New
IAS Foundation New Batch, Starting from 27th Aug 2024, 06:30 PM | Optional Subject History / Geography | Call: 9555124124

भारत की मिट्टियाँ

  • भारत में भिन्न-भिन्न प्रकार के उच्चावच, भूआकृति. जलवायु परिमंडल तथा वनस्पतियाँ पाई जातीं हैं। 
  • इन्होने भारत में अनेक प्रकार की मिट्टियों के विकास में योगदान दिया है।
  • उत्पत्ति, रंग, संयोजन तथा अवस्थिति के आधार पर भारत की मिट्टियों को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:
    • जलोढ़ मृदा 
    • काली मृदा 
    • लाल और पीली मृदा 
    • लैटेराइट मृदा 
    • शुष्क मृदा 
    • लवण मृदा 
    • पीट मृदा 
    • वन मृदा

जलोढ़ मृदा 

  • जलोढ़ मृदा उत्तरी मैदान और नदी घाटियों के विस्तृत भागों में पाई जाती हैं।
  • ये मृदा  देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 40 प्रतिशत भाग में पाई जाती हैं।
  • इनका निर्माण हिमालय पर्वत और पठार से निकलने वाली नदियों द्वारा बहाकर लाई गयी गाद और बालू के लगातार जमाव से हुआ है।
  • इसमें पोटाश की मात्रा अधिक और फॉस्फोरस की मात्रा कम पाई जाती है। 
  • इसे गंगा के ऊपरी और मध्यवर्ती मैदान में 'खादर' और 'बांगर' नाम की दो भिन्न मृदा में विभाजित किया जाता है। 
  • खादर प्रतिवर्ष बाढ़ों के द्वारा निक्षेपित होने वाला नया जलोढ़क है, जो महीन गाद होने के कारण मृदा की उर्वरता बढ़ा देता है। 
  • बांगर पुराना जलोढ़क होता है जिसका जमाव बाढ़कृत मैदानों से दूर होता है। 
  • खादर और बांगर मृदाओं में कंकड़ पाए जाते हैं। 
  • निम्न तथा मध्य गंगा के मैदान और ब्रह्मपुत्र घाटी में ये मृदा  अधिक दोमट और मृण्मय हैं। 
  • पश्चिम से पूर्व की ओर इसमें बालू की मात्रा घटती जाती है।
  • जलोढ़ मृदाओं का रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है। 
  • इसका रंग निक्षेपण की गहराई, जलोढ़ के गठन और निर्माण में लगने वाली समयावधि पर निर्भर करता है। 
  • जलोढ़ मृदा पर गहन कृषि की जाती है।
  • इसमें धान, गेहूँ, गन्ना, दलहन, तिलहन आदि फसलों की खेती होती हैं। 

काली मृदा 

  • काली मृदा  दक्कन के पठार के अधिकतर भाग पर पाई जाती हैं। 
  • इसमें महाराष्ट्र के कुछ भाग, गुजरात, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल हैं। 
  • गोदावरी और कृष्णा नदियों के ऊपरी भागों और दक्कन के पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में गहरी काली मृदा पाई जाती है। 
  • इन मृदाओं को 'रेगर' तथा 'कपास वाली काली मृदा ' भी कहा जाता है। 
  • आमतौर पर काली मृदा  मृण्मय, गहरी और अपारगम्य होती हैं।
  •  ये मृदा  गीले होने पर फूल जाती हैं और चिपचिपी हो जाती हैं, सूखने पर ये सिकुड़ जाती हैं। 
  • इस प्रकार शुष्क ऋतु में इन मृदाओं में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। 
  • इस समय ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इनमें 'स्वतः जुताई' हो गई हो। 
  • नमी के धीमे अवशोषण और नमी के क्षय की इस विशेषता के कारण काली मृदा में एक लम्बी अवधि तक नमी बनी रहती है।
  • इसके कारण फसलों को, विशेष रूप से वर्षाधीन फसलों को, शुष्क ऋतु में भी नमी मिलती रहती है और वे फलती फूलती रहती हैं।
  • रासायनिक दृष्टि से काली मृदाओं में चूने, लौह, मैग्नीशिया तथा ऐलुमिना के तत्त्व काफी मात्रा में पाए जाते हैं। 
  • इनमें पोटाश की मात्रा भी पाई जाती है। 
  • लेकिन इनमें फ़ॉस्फोरस, नाइट्रोजन और जैव पदार्थों की कमी होती है। 
  • इस मृदा का रंग गाढ़े काले से लेकर स्लेटी रंग के बीच का होता है।

