वाले लोगों सहित कई अन्य व्यवसायों के लोगों के आत्महत्याओं के बराबर है।
- सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले वाले राज्य : रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022 में, छात्र आत्महत्या सबसे अधिक मामले महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश में दर्ज किए गएहैं।
- देश में कुल छात्र आत्महत्याओं के एक तिहाई मामले इन्हीं राज्यों में दर्ज किए गए हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश और झारखंड का स्थान है।
- दक्षिणी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सामूहिक रूप से ऐसे मामलों की संख्या 29 प्रतिशत है।
- राजस्थान, जिसका कोटा शहर अपने उच्च शैक्षणिक वातावरण के लिए जाना जाता है, 10वें स्थान पर है।
- आत्महत्या के मामले का लैंगिक विभाजन : वर्ष 2022 में, कुल छात्र आत्महत्याओं में 53 प्रतिशत पुरुष छात्र थे। वर्ष 2021 और 2022 के बीच, पुरुष छात्र आत्महत्याओं में 6 प्रतिशत की कमी आई, जबकि महिला छात्र आत्महत्याओं में 7 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
- रिपोर्ट के अनुसार, विगत एक दशक में, छात्र आत्महत्याओं में में तेज़ वृद्धि हुई है, जिसमें पुरुष आत्महत्याओं में 50 प्रतिशत और महिला आत्महत्याओं में 61 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
उच्च आत्महत्या दर के कारण
- शैक्षणिक दबाव : निरंतर बढ़ती प्रतिस्पर्धा और शैक्षणिक प्रदर्शन के लिए उच्च अपेक्षाएँ इस समस्या को और बढ़ाती हैं।
- माता-पिता की अपेक्षाएँ : कई छात्रों को उच्च शैक्षणिक सफलता प्राप्त करने या विशिष्ट कैरियर पथ अपनाने के लिए माता-पिता और समाज के दबाव का सामना करना पड़ता है, जिसका उनके मानसिक स्वास्थ्य गंभीर असर पड़ता हैं।
- मानसिक स्वास्थ्य कम ध्यान : मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में जागरूकता की कमी और इसे कलंक के रूप में देखा जाना छात्रों को मदद लेने से हतोत्साहित करता है।
- सामाजिक उदासीनता और साथियों का दबाव छात्रों में अलगाव और निराशा की भावना पैदा कर सकता है।
- संस्थागत साधनों की कमी : भारत में तनाव और भावनात्मक कठिनाइयों से निपटने के लिए आवश्यक सस्थागत साधनों कमी है। इसके अलावा बहुत कई छात्रों तक इसकी पहुँच भी सीमित है।
- अन्य कारक : परिवारों और शैक्षणिक संस्थानों से समर्थन की कमी, बदलती पारिवारिक संरचना, भावनात्मक उपेक्षा, संचार की कमी के कारण पता न चल पाने वाले मनोरोग विकार शामिल हैं, भी आत्महत्या की बढ़ती दरों के लिए जिम्मेदार हैं।
सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास
- राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (1982) : इसे छात्रों सहित पूरी आबादी के मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों को संबोधित करने के लिए शुरू किया गया है।
- इसका उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे और सेवाओं तक पहुँच में सुधार करना है।
- स्कूल मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम: स्कूल मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम जैसी पहल का उद्देश्य स्कूल के माहौल में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा और सहायता को एकीकृत करना है।
- आयुष्मान भारत के अंतर्गत स्कूल स्वास्थ्य कार्यक्रम के तत्वावधान में, एनसीईआरटी ने “प्रशिक्षण और संसाधन सामग्री : स्कूल जाने वाले बच्चों का स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती” शीर्षक से एक व्यापक पैकेज विकसित किया है।
- परामर्श सेवाएँ : स्कूलों को परामर्श सेवाएँ और मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम स्थापित करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं।
- जागरूकता अभियान : छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों के बीच मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कलंक को कम करने व जागरूकता बढ़ाने के लिए विभिन्न अभियान एवं कार्यक्रम शुरू किए गए हैं।
सुझाव
- मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा में वृद्धि : छात्रों को उनके मानसिक स्वास्थ्य को समझने और प्रबंधित करने में मदद करने के लिए स्कूल के पाठ्यक्रम में व्यापक मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा को शामिल किया जाना चाहिए।
- परामर्श सेवाओं तक बेहतर पहुँच : यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि प्रत्येक स्कूल में छात्रों की सहायता के लिए प्रशिक्षित परामर्शदाता और मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर उपलब्ध हों।
- माता-पिता का मार्गदर्शन और सहायता : माता-पिता को उनके बच्चों की मानसिक स्वास्थ्य आवश्यकताओं को प्रभावी ढंग से समझने और उनका समर्थन करने में मदद करने के लिए संसाधन और प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।
- नीतिगत सुधार : छात्रों पर अनुचित दबाव को कम करने और सीखने व मूल्यांकन के लिए अधिक समग्र दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए शैक्षिक नीतियों का पुनर्मूल्यांकन एवं सुधार जरूरी है।
- सहायता प्रणालियों को प्रभावी बनाना : सामुदायिक सहायता प्रणालियों को विकसित व मजबूत किया जाना चाहिए, यह स्कूल के वातावरण के बाहर मानसिक स्वास्थ्य संसाधन और सहायता प्रदान करती हैं।
- एंटी-बुलिंग कार्यक्रम : एक सुरक्षित और अधिक सहायक स्कूल वातावरण बनाने के लिए मजबूत एंटी-बुलिंग नीतियों का कार्यान्वयन और प्रवर्तन किए जाने की जरूरत है।