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विशेष अनुमति याचिका और अदालती सुधार

(प्रारम्भिक परीक्षा: भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य)

पृष्ठभूमि

महामारी ने जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया है। कई क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन देखे गए हैं। इसमें न्यायालयों और अधिकरणों की कार्य-पद्धति में बदलाव भी शामिल है। न्यायपालिका ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से तत्काल व आवश्यक मामलों की सुनवाई की है। इस समय अदालतों के आई.टी. ढाँचे में बुनियादी सुधार करने और वीडियो कॉन्फ्रेंस के ज़रिये सुनवाई किये जाने से सम्बंधित कई सुझाव दिये जा रहे हैं। हालाँकि इन सब मुद्दों के बीच विशेष अनुमति याचिकाओं की बढ़ती संख्या एक बड़ा मुद्दा है।

विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petitions (SLPs))

  • भारतीय न्याय व्यवस्था में एस.एल.पी. का प्रमुख स्थान है। इनका प्रयोग केवल उन मामलों में किया जाता है, जब किसी याचिका में कानून का कोई ठोस प्रश्न शामिल हो अथवा किसी निर्णय, आदेश या डिक्री में कोई घोर अन्याय दृष्टव्य हो।
  • सैन्य अधिकरणों व कोर्ट मार्शल को छोड़कर अन्य किसी न्यायालयों व अधिकरणों द्वारा दिये गये किसी निर्णय, आदेश या डिक्री के ख़िलाफ़ याचिका की विशेष अनुमति उच्चतम न्यायलय द्वारा प्रदान की जाती है। इस प्रकार, यह एक अपील नहीं बल्कि एक अपील के लिये दायर याचिका है। याचिका स्वीकृत होने के बाद अपील में बदल जाती है।
  • यह उच्चतम न्यायालय की एक प्रकार की विवेकाधीन शक्ति है। अनु. 136 में इसका उल्लेख किया गया है। कोई भी एस.एल.पी. के लिये अधिकार के रूप के इसका दावा नहीं कर सकता है।
  • उच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय के विरुद्ध 90 दिनों के भीतर एस.एल.पी. दायर की जा सकती है।

अपील बनाम एस.एल.पी.

  • अपील हमेशा किसी न्यायालय के अंतिम निर्णय के विरुद्ध की जाती है, जबकि एस.एल.पी. किसी भी निर्णय के विरुद्ध की जा सकती है, चाहे निर्णय अंतरिम हो या अंतिम।
  • अपील हमेशा पदानुक्रम (सोपानिक) में नीचे से उससे ऊपर के न्यायालय में की जाती है, सीधे उच्च या उच्चतम न्यायालय में में अपील नहीं की जा सकती है। एस.एल.पी. किसी भी अदालत के निर्णय के विरुद्ध सीधे उच्चतम न्यायालय में दायर की जा सकती है।

ट्रायल कोर्ट बनाम अपीलीय कोर्ट (परीक्षण-स्तर न्या. बनाम अपीलीय-स्तर न्या.)

  • ट्रायल कोर्ट वे न्यायालय होते हैं जहाँ किसी मामले की शुरूआत होती हैं। ट्रायल कोर्ट में दोनों पक्ष साक्ष्य और गवाह पेश करते हैं जबकि अपीलीय अदालतों में, कोई गवाह और साक्ष्य नहीं पेश किया जाता है। अपीलीय अदालतों में अधिवक्ता कानूनी और नीतिगत मुद्दों पर बहस करते हैं। ट्रायल कोर्ट में अधिवक्ता साक्ष्य और कानूनी तर्क प्रस्तुत करते हैं।
  • दोनों अदालतों के बीच दूसरा अंतर न्यायाधीशों का है। ट्रायल कोर्ट में, जज तय करता है कि किस साक्ष्य का प्रयोग किया जा सकता है और किसका नहीं, जो अधिकतर मामलों के नतीजे तय करता है। अपीलीय अदालतें कानून के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती हैं न की ट्रायल कोर्ट की तरह तथ्यों के सवालों पर।
  • यदि कोई व्यक्ति ट्रायल कोर्ट में केस हार जाता है, तो उसके पास आमतौर पर अपील दायर करने का पूर्ण वैधानिक अधिकार होता है। ट्रायल कोर्ट कोई एक निश्चित अदालत नहीं हो सकती है, अदालत का स्तर अपराध की गम्भीरता या मुकदमे के मूल्य पर निर्भर करता है।

