(प्रारम्भिक परीक्षा : राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, भारतीय राज्यतंत्र और लोकनीति तथा अधिकार सम्बंधी मुद्दे)
(मुख्या परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्त्व, जनसंख्या के अति सम्वेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ, इन अति सम्वेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय)
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय ने आरक्षण के लिये ‘अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों’ की केंद्रीय सूची के उप-वर्गीकरण पर कानूनी बहस को पुनः जन्म दे दिया है।
पृष्ठभूमि
उच्चतम न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने कहा है कि राज्यों द्वारा अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) की केंद्रीय सूची को ‘दुर्बल में दुर्बलतम लोगों’ को तरज़ीह देने के लिये उप-वर्गीकृत किया जा सकता है। हालाँकि, अंतिम निर्णय लेने के लिये यह मामला एक बड़ी पीठ को सौंप दिया गया। यह फैसला संविधान पीठ के ‘पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवा में आरक्षण) अधिनियम, 2006’ की एक धारा से सम्बंधित ‘विधि के प्रश्न’ पर आधारित है। यह कानूनी प्रावधान पंजाब राज्य में अनुसूचित जातियों के लिये आरक्षित सीटों का 50% वाल्मीकि और मज़हबी सिखों को आवंटित करने की अनुमति देता है।
ई.वी. चिन्नैया मामला
- वर्ष 2000 में आंध्र प्रदेश ने कुछ एस.सी. जातियों को उप-समूह में पुनर्गठित करते हुए एस.सी. कोटे को उप-विभाजित करने वाला एक कानून पारित किया।
- हालाँकि, बाद में उच्चतम न्यायालय ने ‘ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश व अन्य’ के फैसले में इस कानून को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि राज्यों को ‘अनुसूचित जाति के वर्ग के भीतर एक उपवर्ग’ बनाने की एकतरफ़ा अनुमति देना राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित सूची में छेड़छाड़ करने जैसा है।
- राज्यों को एस.सी. और एस.टी. जातियों की पहचान करने वाली राष्ट्रपति सूची के साथ छेड़छाड़ या उसमें फेरबदल करने की शक्ति नहीं है। संविधान सभी अनुसूचित जातियों को एक ‘एकल सजातीय समूह’ मानता है।
- पाँच सदस्यीय वर्तमान पीठ ने ई.वी. चिन्नैया मामले में पाँच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिये गए फैसले के विपरीत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। सामान संख्या की दो पीठों द्वारा विपरीत दृष्टिकोण रखने के कारण इस मुद्दे को सात-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया गया है।
- उल्लेखनीय है कि समान शक्ति (संख्या) वाली कोई पीठ पिछले फैसले को रद्द नहीं कर सकती है।
संवैधानिक प्रावधान
- SC और ST की केंद्रीय सूची संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के तहत राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित की जाती है।
- इस सूची में शामिल जातियों को बाहर करने या अन्य जातियों को शामिल करने के लिये संसद की सहमति आवश्यक है। संक्षेप में, राज्य एकतरफा इस सूची में जातियों को न तो जोड़ सकते हैं और न ही बाहर निकाल सकते हैं।
राष्ट्रपति सूची
- संविधान में SC और ST को समानता प्रदान करने के उद्देश्य से विशेष उपबंध किया गया है, परंतु मूल संविधान ऐसी जातियों और जनजातियों की पहचान नहीं करता है, जिन्हें SC और ST कहा जाए। यह शक्ति केंद्रीय कार्यकारी- राष्ट्रपति के पास है।
- सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2018-19 में देश में 1,263 अनुसूचित जातियाँ थी। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तथा लक्षद्वीप में किसी भी समुदाय को अनुसूचित जाति के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया गया है।
उप-वर्गीकरण के पक्ष में तर्क और जाति संघर्ष
- राज्यों का तर्क है कि सामान मात्रा में आरक्षण प्राप्त होने के बावज़ूद अनुसूचित जातियों में कुछ ऐसी जातियाँ हैं, जिनका प्रतिनिधित्त्व सकल रूप से अन्य अनुसूचित जातियों की तुलना में कम हैं। अनुसूचित जातियों के भीतर इस असमानता को कई रिपोर्टों में रेखांकित किया गया है और इसके लिये कुछ राज्यों द्वारा विशेष कोटा भी तैयार किया गया है।