लाल और पीली मृदा

  • लाल मृदा का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ रवेदार आग्नेय चट्टानें पाई जाती हैं। 
  • फेरस आक्साइड के कारण यह लाल रंग की दिखाई देता है और पीला रंग फेरिक आक्साइड के कारण दिखाई देता है।
  • पश्चिमी घाट के गिरिपद क्षेत्र की एक लंबी पट्टी में लाल दोमट मृदा पाई जाती है। 
  • पीली और लाल मृदा  ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भागों और मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में पाई जाती है। 
  • इस मृदा का लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है। 
  • जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई पड़ती है। 
  • महीने कणों वाली लाल और पीली मृदा  सामान्यतः उर्वर होती हैं। 
  • इसके विपरीत मोटे कणों वाली उच्च भूमियों की मृदा  अनुर्वर होती हैं। 
  • इनमें सामान्यतः नाइट्रोजन, फ़ॉस्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है।

लैटेराइट मृदा

  • लैटेराइट एक लैटिन शब्द 'लेटर' से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ईंट होता है। 
  • लैटेराइट मृदा  उच्च तापमान और भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं। 
  • ये मृदा  उष्ण कटिबंधीय वर्षा के कारण हुए तीव्र निक्षालन का परिणाम हैं। 
  • वर्षा के साथ चूना और सिलिका तो निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड और एल्यूमीनियम के यौगिक से भरपूर मृदा  शेष रह जाती हैं। 
  • उच्च तापमानों में आसानी से पनपने वाले जीवाणु ह्यूमस की मात्रा को तेजी से नष्ट कर देते हैं। 
  • इन मृदाओं में जैव पदार्थ, नाइट्रोजन, फॉस्फेट और कैल्सियम की कमी होती है तथा लौह-ऑक्साइड और पोटाश की अधिकता होती है। 
  • लैटेराइट मृदा  कृषि के लिए पर्याप्त उपजाऊ नहीं होती हैं। 
  • फसलों के लिए उपजाऊ बनाने के लिए इन मृदाओं में खाद और उर्वरकों की भारी मात्रा डालनी पड़ती है।
  • तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिए लाल लैटेराइट मृदा अधिक उपयुक्त हैं।
  • मकान बनाने के लिए लैटेराइट मृदाओं का प्रयोग ईंटें बनाने में किया जाता है। 
  • इन मृदाओं का विकास मुख्य रूप से प्रायद्वीपीय पठार के ऊँचे क्षेत्रों में हुआ है। 
  • लैटराइट मृदा  सामान्यतः कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश तथा ओडिशा और असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं।

शुष्क मृदा

  • यह मृदा पश्चिमी राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, पश्चिमी हरियाणा और दक्षिणी पंजाब में पायी जाती है। 
  • इन क्षेत्रों में इस मृदा के पाए जाने का सीधा संबन्ध वहाँ पर विद्यमान मरुस्थलीय एवं अर्ध-मरुस्थलीय दशाओं का होना तथा छः महीनों तक जल की अनुपलब्धता है।
  • शुष्क मृदाओं का रंग लाल से लेकर गहरा लाल तक होता है।
  •  ये सामान्यतः संरचना में बलुई और प्रकृती से लवणीय होती हैं। 
  • कुछ क्षेत्रों की मृदाओं में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है कि इनके पानी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है। 
  • शुष्क जलवायु, उच्च तापमान और तीव्रगति से वाष्पीकरण के कारण इन मृदाओं में नमी और ह्यूमस कम होते हैं। 
  • इनमें नाइट्रोजन अपर्याप्त और फॉस्फेट सामान्य मात्रा में होती है। 
  • नीचे की ओर चूने की मात्रा के बढ़ते जाने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ो की परतें पाई जाती हैं। 
  • मृदा के तली संस्तर में कंकड़ों की परत के बनने के कारण पानी का रिसाव सीमित हो जाता है। 
  • इसलिए सिंचाई किए जाने पर इन मृदाओं में पौधों की सतत् वृद्धि के लिए नमी सदा उपलब्ध रहती है। 
  • ये मृदा  अनुर्वर हैं क्योंकि इनमें ह्यूमस और जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं।

