(प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय राजव्यवस्था और शासन- संविधान)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य)
संदर्भ
लोकतंत्र के संरक्षण के लिये बनाई गई संवैधानिक संस्थाओं में भारतीय न्यायपालिका का स्थान प्रमुख माना जाता है। राष्ट्र, नागरिकों तथा न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता को कमज़ोर करने से बचना चाहिये। फिर भी, इसमें कोई संदेह नहीं है कि न्यायपालिका को ‘भीतर और बाहर’ से चुनौती मिल रही है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- वर्ष 1993 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया के लिये चयन एक एकीकृत ‘सहभागी परामर्श प्रक्रिया’ के तहत होना चाहिये।
- सभी संवैधानिक पदाधिकारियों को सामूहिक रूप से इस कर्तव्य से एक सहमत निर्णय पर पहुँचना चाहिये ताकि संवैधानिक उद्देश्य को पूरा किया जा सके।
- साथ ही, यह भी कहा कि ऐसी कोई नियुक्ति तब तक नहीं की जा सकती, जब तक कि वह भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की राय के अनुरूप न हो।
- कॉलेजियम, जिसमें सी.जे.आई., उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं, यह सुनिश्चित करता है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय केवल उनकी व्यक्तिगत राय नहीं है, बल्कि एक सामूहिक राय है।
- उक्त निर्णय का मुख्य कारण न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संविधान के मूल ढाँचे तथा ‘विधि के शासन’ को सुरक्षित करने के लिये है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के संरक्षण के लिये आवश्यक है।
उच्चतम न्यायालय की राय
- न्यायालय ने घोषित किया था कि उक्त संवैधानिक प्रावधानों को पूरा करने के उद्देश्य से न्यायपालिका के पदाधिकारियों के परामर्श के बाद चयन करने के लिये सबसे उपयुक्त उपलब्ध लोगों में से सर्वश्रेष्ठ का चयन करना है।
- इसके अतिरिक्त कहा गया कि केवल उन्हीं व्यक्तियों को बेहतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति के लिये उपयुक्त माना जाना चाहिये, जो एक सक्षम, स्वतंत्र और निडर न्यायाधीश बनाने के आवश्यक गुणों को धारण करते हैं।
- इस प्रकार, न्यायिक व्याख्या द्वारा संविधान के अनुच्छेद 124 और 214 की पुन:व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय ने न्यायपालिका को कानून के शासन को सुरक्षित करने के लिये उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्तियाँ करने का अधिकार दिया।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरा
- हालाँकि, उपलब्ध लोगों में से सर्वश्रेष्ठ का चयन करने की बजाय अतीत में बार-बार समझौता किया गया है। आवश्यक योग्यताओं में कमी वाले उम्मीदवारों को नियमित रूप से नियुक्त किया गया है।
- 23 मई, 1949 को के.टी. शाह ने कहा, “मुझे लगता है कि यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि न्यायपालिका, जो नागरिक स्वतंत्रता का मुख्य कवच है, कार्यपालिका से पूरी तरह से अलग और स्वतंत्र होनी चाहिये, भले ही वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष”।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने सदन को आश्वस्त करते हुए कहा,“इस मामले में मैं पूरी तरह से सहमत हूँ कि उठाया गया मुद्दा महत्त्वपूर्ण है। सदन में इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि हमारी न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र होना चाहिये बल्कि अपने आप में सक्षम भी होनी चाहिये”।
- वर्ष 2016 के फैसले में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को खारिज करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों के अंतिम चयन और नियुक्ति में कार्यपालिका की किसी भी भूमिका को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया था।
- न्यायालय ने कहा था कि कार्यपालिका की पारस्परिकता और ‘पे बैक’ जैसी भावनाएँ न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये घातक होंगी।
निष्कर्ष
न्यायपालिका पर लंबित मुकदमों का भारी बोझ है। न्यायालयों से अपेक्षा है कि उन्हें अपनी सर्वोत्तम क्षमता और संवैधानिक दायित्व को पूरा करने के लिये निष्पक्ष होकर कार्य करना चाहिये।