New
IAS Foundation Course (Prelims + Mains): Delhi & Prayagraj | Call: 9555124124

श्रीलंकाई संविधान में संशोधन और भारत

(प्रारम्भिक परीक्षा: राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिकघटनाएँ; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2: विषय –भारत एवं इसके पड़ोसी- सम्बंध।भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)

  • नवम्बर 2019 के राष्ट्रपति चुनाव और अगस्त 2020 के आम चुनावों में महिंदा राजपक्षे की जीत के बाद श्रीलंका के संविधान के दो प्रमुख विधान सुर्खियों में आ गए हैं।हाल ही में, श्रीलंका सरकार ने देश में 20वें संविधान संशोधन का प्रस्ताव रखा है, जिस वजह से सत्तारूढ़ दल को दल के अंदर व बाहर दोनों तरफ विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
  • ध्यातव्य है कि श्रीलंका सरकार संविधान में 20वें संशोधन के माध्यम से वर्ष 2015 में किये गए 19वें संविधान संशोधन में बदलाव लाने की इच्छुक है।
  • अगर यह संविधान संशोधन होता है तो श्रीलंका की राजनीतिक परिस्थितियाँ बदल जाएंगी और वर्ष 1987 का 13वाँ संविधान संशोधन खतरे में पड़ सकता है और यह भारत के लिये चिंता की बात भी है।

श्रीलंकाई संविधान में20 वाँ संशोधन:

  • विदित है कि 2 सितम्बर, 2020 को श्रीलंका सरकार ने अपने देश के संविधान में संशोधन का एक मसौदा प्रस्तावित किया था, जिसके माध्यम से 19वें संविधान संशोधन के उन प्रावधानों को बदलने के लिये विधायी प्रक्रिया शुरू की गई है, जो देश में राष्ट्रपति की शक्तियों पर अंकुश लगाते हैं या राष्ट्रपति की निरंकुशता पर रोक लगाने की बात करते हैं।
  • गौरतलब है कि लगभग 42 वर्ष पूर्व श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री जे.आर. जयवर्धने द्वारा लागू किये गए संविधान में यह 20वाँ संशोधन होगा। राजपक्षे सरकार ने पहले ही 20वें संशोधन का मसौदा तैयार कर लिया है।
  • श्रीलंका सरकर द्वारा प्रस्तावित इस संविधान संशोधन में संवैधानिक परिषद के स्थान पर संसदीय परिषद लाने का प्रावधान किया गया है। यह इसलिये किया गया है क्योंकि वर्तमान प्रावधानों के अनुसार चूँकि संवैधानिक परिषद द्वारा लिये गए निर्णय राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी हैं, प्रस्तावित संसदीय परिषद के निर्णय राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी नहीं रहेंगे।
  • इसके अलावा अब संविधान संशोधन के माध्यम से, प्रधानमंत्री के मुख्य मंत्रिमंडल और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर करेगी जबकि पूर्व में इसके लिये राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह लेना आवश्यक था।
  • प्रस्तावित संशोधन में यह भी उपबंध किये गए हैं कि संसद की एक वर्ष की अवधि समाप्त होने के बाद राष्ट्रपति उसे किसी भी समय भंग कर सकता है।
  • इसके अलावा प्रस्तावित संशोधन में एक और बदलाव किया गया है जिसके द्वारा संसद के समक्ष किसी भी विधेयक को प्रस्तुत करने से पूर्व आम जनता के लिये उस विधेयक को प्रकाशित करने की अवधि जो पूर्व में 14 दिन थी, उसे घटाकर 7 दिन कर दिया गया है।

20वें संविधान संशोधन की आलोचना:

  • श्रीलंका के संविधान व कानून विशेषज्ञों द्वारा सरकार पर आरोप लगाया गया है कि इस संविधान संशोधन के माध्यम से सरकार देश की उन संवैधानिक संस्थाओं के राजनीतिकरण का प्रयास कर रही है, जिनका गठन आम नागरिकों के कल्याण के लिये किया गया था जिसमें किसी भी प्रकार की राजनीति अपेक्षित नहीं थी।
  • विशेषज्ञों का कहना है कि इस संशोधन के द्वारा न सिर्फ देश के लोकतांत्रिक मूल्यों पर असर पड़ेगा बल्कि सरकार की जवाबदेही भी कम हो जाएगी।
  • गौरतलब है कि श्रीलंका के विपक्षी दलों ने इस संविधान संशोधन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की बात की है।
  • ध्यातव्य है कि संविधान संशोधन के लिये प्रस्तवित विधेयक को उच्चतम न्यायालय के अवलोकन के पश्चात् एक-तिहाई बहुमत के द्वारा संसद में पारित किया जा सकता है और वर्तमान सरकार के पास इस संशोधन के पारित करने के लिये पर्याप्त बहुमत है।

