18वीं लोक सभा के गठन के साथ ही लोक सभा के अध्यक्ष (स्पीकर) के पद के लिए राजस्थान के कोटा से सांसद ओम बिरला का ध्वनि मत से चयन किया गया।
स्पीकर लोक सभा का संवैधानिक एवं औपचारिक प्रमुख होता है। भारत में स्पीकर एवं डिप्टी स्पीकर की संस्थाएँ भारत सरकार अधिनियम, 1919 (मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार) के प्रावधानों के तहत वर्ष 1921 में सृजित की गई थी।
लोक सभा अध्यक्ष पद के लिए संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद 93: स्पीकर का चुनाव लोक सभा के सदस्यों में से किया जाता है। जब भी अध्यक्ष का पद रिक्त होता है, लोक सभा उस रिक्त स्थान को भरने के लिए किसी अन्य सदस्य का चुनाव करती है।
- अध्यक्ष का चुनाव सदन में साधारण बहुमत से होता है और वह लोक सभा के कार्यकाल के दौरान पद पर बना रहता है।
- अध्यक्ष बनने के लिए कोई विशिष्ट योग्यता नहीं होती है।
- हालांकि, अनुच्छेद 94 के अनुसार, निम्नलिखित मामलों में लोक सभा अध्यक्ष अपना पद छोड़ता है-
- उसकी लोक सभा सदस्यता समाप्त हो जाती है।
- उपाध्यक्ष को संबोधित करते हुए त्यागपत्र दे देता है।
- लोक सभा के समस्त तत्कालीन सदस्यों के बहुमत द्वारा पारित संकल्प द्वारा हटाए जाने पर।
- संविधान के अनुच्छेद 94 के अनुसार, 14 दिनों के नोटिस के साथ अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है।
- यदि कभी लोक सभा विघटित हो जाती है तो अध्यक्ष विघटन के पश्चात् लोक सभा की प्रथम बैठक से ठीक पहले तक अपना पद रिक्त नहीं करेगा।
अध्यक्ष की शक्तियाँ
- सदन का संचालन: स्पीकर लोक सभा के सत्रों की अध्यक्षता करने और बहस व चर्चा को व्यवस्थित एवं सम्मानजनक तरीके से आयोजित करने के लिए जिम्मेदार है।
- सदन के कामकाज के लिए नियम एवं प्रक्रियाएँ हैं, किंतु इन नियमों का पालन सुनिश्चित करने और प्रक्रियाओं को चुनने के संबंध में अध्यक्ष के पास व्यापक शक्तियाँ हैं।
- अध्यक्ष को व्यवस्था संबंधी मुद्दों पर निर्णय लेने तथा संसद् के नियमों को लागू करने का अधिकार है।
- सरकारी कार्य का संचालन अध्यक्ष द्वारा सदन के नेता के परामर्श से तय किया जाता है।
- सदस्यों द्वारा प्रश्न पूछने या किसी मामले पर चर्चा करने के लिए अध्यक्ष की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
- लोक सभा के प्रवक्ता के रूप में : अध्यक्ष को प्रायः लोक सभा का प्रतिनिधित्व करने तथा सार्वजनिक रूप से या अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में लोक सभा की ओर से बोलने के लिए बुलाया जाता है।
- प्रश्न एवं अभिलेख: अध्यक्ष किसी सदस्य द्वारा उठाए गए प्रश्न की स्वीकार्यता के साथ-साथ सदन की कार्यवाही के प्रकाशन को भी तय करता है।
- अध्यक्ष के पास असंसदीय टिप्पणियों (जिसका निर्धारण वह स्वयं करता है) को पूर्णतः या आशिक रूप से हटाने का अधिकार है।
- अंतिम व्याख्याकार: वह सदन के भीतर भारत के संविधान के प्रावधानों, लोक सभा की प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमों तथा संसदीय उदाहरणों की अंतिम व्याख्या करता है।
- कोरम: अध्यक्ष के पास कोरम के अभाव में सदन को स्थगित करने या बैठक को निलंबित करने की शक्ति होती है।
- सदन की बैठक आयोजित करने के लिए सदन की कुल सदस्य संख्या के दसवें हिस्से के बराबर सदस्यों की उपस्थिति होनी चाहिए।
- निर्णायक मत: संविधान के अनुच्छेद 100 (1) के अनुसार, अध्यक्ष प्रथम दृष्टया मतदान नहीं करता है किंतु, बराबरी की स्थिति में उसके द्वारा निर्णायक मत का प्रयोग किया जा सकता है।
- संयुक्त बैठक एवं गुप्त बैठक: वह दोनों सदनों की संयुक्त बैठक (अनुच्छेद 108) की अध्यक्षता करता है।
- लोक सभा में प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियम 248 (1) के अनुसार, सदन के नेता के अनुरोध पर लोक सभा अध्यक्ष द्वारा गुप्त बैठक बुलाई जा सकती है। अध्यक्ष सदन की गुप्त बैठक के लिए एक दिन या दिन का कुछ भाग निर्धारित कर सकते हैं।
- धन विधेयक को प्रमाणित करना: कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं, इस प्रश्न पर अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता है।