लवण मृदा 

  • ऐसी मृदाओं को ऊसर मृदा  भी कहते हैं। 
  • इन मृदाओं में सोडियम, पौटेशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है। 
  • ये अनुर्वर होती हैं और इनमें किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं उगती। 
  • मुख्य रूप से शुष्क जलवायु और खराब अपवाह के कारण इनमें लवणों की मात्रा बढ़ती जाती है। 
  • ये मृदा  शुष्क और अर्ध-शुष्क तथा जलाक्रांत क्षेत्रों और अनूपों में पाई जाती हैं। 
  • इनकी संरचना बलुई से लेकर दोमट तक होती है। 
  • इनमें नाइट्रोजन और चूने की कमी होती है। 
  • लवण मृदाओं का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिमी बंगाल के सुंदर वन क्षेत्रों में है। 
  • कच्छ के रन में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के साथ नमक के कण आते हैं, जो एक पपड़ी के रूप में ऊपरी सतह पर जमा हो जाते हैं। 
  • डेल्टा प्रदेश में समुद्री जल के भर जाने से लवण मृदाओं के विकास को बढ़ावा मिलता है। 
  • अत्यधिक सिंचाई वाले गहन कृषि के क्षेत्रों में, विशेष रूप से हरित क्राँति वाले क्षेत्रों में, उपजाऊ जलोढ़ मृदा  भी लवणीय होती जा रही हैं। 
  • इसे विभिन्न स्थानीय नामों से भी जाना जाता है जैसे रेह, कल्लर, ऊसर, राकर, धुर, कार्ल और चोपन इत्यादि।
  • शुष्क जलवायु वाली दशाओं में अत्यधिक सिंचाई केशिका क्रिया को बढ़ावा देती है। 
  • इसके परिणामस्वरूप नमक ऊपर की ओर बढ़ता है और मृदा की सबसे ऊपरी परत में नमक जमा हो जाता है। 
  • इस प्रकार के क्षेत्रों में. विशेष रूप में पंजाब और हरियाणा में मृदा की लवणता की समस्या से निबटने के लिए जिप्सम डालने की सलाह दी जाती है।

पीट मृदा 

  • ये मृदा  भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता से युक्त उन क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहाँ वनस्पति की वृद्धि अच्छी हो। 
  • इन क्षेत्रों में मृत जैव पदार्थ बड़ी मात्रा में इकट्ठे हो जाते हैं, जो मृदा को ह्यूमस और पर्याप्त मात्रा में जैव तत्त्व प्रदान करते हैं। 
  • इन मृदाओं में जैव पदार्थों की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत तक होती है। 
  • ये मृदा  सामान्यतः गाढ़े और काले रंग की होती हैं। 
  • अनेक स्थानों पर ये क्षारीय भी होती है। 
  • ये मृदा  अधिकतर बिहार के उत्तरी भाग, उत्तराचंल के दक्षिणी भाग, पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों, उड़ीसा और तमिलनाडु में पाई जाती हैं।

वन मृदा

  • ये मृदाएँ पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों में ही बनती हैं। 
  • इन मृदाओं का निर्माण पर्वतीय पर्यावरण में होता है। 
  • इस पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं का गठन और संरचना बदलती रहती हैं। 
  • घाटियों में ये दोमट होती हैं तथा ऊपरी ढालों पर ये मोटे कणों वाली होती हैं। 
  • हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इन मृदाओं का अनाच्छादन होता रहता है और ये अम्लीय और कम ह्यूमस वाली होती हैं। 
  • निचली घाटियों में पाई जाने वाली मृदाएँ उर्वर होती हैं।
Have any Query?

Our support team will be happy to assist you!

OR