श्रीलंका का 19वाँ संविधान संशोधन:

  • संविधान संशोधन को वर्ष 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के कार्यकाल (2015-19) के दौरान संसद में पारित किया गया था। ऐसा माना जाता है कि इस संविधान संशोधन के माध्यम से वर्ष 2010 में लाए गए 18वें संशोधन को निरस्त करने का प्रयास किया गया था।
  • गौरतलब है कि जहाँ 18वें संविधान संशोधन द्वारा लगभग सभी शक्तियाँ राष्ट्रपति के पास केंद्रित थीं वहीँ 19वें संविधान संशोधन के माध्यम से राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित कर दिया गया था।
  • इसके अलावा एक महत्त्वपूर्ण कदम के तहत 19वें संविधान संशोधन के द्वारा चुनाव आयोग, राष्ट्रीय पुलिस आयोग, मानवाधिकार आयोग, वित्त आयोग और श्रीलंका के लोक सेवा आयोग समेत 9 आयोगों में होने वाली नियुक्ति की समस्त प्रक्रियाओं को विकेंद्रीकृत भी कर दिया गया था।

13वाँ संशोधन क्या है?

  • 1987 में पारित 13वाँ संविधान संशोधन,श्रीलंका के नौ प्रांतों को संचालित करने के लिये स्थापित प्रांतीय परिषदों को शक्ति हस्तांतरण की बात करता है।
  • यह जुलाई 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते का एक परिणाम है, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धने ने जातीय संघर्ष और गृहयुद्ध को सुलझाने व श्रीलंकाई तमिलों की सुरक्षा और संरक्षण को और सुदृढ़ करने के प्रयास में हस्ताक्षर किये थे।इस समझौते का प्रमुख उद्देश्य श्रीलंका के तत्कालीन पूर्वोत्तर प्रांत (तमिल बहुल क्षेत्र) में राजनीतिक शक्तियों का हस्तांतरण था।
  • 13वें संशोधन (जिसके कारण प्रांतीय परिषदों का निर्माण हुआ) के द्वारा सिंहल बहुसंख्यक क्षेत्रों सहित देश के सभी नौ प्रांतों को स्वशासन के लिये सक्षम करने के लिये एक शक्ति-साझाकरण व्यवस्था का आश्वासन दिया गया।इसके बाद वहाँ प्रांतीय परिषद का गठन हुआ था।
  • शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, आवास, भूमि और पुलिस जैसे विषय प्रांतीय प्रशासन के लिये रखे गए थे।
  • लेकिन वित्तीय शक्तियों पर प्रतिबंध और राष्ट्रपति द्वारा पारित नियमों को कभी भी बदल देने की शक्ति के कारण, प्रांतीय प्रशासन बहुत अधिक प्रगति नहीं कर पाए हैं।
  • विशेष रूप से, पुलिस और भूमि से सम्बंधित प्रावधानों को कभी लागू नहीं किया जा सका है।

13वाँ संविधान संशोधन और विवाद?

  • 13वाँ संशोधन देश के गृह युद्ध के वर्षों से ही काफी चर्चा में रहा है। इसका सिंहली राष्ट्रवादी दलों और लिट्टे दोनों ने मुखर विरोध किया था।
  • चूँकि यह संशोधन भारत के हस्तक्षेप के द्वारा नए कानून के रूप में सामने आया, इसलिये अधिकांश सिंहली राष्ट्रवादी 13वें संविधान संशोधन का विरोध करते हैं क्योंकि वो इसे भारत द्वारा अधिरोपित मानते हैं। इसके अलावा सिंहली राष्ट्रवादी 13वें संविधान संशोधन के समस्त प्रावधानों को तमिल अलगाववाद को प्रोत्साहित करने वाला मानते हैं।
  • इसके अलावा तमिल राजनीति से जुड़े लोग,विशेष रूप से इसके प्रमुख राष्ट्रवादी तत्त्व 13वें संशोधन को कानून के रूप में पर्याप्त नहीं मानते हैं। यद्यपि उनमें से कुछ इसे एक महत्त्वपूर्ण शुरुआती बिंदु के रूप में देखते हैं, जिसे आगे एक नए कानून के रूप में नई दिशा दी जा सकती है।

13वाँ संशोधन महत्वपूर्ण क्यों है?

  • यह संशोधन दीर्घ काल से लम्बित तमिलों से जुड़े सवाल के उत्तर के रूप में एकमात्र संवैधानिक प्रावधान के रूप में जाना जाता है।
  • हस्तांतरण की प्रक्रिया के आश्वासन के अलावा यह 1980 के दशक के बाद से बढ़ते सिंहल-बौद्ध अधिनायकवाद के सामने एक महत्त्वपूर्ण राजनैतिक लाभांश की प्राप्ति माना जाता है।
Have any Query?

Our support team will be happy to assist you!

OR