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अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उप-वर्गीकरण

(मुख्य परीक्षा :सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र- 2 : भारतीय संविधान—ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना।)

संदर्भ

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने दविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि आरक्षण के लिए अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) का उप-वर्गीकरण किया जा सकता है।
  • शीर्ष न्यायालय ने ई.वी. चिन्नैया मामले के अपने फैसले की समीक्षा की, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्य विधानसभाएं प्रवेश और सार्वजनिक नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकृत नहीं कर सकती हैं।

वर्तमान फैसले के प्रमुख बिंदु 

  • अनुसूचित जातियाँ कोई समरूप समूह नहीं है। एससी/एसटी के सदस्य अक्सर व्यवस्थागत भेदभाव के कारण आगे नहीं बढ़ पाते हैं। अतः अनुच्छेद 14 जाति के उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है।
  • सरकारें अनुसूचित जाति के बीच अधिक भेदभाव झेलने वाले लोगों को 15% आरक्षण में अधिक भार देने के लिए उन्हें उपवर्गीकृत कर सकती हैं। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब और तमिलनाडु जैसे राज्यों में उप-वर्गीकरण की अनुमति देने वाले कानूनों की वैधता की पुष्टि की है।
  • राज्य एस.सी. और एस.टी. श्रेणी में क्रीमी लेयर की पहचान करने और उन्हें सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण) के दायरे से बाहर निकालने के लिए नीतियां  विकसित कर सकता है।
  • आरक्षण किसी श्रेणी में केवल पहली पीढ़ी के लिए होना चाहिए।
  • अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जातियों की पहचान करने के विशेष अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। 
  • उप-वर्गीकरण करने की राज्यों की शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है।

एस.सी. और एस.टी. उप-वर्गीकरण से तात्पर्य

  • उप-वर्गीकरण का अर्थ है अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उनके सापेक्ष पिछड़ेपन के आधार पर उप-समूहों में विभाजित करना। 
    • साथ ही उप-वर्गीकरण के अनुरूप अनुसूचित जातियों के लिए 15% और अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% के समग्र आरक्षण के भीतर विभेदक आरक्षण प्रदान करना।
  • इस प्रकार के उप-वर्गीकरण को “कोटा के भीतर कोटा” या “आरक्षण के भीतर आरक्षण” के रूप में भी जाना जाता है।
  • इस विचार का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आरक्षण का लाभ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सबसे वंचित और बहिष्कृत समूह तक पहुंचे, जिन्हें अक्सर “दलितों के बीच दलित” या “आदिवासियों के बीच आदिवासी” कहा जाता है।

उप-वर्गीकरण की आवश्यकता

  • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में समरूपता नहीं हैं, बल्कि इनके अंतर्गत विभिन्न जातियाँ और जनजातियाँ शामिल हैं, जिनमें सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन की अलग-अलग डिग्री है।
  • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कुछ समूह (उप-जातियाँ) दूसरों की तुलना में आरक्षण के लाभों तक अधिक पहुँच बनाने में सक्षम रही हैं, जिसके कारण इन समूहों के भीतर एक ‘क्रीमी लेय’ या ‘कुलीन वर्ग’ का निर्माण हुआ है।
  • इसके परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में सबसे कमजोर और वंचित वर्ग और अधिक हाशिए पर चले गए हैं, जिसके कारण उन्हें जो लगातार भेदभाव, हिंसा और गरीबी का सामना करना पड़ रहा है।
  • उप-वर्गीकरण का उद्देश्य इस अंतर-समूह असमानता को दूर करना और यह सुनिश्चित करना है कि आरक्षण नीति अधिक न्यायसंगत और समावेशी हो।