प्रणाली में बदलाव और सुधार की आवश्यकता

  • अधीनस्थ सिविल अदालतों और उच्च न्यायालयों में, दैनिक कार्यवाही में अत्यधिक समय व्यतीत हो जाता है। कई प्रक्रियागत मामलों में केवल जवाब दाखिल करने आदि के लिये ही आगे की तारीख (स्थगन) की माँग कर ली जाती है। इस समस्या को प्रणाली में सुधार करके दूर या समाप्त किया जा सकता है।
  • अदालतों द्वारा तत्काल अंतरिम हस्तक्षेप की आवश्यकता वाले मामलों को ही न्यायालयों के समक्ष सूचीबद्ध किया जाना चाहिये, जबकि प्रक्रियागत कारणों से लम्बित मामलों में लिखित या मौखिक आवेदन पर किसी न्यायिक अधिकारी या न्यायाधीश द्वारा तत्काल सुनवाई की आवश्यकता के सत्यापन के बाद ही इसे सूचीबद्ध किया जाना चाहिये।
  • नये मामलों से अलग, सीमित मात्रा में ही केवल उन मामलों को पोस्ट किया जाए जो बहस के लिये पूरी तरह से तैयार हों। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि कोर्ट रूम में भीड़ न हो। सुनवाई किये जाने वाले मामलों को पहले से सूचीबद्ध किया जाना (जैसे, लिस्टिंग के दो सप्ताह पहले) चाहिये, जिससे अधिवक्ताओं को पक्षों से जानकारी प्राप्त करने और तर्क के लिये तैयार होने हेतु पर्याप्त समय मिल जाएगा।
  • उच्चतम न्यायालय नियम,2013 में विशेष अनुमति याचिकाओं (Special Leave Petitions-एस.एल.पी.) से सम्बंधित प्रावधानों में संशोधन किया जाना चाहिये। संविधान का अनुच्छेद 136 उच्चतम न्यायालय को विवेकानुसार, लोगों को किसी भी न्यायिक या अर्ध-न्यायिक प्राधिकरण के निर्णय की अपील के लिये याचिका दायर करने की विशेष इजाजत दे सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय, सार्वजानिक महत्त्व के मामलों पर क़ानूनी सवाल उठने अथवा उच्च न्यायालयों या अधिकरणों द्वारा दिये गए किसी ऐसे निर्णय जिसमें न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की ज़रुरत महसूस होती है, ‘विशेष अनुमति याचिकाओं’ को दायर करने की अनुमति दे सकता है। इस प्रावधान का दुरूपयोग वर्षों से होता आ रहा है।
  • इसके अलावा, किसी मामलें में कानून के किसी ठोस प्रश्न के शामिल होने या किसी निर्णय या डिक्री आदि में घोर अन्याय की स्थिति में भी विशेष अनुमति याचिकाओं को दायर करने की अनुमति दी जा सकती हैं। विशेष अनुमति याचिकाओं की इज़ाजत देना एक प्रकार से उच्चतम न्यायालय की अवशिष्ट शक्ति कही जा सकती हैं।
  • उच्चतम न्यायालय का प्रमुख उद्देश्य अपीलीय न्यायालय बनने का नहीं था। उच्च न्यायालयों को आम तौर पर अपीलीय मामलों में अंतिम अदालत माना जाता है। बावजूद इसके, अब विशेष अनुमति याचिकाओं को अंतिम दौर के अपील के रूप में माना जा रहा है।
  • उच्चतम न्यायालय में दायर की गई कुल एस.एल.पी. का 80 से 90 % ख़ारिज कर दिया जाता हैं, जिसका मतलब है की केवल 10 से 20 % एस.एल.पी. ही कानून के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों से सम्बंधित होती हैं। इससे न्यायालय का काफी समय बर्बाद होता है।
  • ऐसी कई एस.एल.पी. होती है जिसमें कानून का कोई विशेष प्रश्न नहीं उठाया जाता है या तुच्छ प्रश्नों को उठाया जाता है। ऐसी एस.एल.पी. के मामलें में अपीलकर्ता पर लागत मूल्य के आरोपण के साथ मौखिक सुनवाई के बिना खारिज कर दिया जाना चाहिये । इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि केवल योग्य एस.एल.पी. को ही न्यायिक रूप से स्वीकृत किया जाए और लोगों को बेवजह एस.एल.पी. दाखिल करने से रोका जा सके।
  • यह लम्बित मामलों की संख्या को तेजी से कम करेगा, जिससे न्यायालयों के समय को बचाया जा सकता है। न्यायालयों के इस अतिरिक्त समय का प्रयोग संविधान की व्याख्या करने, कानूनों की संवैधानिक वैधता की जाँच करने या कार्यकारी क्रियाओं से सम्बंधित वैधानिक अपील और मामलों की सुनवाई करने में किया जा सकता है।