- सदस्यों की अयोग्यता पर निर्णय: दलबदल के आधार पर लोक सभा के किसी सदस्य की अयोग्यता के प्रश्न पर निर्णय लेने का अधिकार अध्यक्ष के पास होता है।
- हालाँकि, किहोतो होलोहन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यक्ष के निर्णय को न्यायिक समीक्षा के दायरे में ला दिया है।
संसदीय लोकतंत्र में अध्यक्ष की भूमिका
- लोक सभा की निष्पक्षता बनाए रखना : अध्यक्ष से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कर्तव्यों के निर्वहन में तटस्थ एवं निष्पक्ष रहे और लोक सभा के सभी सदस्यों के साथ निष्पक्ष व समान व्यवहार सुनिश्चित करे।
- लोक सभा की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना : अध्यक्ष यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है कि लोक सभा की कार्यवाही खुली और पारदर्शी हो तथा जनता को लोक सभा के कार्यों के बारे में जानकारी उपलब्ध हो।
- विधायी प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना: अध्यक्ष के पास कानून पारित करने से संबंधित कई कर्तव्य होते हैं, जिनमें शामिल हैं-
- विधेयकों को समितियों को सौंपना
- विधेयकों पर विचार करने के क्रम का निर्णय लेना
- राष्ट्रपति के समक्ष अनुमोदन के लिए प्रस्तुत करने से पहले विधेयकों के अंतिम पाठ (पाठन) को प्रमाणित करना
अध्यक्ष पद से संबंधित मुद्दे
- पक्षपात: ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ अध्यक्ष पर किसी विशेष राजनीतिक दल या विचारधारा के प्रति पक्षपातपूर्ण होने का आरोप लगाया जाता रहा है।
- ऐसे आरोपों से अध्यक्ष पद की विश्वसनीयता एवं निष्ठा कम हो सकती है।
- सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के समय अध्यक्ष की निष्पक्षता विपक्ष पर प्रभाव डालती है।
- विवेकाधिकार का प्रयोग: अध्यक्ष पर विवेकाधिकार का मनमाने या पक्षपातपूर्ण तरीके से प्रयोग करने का भी आरोप लगाया जाता रहा है।
- संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत अध्यक्ष की शक्ति की वास्तविकताएँ सदन के संचालन के तरीके से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
- बावनवें (संशोधन) अधिनियम, 1985 के माध्यम से संविधान में शामिल दसवीं अनुसूची या दल-बदल विरोधी कानून सदन के अध्यक्ष को किसी दल से 'दल-बदल' करने वाले सदस्य को अयोग्य घोषित करने की शक्ति प्रदान करता है। इससे निर्णय लेने की प्रक्रिया में अन्याय या पारदर्शिता की कमी की धारणा पैदा हुई है।
- वर्ष 1992 में ऐतिहासिक किहोतो होलोहान बनाम जाचिल्लु मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यक्ष में निहित शक्ति को बरकरार रखा और कहा कि केवल अध्यक्ष का अंतिम आदेश ही न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा।
- व्यवधानों से निपटना: अध्यक्ष, लोक सभा में व्यवस्था एवं शिष्टाचार बनाए रखने के लिए उत्तरदायी होता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ अध्यक्ष को लोक सभा में व्यवधानों से निपटने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है।
- ध्वनि मत एवं मत-विभाजन: जब सदन में सत्ता पक्ष की संख्या कम होती है तो अध्यक्ष मत-विभाजन के अनुरोध को नजरअंदाज करते हुए ध्वनि मत से किसी विधेयक को आगे बढ़ाने का प्रयास करता है।
अध्यक्ष पद को अधिक प्रभावी बनाने के लिए सुझाव
- निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए यूनाइटेड किंगडम में हाउस ऑफ कॉमन्स के अध्यक्ष को पद पर निर्वाचित होने के बाद पारंपरिक रूप से अपने राजनीतिक दल से इस्तीफा देना आवश्यक होता है।
- भारत में भी इस प्रावधान को लागू किया जा सकता है। नीलम संजीव रेड्डी पहले लोक सभा अध्यक्ष हैं जिन्होंने पद संभालने के बाद अपने राजनीतिक दल (कांग्रेस) से औपचारिक रूप से त्यागपत्र दे दिया था।
- कनाडा में स्पीकर को मंत्रियों को सदन में उपस्थित होकर प्रश्नों के उत्तर देने तथा सार्वजनिक सरोकार के मामलों की जाँच कराने के लिए बुलाने का अधिकार है।
- इससे कार्यपालिका पर अध्यक्ष की निगरानी की भूमिका बढ़ सकती है तथा उसे संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जा सकता है।