उप-वर्गीकरण का कानूनी आधार

  • भारत का संविधान एस.सी. और एस.टी. के उप-वर्गीकरण पर रोक नहीं लगाता है, बल्कि इन समूहों के कल्याण के लिए कानून बनाने को संसद और राज्य विधानमंडलों के विवेक पर छोड़ता है।
    • अनुच्छेद 341- 342 के तहत संविधान राष्ट्रपति और संसद को यह अधिकार देता है कि ये राज्य/केंद्रशासित क्षेत्र में किसी समूह को एस.सी. अथवा  एस.टी. की सूची में शामिल या अपवर्जित कर सकता है। 
    • संविधान का अनुच्छेद 16(4) राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों में आरक्षण प्रदान करने का अधिकार देता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों की शक्ति को भी मान्यता दी है कि वे प्रासंगिक आंकड़ों और उनके पिछड़ेपन के अनुभवजन्य साक्ष्य के आधार पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उप-वर्गीकरण कर सकते हैं।
  • शीर्ष न्यायालय ने ई.वी. चिन्नैया मामले में अपने ही फैसले को खारिज कर दिया है, जिसमें 2000 में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण को खारिज कर दिया गया था। 
    • न्यायालय ने माना है कि चिन्नैया मामले में गलत निर्णय लिया गया था और इसमें जमीनी हकीकत और सामाजिक न्याय के संवैधानिक जनादेश पर विचार नहीं किया गया था।

उप-वर्गीकरण के निहितार्थ

  • उप-वर्गीकरण का देश की सार्वजनिक सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में एस.सी. और एस.टी. के प्रतिनिधित्व और सशक्तिकरण पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।
  • इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है कि एस.सी. और एस.टी. के अंतर्गत आरक्षण के लिए सबसे योग्य और जरूरतमंद वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व मिले और वे सामाजिक सीढ़ी में सबसे नीचे न रहें।
  • यह एससी और एसटी की विविधता और समावेशिता को भी बढ़ावा देगा और कुछ जातियों और जनजातियों द्वारा आरक्षण लाभों के वर्चस्व और एकाधिकार को रोकेगा।
  • इससे एस.सी. और एस.टी. को आपस में प्रतिस्पर्धा करने और अपने प्रदर्शन व योग्यता में सुधार करने के लिए प्रोत्साहित मिलेगा।

उप-वर्गीकरण में चुनौतियाँ

  • सटीक आंकड़ों का अभाव: उप-वर्गीकरण के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विभिन्न उप-समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और शैक्षिक प्राप्ति पर विश्वसनीय और अद्यतन आंकड़ों के संग्रह और विश्लेषण की आवश्यकता होगी। 
  • आरक्षण की राजनीति : इस निर्णय से पिछड़ी जातियों के बीच आरक्षण के राजनीतिकरण होने की प्रबल सम्भावना है।
    • समानता के सिद्धांत और एस.सी. और एस.टी. की एकता के उल्लंघन के तर्क पर इसे उप-वर्गीकरण के विरोधियों से उत्पन्न होने वाली कानूनी और राजनीतिक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ सकता है।
  • विभिन्न हितधारकों की सहमति की आवश्यकता : इसके लिए एस.सी. और एस.टी. के परामर्श और आम सहमति की भी आवश्यकता होगी, जिनके उप-वर्गीकरण के मुद्दे पर अलग-अलग विचार और हित हो सकते हैं।
    • इसे आरक्षण के मौजूदा लाभार्थियों और उप-वर्गीकरण के नए लाभार्थियों के हितों के बीच संतुलन बनाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि समग्र आरक्षण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 50% की सीमा से अधिक न हो।
  • सामुदायिक विभाजन की चुनौती : इससे समाज में पिछड़े समुदायों के बीच सामाजिक विभाजन में वृद्धि हो सकती है।
    • साथ ही इससे उप-वर्गीकरण के लिए सटीक पहचान और दस्तावेज़ प्राप्त करने में जटिलताएँ पैदा हो सकती है।

निष्कर्ष

  • उप-वर्गीकरण सामाजिक न्याय तथा एस.सी. और एस.टी. के सशक्तिकरण के संवैधानिक दृष्टिकोण को साकार करने की दिशा में एक प्रगतिशील और व्यावहारिक कदम है। 
  • इसे एक लोकतांत्रिक और सहभागी प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है जिसमें आरक्षण नीति के निर्माण और कार्यान्वयन में एस.सी. और एस.टी. की सक्रिय भागीदारी और प्रतिनिधित्व शामिल है।
  • एक गतिशील और विकसित अवधारणा के रूप में एस.सी. और एस.टी. की बदलती जरूरतों और परिस्थितियों के आधार पर नीतियों की निरंतर समीक्षा और संशोधन भविष्य की राह मजबूती प्रदान करते हैं।
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