उपाय

  • इसके लिये एक ऐसी प्रणाली तैयार करने की आवश्यकता है जहाँ मामलों को अदालत के सामने तब तक सूचीबद्ध न किया जा सके, जब तक कि सभी दस्तावेज एक तय और सख्त समय सीमा के भीतर फाइल न किये जाए, साथ ही प्रत्येक प्रक्रियागत नियमों का पालन नहीं किया गया हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मौजूदा बुनियादी ढाँचा ऐसी प्रणाली को विकसित करने के लिये पर्याप्त है।
  • विशेष अनुमति याचिकाओं से सम्बंधित एक सरल समाधान यह होगा कि एस.एल.पी. की तत्काल मौखिक सुनवाई की जाए। उच्चतम न्यायालय के नियमों में संशोधन किया जा सकता है ताकि एस.एल.पी. की पूर्व सुनवाई का ढाँचा तैयार हो सके।
  • एस.एल.पी. के मामलों में समय की बर्बादी को कम करने के लिये न्यायालय की सहायता करने हेतु, योग्य वकीलों से बने न्यायिक सहायकों का एक कैडर बनाया जाना चाहिये। ये सहायक प्रत्येक एस.एल.पी. के लिये अनुच्छेद 136 के अनुसार कानून के महत्वपूर्ण प्रश्नों को तैयार कर सकते हैं। इन प्रश्नों के अनुसार न्यायालय मौखिक सुनवाई के लिये याचिकाओं को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है। केवल ऐसी एस.एल.पी. जिसमें मौखिक सुनवाई की अनुमति दी गई है, सुनवाई के लिये सूचीबद्ध होनी चाहिये ।

अपील के लिये कोई जबाब दाखिल न करना

  • यहाँ तक की वैधानिक अपील के मामलों में और ऐसी एस.एल.पी. जिसकी सुनवाई की अनुमति प्रदान कर दी जाती है, न्यायालय को ऐसे अपील का जवाब दाखिल करने या प्रत्युत्तर करने की प्रणाली को खत्म किया जाना चाहिये । अधीनस्थ न्यायालयों के रिकॉर्ड के आधार पर हर मामले का फैसला किया जा सकता है।
  • चूँकि अपील पर सुनवाई के दौरान न्यायालय के समक्ष तथ्यों पर आधारित कोई नया तर्क नहीं पेश किया जा सकता है अतः अतिरिक्त वाद या बहस दाखिल करने की प्रणाली को निरर्थक घोषित किया जाना चाहिये, क्योंकि वाद या बहस अधीनस्थ न्यायालयों के रिकार्डों का ही सीधा पुनर्स्थापन है।
  • इस तरह की अधिकांश अपील न्यायाधीशों और उनके शोध सहायकों के समक्ष प्रस्तुत की जा सकती है और केवल ऐसी अपीलों की विस्तृत सुनवाई की जानी चाहिये जहाँ न्यायाधीशों को स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है।
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