(प्रारंभिक परीक्षा : न्यायपालिका से संबंधित प्रश्न)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 – न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य पर आधारित प्रश्न)
संदर्भ
- हाल ही में, नौ न्यायाधीशों को, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में शपथ दिलाई गई, जो अभी तक न्यायाधीशों के एक साथ शपथ लेने वालों की सबसे बड़ी संख्या है।
- शपथ लेने वाले नए न्यायाधीशों में एक तिहाई महिला न्यायाधीश हैं। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय में कुल 33 न्यायाधीशों में 4 महिला न्यायाधीश शामिल हो गईं हैं।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति
- संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217 के माध्यम से क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित प्रावधान है।
- इसके तहत, राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय और राज्यों में उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात्, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिये परामर्श करना आवश्यक समझे, नियुक्ति करने की शक्ति प्राप्त है।
- वर्षों से, "परामर्श" शब्द न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका की शक्ति पर बहस के केंद्र में रहा है।
- व्यवहार में, कार्यपालिका ने स्वतंत्रता के बाद से यह शक्ति धारण की और भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के लिये, वरिष्ठता की एक परिपाटी को विकसित किया।
- हालाँकि यह 1980 के दशक में उच्चतम न्यायालय के मामलों की एक शृंखला में बदल गया। जिसमें न्यायपालिका ने अनिवार्य रूप से नियुक्ति की शक्ति को अपने पास रख लिया।
नियुक्ति से संबंधित मामले
- न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य टकराव, वर्ष 1973 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों को छोड़कर, न्यायमूर्ति ए. एन. रे को भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में नियुक्त करने के पश्चात् प्रारंभ हुआ।
- वर्ष 1981, 1993 और 1998 में तीन मामले सामने आए, जिन्हें ‘न्यायाधीशों के मामलों’ के रूप में जाना जाता है। इसमें उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली विकसित की।
- इस प्रणाली में, सी.जे.आई. की अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों के समूह द्वारा आगामी सी.जे.आई. की नियुक्ति के लिये राष्ट्रपति को सिफ़ारिश की जाती है।
- ‘प्रथम न्यायाधीशों के मामले’ में ‘एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981) में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि राष्ट्रपति को न्यायाधीशों की नियुक्ति में सी.जे.आई. की "सहमति" की आवश्यकता नहीं है।
- इस फैसले ने नियुक्तियों में कार्यपालिका की श्रेष्ठता की पुष्टि की, लेकिन 12 वर्ष पश्चात् एक अन्य मामले में इस फ़ैसले को पलट दिया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने ‘एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (1993) मामले’ में, नौ-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिये 'कॉलेजियम प्रणाली' विकसित की।
- न्यायालय ने रेखांकित किया कि संविधान के पाठ से विचलन, कार्यपालिका से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अखंडता की रक्षा करना था।
- वर्ष 1998 में, तत्कालीन राष्ट्रपति ने "परामर्श" शब्द के अर्थ पर शीर्ष न्यायालय को संदर्भ जारी किया कि क्या सी.जे.आई. की राय बनाने में कई न्यायाधीशों के साथ "परामर्श" की आवश्यकता है या सी.जे.आई. की स्वयं ही गठित एकमात्र राय "परामर्श" हो सकती है।
- इस पर निर्णय द्वारा राष्ट्रपति को सिफारिशें करने के लिये कॉलेजियम में एक कोरम और बहुमत वोट की स्थापना की गई।
- वर्ष 2014 में, एन.डी.ए. सरकार ने 99 वें संविधान संशोधन के माध्यम से ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ की स्थापना करके न्यायिक नियुक्तियों पर नियंत्रण वापस लेने का प्रयास किया।
- हालाँकि, न्यायालय ने इस संशोधन को असंवैधानिक करार दिया और नियुक्ति में अपनी सर्वोच्चता को बनाए रखा।
उच्चतम न्यायालय में न्यायधीशों की संख्या एवं उनका निर्धारण
- वर्तमान में, उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश सहित 34 न्यायाधीश हैं। जबकि वर्ष 1950 में, न्यायालय की स्थापना के दौरान इसमें मुख्य न्यायाधीश सहित 8 न्यायाधीश शामिल थे।
- न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने की शक्ति संसद के पास है, जिसने ‘उच्चतम न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) अधिनियम’ के माध्यम से न्यायधीशों की संख्या को बढ़ाकर वर्ष 1956 में 11, वर्ष 1960 में 14, वर्ष 1978 में 18, वर्ष 1986 में 26, वर्ष 2009 में 31 और वर्ष 2019 में 34 कर दिया है।
न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी का कारण
- उच्च न्यायालयों में औसतन 30 प्रतिशत से अधिक रिक्तियाँ मौज़ूद हैं।
- उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों के लिये सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष और उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के लिये 62 वर्ष है। इसके विपरीत अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जीवन भर सेवारत रहते हैं।
- इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया एक सतत प्रक्रिया है।
- साथ ही, कॉलेजियम प्रणाली बहु-चरणीय प्रक्रिया पर आधारित है, यहाँ तक कि न्यायपालिका ने स्वयं के द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये जो समय-सीमा निर्धारित की है, उस पर भी उसकी जवाबदेही बहुत कम है।
- उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियों की प्रक्रिया उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा प्रारंभ की जाती है।
- इसके पश्चात् फाइल को राज्य सरकार, केंद्र सरकार और फिर उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम को भेजी जाती है। तब अनुशंसित उम्मीदवारों पर खुफिया जानकारी एकत्र की जाती है।
- इस प्रक्रिया में अक्सर एक साल से भी अधिक का समय लग जाता है। एक बार जब उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा नामों को मंजूरी दे दी जाती है, उसके उपरांत अंतिम अनुमोदन और नियुक्ति के लिये सरकारी स्तर पर देरी भी होती है।
- हालाँकि, यदि सरकार चाहती है कि कॉलेजियम सिफारिश पर पुनर्विचार करे, तो फाइल वापस भेज दी जाती है और कॉलेजियम अपने फैसले को दोहरा भी सकता है या वापस ले सकता है।
महिला न्यायाधीशों की स्थिति
- उच्चतम न्यायलय में जाति और लिंग के संदर्भ में प्रतिनिधित्व का अभाव एक अहम मुद्दा रहा है।
- हाल में हुई नियुक्तियों से पहले, न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी उच्चतम न्यायालय में एकमात्र महिला न्यायाधीश थीं।
- न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना स्वतंत्रता के 80 वर्ष पश्चात् भारत की पहली महिला सी.जे.आई. बनने की कतार में हैं।
- वर्ष 1989 में जस्टिस फातिमा बी.वी. उच्चतम न्यायलय में नियुक्त होने वाली पहली महिला न्यायाधीश बनीं।
- हालाँकि उच्चतम न्यायालय में केवल 11 महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई। जिसमें हाल ही में नियुक्त तीन महिला न्यायाधीश भी शामिल हैं।
- ‘विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी’ द्वारा वर्ष 2018 के एक अध्ययन में कहा गया है कि निचले न्यायलयों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 27 प्रतिशत से अधिक है, लेकिन उन्होंने ज़िला न्यायाधीशों के बाद की उच्च नियुक्तियों में प्रतिनिधित्व की कमी को महसूस किया है।