प्रारंभिक परीक्षा: 22 वां विधि आयोग, धारा 124 ए मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : शासन व्यवस्था, संविधान, शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय |
चर्चा में क्यों?
- 22वें विधि आयोग ने सरकार को अपनी रिपोर्ट में कहा है कि राजद्रोह से निपटने वाली भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए को बनाए रखने की जरूरत है, लेकिन इसके उपयोग के संबंध में अधिक स्पष्टता के लिए कुछ संशोधन किए जा सकते हैं।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि राजद्रोह कानून का 'औपनिवेशिक विरासत' होना निरस्त करने का वैध आधार नहीं है, लेकिन इसके (धारा 124ए) के दुरुपयोग को देखते हुए, आयोग ने सिफारिश की है कि केंद्र, प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा इसके गलत प्रयोग को रोकने के लिए मॉडल दिशा-निर्देश जारी करे।
- इस संदर्भ में, वैकल्पिक रूप से यह भी सुझाव दिया गया है कि आईपीसी की धारा 124ए के तहत अपराध के संबंध में प्राथमिकी दर्ज करने से पहले, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 [सीआरपीसी] की धारा 196(3) के अनुरूप एक प्रावधान को सीआरपीसी की धारा 154 के परंतुक के रूप में शामिल किया जा सकता है, जो अपेक्षित प्रक्रियात्मक सुरक्षा प्रदान करेगा।
राजद्रोह कानून : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
परिभाषा
- इस कानून का मसौदा वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार व राजनेता थॉमस बबिंगटन मैकाले ने तैयार किया था। इसके तहत राजद्रोह को परिभाषित किया गया था।
- इसके अनुसार- “यदि कोई शब्दों द्वारा या तो मौखिक या लिखित या संकेतों के माध्यम से या दृश्य निरूपण द्वारा या अन्य प्रकार से भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा फैलाता है या उसकी अवमानना करता है या उत्तेजना व असंतोष को प्रेरित करता है या ऐसा करने का प्रयास करता है तो उस पर राजद्रोह का कानून आरोपित किया जा सकता है”।
ब्रिटिशकालीन स्थिति
- मूल रूप से भारतीय दंड सहिंता, 1860 में राजद्रोह की धारा नहीं थी। वर्ष 1870 में संशोधन कर आई.पी.सी. में धारा 124ए के रूप में जोड़ा गया था।
- वर्ष 1898 में संशोधन के द्वारा 'असंतोष' शब्द को अधिक परिभाषित किया गया और इसमें 'विश्वासघात' और 'शत्रुता की भावना' को भी शामिल किया गया।
- ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा प्राथमिक तौर पर इसका प्रयोग प्रमुख भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन कार्यों और भाषणों को प्रतिबंधित करने के लिये किया गया था।
- इसके तहत महात्मा गांधी (वर्ष 1922), लोकमान्य तिलक (वर्ष 1898) और जोगेंद्र चंद्र बोस (वर्ष 1892) जैसे नेताओं पर ब्रिटिश शासन पर उनकी टिप्पणियों के लिये राजद्रोह कानून के तहत मुकदमा चलाया गया।
दंड की वर्तमान स्थिति
- भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के अनुसार राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है। इसमें जुर्माने के साथ तीन वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है। इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी से भी वंचित कर दिया जाता है और सरकार उसका पासपोर्ट जब्त कर लेती है।
- उल्लेखनीय है कि यूनाइटेड किंगडम ने वर्ष 2010 में राजद्रोह को समाप्त कर दिया था। हालाँकि, इसके कुछ हिस्से में राजद्रोह से संबंधित अन्य कानूनों में मौजूद हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का मत
- वर्ष 2021 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि राजद्रोह एक औपनिवेशिक कानून है और यह स्वतंत्रता का दमन करता है।