- उदाहरण के लिये आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु और बिहार में सर्वाधिक कमज़ोर दलितों के लिये विशेष कोटे का प्रावधान किया गया। वर्ष 2007 में बिहार ने अनुसूचित जाति के भीतर पिछड़ी जातियों की पहचान करने के लिये ‘महादलित आयोग’ का गठन किया।
- तमिलनाडु की कुल एस.सी. जनसँख्या में अरुंधतियार जाति 16% है, जबकि नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्त्व केवल एक-तिहाई के आस-पास था। इनके लिये एस.सी. कोटा के भीतर ही 3% का कोटा प्रदान किया गया।
- इसके अलावा क्रीमी लेयर की अवधारणा का भी उदाहरण लिया जा सकता है। अदालत ने वर्ष 2018 में SCs के भीतर क्रीमी लेयर की अवधारणा को जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता के फैसले में सही ठहराया। केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 के फैसले की समीक्षा की माँग की है और मामला फिलहाल लम्बित है।
- क्रीमी लेयर की अवधारणा आरक्षण के लिये पात्र लोगों पर आय की अधिकतम सीमा लगाती है। यद्यपि यह अवधारणा अन्य पिछड़ी जातियों पर लागू होती है, परंतु वर्ष 2018 में पहली बार अनुसूचित जातियों की पदोन्नति के मामले में इसे लागू किया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आरक्षण ने आरक्षित जातियों के भीतर ही असमानताएँ पैदा कर दी हैं। आरक्षित वर्ग के भीतर एक ‘जाति संघर्ष’ है क्योंकि आरक्षण का लाभ कुछ ही लोगों द्वारा लिया जा रहा है।
- राज्य को पर्याप्त उपाय करने के लिये विभिन्न वर्गों के बीच गुणात्मक और मात्रात्मक अंतर करने की शक्ति से वंचित नहीं किया जा सकता है। अनुसूचित जातियों के बराबर प्रतिनिधित्त्व को सुनिश्चित करने के लिये यह आवश्यक है।
- राज्यों ने तर्क दिया है कि वर्गीकरण एक निश्चित कारण से किया जाता है और यह समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।
उप-वर्गीकरण के विरोध में तर्क
- यह तर्क दिया जाता है कि शैक्षिक पिछड़ेपन के परीक्षण की आवश्यकता को SC और ST पर लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि अस्पृश्यता से पीड़ित होने के कारण संविधान में उनके लिये विशेष उपबंध किया गया है, अत: इस सूची का उप-वर्गीकरण नहीं किया जाना चाहिये।
- ई.वी. चिन्नैया मामले में न्यायालय ने कहा कि सभी अनुसूचित जातियों में सामूहिक असमानता की परवाह किये बिना आरक्षण के लाभों को सामूहिक रूप प्रदान किया जाना चाहिये क्योंकि इनका संरक्षण शैक्षिक, आर्थिक या अन्य ऐसे कारकों पर नहीं बल्कि अस्पृश्यता पर आधारित है।
- इसका समर्थन करते हुए वर्ष 1976 के ‘केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस’ मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ‘अनुसूचित जातियाँ’ जाति नहीं बल्कि ‘वर्ग’ है।
उच्चतम न्यायालय का वर्तमान दृष्टिकोण
- न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति/केंद्रीय सूची के भीतर उप-वर्गीकरण करना इसमें ‘फेरबदल’ करने जैसा नहीं है क्योंकि इसके द्वारा किसी भी जाति को सूची से बाहर नहीं किया जा रहा है।
- राज्य केवल सांख्यिकीय आँकड़ों के आधार पर व्यावहारिक रूप से सबसे कमज़ोर समूहों को वरीयता दे सकते हैं।
- आरक्षण के लाभ का वितरण सुनिश्चित करने के लिये अधिक पिछड़ों को तरज़ीह देना भी समानता के अधिकार का एक पहलू है।
- जब आरक्षण स्वयं आरक्षित जातियों के भीतर असमानता पैदा करता है, तो इनका उप-वर्गीकरण करके राज्य द्वारा इस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है, जिससे राज्य की नीतियों का लाभ सभी को मिल सके और सभी को समान न्याय प्रदान किया जा सके।
निष्कर्ष
- सवाल यह है कि लाभ को निचले पायदान तक कैसे पहुँचाया जाए। यह स्पष्ट है कि जाति, व्यवसाय और गरीबी आपस में जुड़ी हुई है।
- इसके अलावा अदालत द्वारा जरनैल सिंह पर सुनाया गया फैसला इस तथ्य पर बल देता है कि इन जातियों के बीच भी सामाजिक असमानताएँ मौजूद हैं।
- यह निर्णय महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये क्रीमी लेयर अवधारणा का विस्तार करने का पूरी तरह से समर्थन करता है।
- नागरिकों को सदा के लिये सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हुआ नहीं माना जा सकता है और आरक्षण का लाभ पाकर आगे बढ़ चुके लोगों और समूहों को क्रीमी लेयर की तरह बाहर रखा जाना चाहिये।
- सामाजिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखे बिना सामाजिक परिवर्तन और समता का संवैधानिक लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है।