- उनके अनुसार ‘आई.पी.सी. की इस धारा के अंतर्गत दोषसिद्धि की दर बहुत कम है और कार्यकारी एजेंसियों द्वारा इसका दुरुपयोग किया जाता है।
- हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1962 के केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मामले में आई.पी.सी. की धारा 124ए की संवैधानिकता को बरकरार रखा था। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1995) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि बिना किसी विद्वेषपूर्ण इरादे के केवल ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ जैसे नारे लगाना राजद्रोह नहीं है।
निष्कर्ष
- विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के कारण भारत में वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
- अतः देश विरोधी अभिव्यक्तियों/विचारों और सरकारी नीतियों के विरुद्ध अभिव्यक्तियों/विचारों में अंतर किया जाना आवश्यक है।
- जीवंत लोकतंत्र के लिये सार्वजनिक बहस आवश्यक तत्व है।
- अत: धारा 124ए का दुरुपयोग वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिये नहीं किया जाना चाहिये।
- बदलती हुई परिस्थितियों में इसकी आवश्यकता की समीक्षा और राजद्रोह की परिभाषा में संशोधन की ज़रूरत है।
- साथ ही, इस तरह की गतिविधियों से निपटने के लिये ‘विधिविरूद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम’ (UAPA) जैसे क़ानूनों के प्रयोग पर भी विचार किया जा सकता है।
22वां विधि आयोग
- 22वें विधि आयोग का गठन 21 फरवरी, 2020 को तीन साल की अवधि के लिए किया गया था और इसके अध्यक्ष, न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) ऋतुराज अवस्थी ने नौ नवंबर, 2022 को पदभार ग्रहण किया।
- द्रीय मंत्रिमंडल ने भारत के 22वें विधि आयोग के कार्यकाल को 31 अगस्त, 2024 तक बढ़ाने की मंजूरी दी है।
- इसकी संरचना निम्नानुसार है:
(क) एक पूर्णकालिक अध्यक्ष;
(ख) चार पूर्णकालिक सदस्य (सदस्य-सचिव सहित)
(ग) पदेन सदस्य के रूप में विधि कार्य विभाग के सचिव;
(घ) पदेन सदस्य के रूप में विधायी विभाग के सचिव और
(ङ) अंशकालिक सदस्य पांच से अधिक नहीं।
- विधि आयोग, विस्तारित अवधि के दौरान अपनी मौजूदा जिम्मेदारी का निर्वहन करना जारी रखेगा, जैसा कि उसे दिनांक 21 फरवरी 2020 के आदेश द्वारा सूचित किया गया है, जिसमें अन्य बातों के अलावा, निम्न शामिल हैं: -
(क) उन कानूनों की पहचान करना, जो अब प्रासंगिक नहीं हैं और अप्रचलित तथा अनावश्यक अधिनियमों को निरस्त करने की सिफारिश करना;
(ख) नीति-निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने और संविधान की प्रस्तावना में निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक नए कानूनों को बनाने का सुझाव देना;
(ग) कानून और न्यायिक प्रशासन से संबंधित किसी भी विषय पर विचार करना और सरकार को अपने विचारों से अवगत कराना, जिसे विधि और न्याय मंत्रालय (विधि कार्य विभाग) के माध्यम से सरकार द्वारा विशेष रूप से संदर्भित किया गया हो;
(घ) विधि और न्याय मंत्रालय (विधि कार्य विभाग) के माध्यम से सरकार द्वारा किसी भी विदेशी देश के बारे में शोध प्रदान करने के अनुरोध पर विचार करना;
(ङ) समय-समय पर सभी मुद्दों, मामलों, अध्ययनों और आयोग द्वारा किए गए शोधों पर रिपोर्ट तैयार करना और केंद्र सरकार को प्रस्तुत करना और संघ या किसी राज्य द्वारा किए जाने वाले प्रभावी उपायों के लिए ऐसी रिपोर्टों की सिफारिश करना; और
(च) केंद्र सरकार द्वारा समय-समय पर सौंपे गए ऐसे अन्य कार्यों का निर्वहन करना।