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नारकोटिक्स मामले में स्वीकारोक्ति पर उच्चतम न्यायालय का आदेश

(प्रारंभिक परीक्षा- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, लोकनीति)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : स्वास्थ्य)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में ऐतिहासिक निर्णय देते हुए आदेश दिया है कि नशीले पदार्थों के सेवन और तस्करी सम्बंधी मामलों में ‘स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम’ (NDPS) की धारा 67 के तहत जाँच अधिकारियों के समक्ष आरोपियों द्वारा दिये गए बयान का उन्हें दोषी ठहराने के लिये साक्ष्य के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। इसे मूल अधिकारों के संदर्भ में समानता और आत्म-दोषारोपण के खिलाफ संरक्षण (अनुच्छेद-20) का उल्लंघन माना जाएगा।

निर्णय की पृष्ठभूमि

  • उल्लेखनीय है कि वर्ष 2013 में उच्चतम न्यायालय ने ‘तूफान सिंह बनाम तमिलनाडु राज्य’ के इस मामले को एक बड़ी पीठ को सौंप दिया था।
  • न्यायपीठ ने अपने निर्णय में कहा है कि एन.डी.पी.एस. अधिनियम की धारा 53 के तहत किसी अधिकारी के समक्ष दिये गए गोपनीय बयान यदि किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के आधार के रूप में उपयोग किये जाते हैं, तो वह "संवैधानिक गारंटी का प्रत्यक्ष उल्लंघन" होगा।
  • वर्तमान में न्यायालय का यह फैसला कई मामलों, जिसमें कथित ड्रग्स मामले की जाँच नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) द्वारा की जा रही है, के संदर्भ में साक्ष्यों को प्रभावित करेगा।
    विवाद के संदर्भ में न्यायालय का वर्तमान पक्ष
  • ध्यातव्य है कि न्यायालयों के पूर्व फैसलों में पुलिस अधिकारी और उनके समक्ष दिये गए बयानों की स्वीकारोक्ति के संदर्भ में विपरीत राय देखी गई है। चूंकि एन.डी.पी.एस. अधिनियम की धारा 53 के तहत अधिकारियों को ‘पुलिस अधिकारी’ के रूप में परिभाषित नहीं किया जाता है, लेकिन उन्हें ‘एक थाने के प्रभारी अधिकारी’ की शक्तियाँ दी जाती हैं, इसलिये उन्हें दिये गए बयान साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होने चाहिये।
  • उच्चतम न्यायालय ने इस सन्दर्भ में "पुलिस अधिकारी" की परिभाषा को विस्तारित करते हुए कहा है कि पुलिस अधिकारियों से तात्पर्य केवल राज्य पुलिस बल से सम्बंधित पुलिस अधिकारी ही नहीं है, बल्कि अन्य विभागों से सम्बंधित ऐसे अधिकारी भी इसमें शामिल हो सकते हैं।
  • विदित है कि आतंकवाद और विघटनकारी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (TADA) निरसित तथा आतंकवाद निरोधक अधिनियम, 2002 (POTA) सहित अन्य विशेष अधिनियम के अंतर्गत पुलिस अधिकारियों के समक्ष स्वीकारोक्तिपूर्ण बयानों को न्यायालय ने कई मामलों में साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया है किंतु न्यायालय के अनुसार इन अधिनियमों में रक्षोपाय निहित हैं।
  • एन.सी.बी. द्वारा विशिष्ट औषधि-रोधी जाँच एजेंसी में अधिकारियों को केंद्रीय उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क, राजस्व खुफिया निदेशालय, सहित सरकार के विभिन्न विभागों से प्रतिनियुक्त किया जा सकता है।

न्यायपीठ में असहमति

इस पीठ में शामिल न्यायमूर्ति बनर्जी ने अपनी असहमति व्यक्त करते हुए अवैध मादक पदार्थों की तस्करी को, जिसमें कठोर अपराधी शामिल हों, एक संगठित अपराध माना है। उनके अनुसार इन मामलों में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत पर अधिक बल देना अपराधियों के भयमुक्त होने का प्रमुख कारण हो सकता है। उन्होंने कहा कि तकनीक पर अधिक निर्भरता के कारण दोषी अपराधियों को बिना दंड के (Scot Free) जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

  • स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 में लाया गया था, जिसे वर्ष 2014 में संशोधित किया गया था। नशीले पदार्थों के सेवन से बढ़ते खतरों के कारण वर्ष 1998 में राष्ट्रीय मादक द्रव्य निवारण संस्थान (NCDAP) की स्थापना की गई जिससे मादक द्रव्य नियंत्रण ब्यूरो की भूमिका और व्यापक कर दी गई तथा इसे मादक द्रव्यों की माँग में कमी लाने का काम सौंपा गया ।
  • एन.डी.पी.एस.एक्ट, 1985 की धारा 71 के तहत सरकार को नशीली दवा के आदी लोगों की पहचान, इलाज और पुनर्वास केंद्र की स्थापना का अधिकार प्रदान करता है। उल्लेखनीय है कि सामाजिक न्याय एवं आधिकारिकता मंत्रालय, नोडल एजेंसी के रूप में शराब और मादक द्रव्य दुरुपयोग निवारण योजना के तहत स्वैच्छिक संगठनों द्वारा चलाए जा रहे एकीकृत पुनर्वास केंद्र को सहायता प्रदान कर रहा है।

प्री फैक्ट :

अनुच्छेद-20 : अपराधों के लिये दोष सिद्धि के सम्बंध में संरक्षण-

(1) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिये तब तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किये जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी।
(2) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिये एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा।
(3) किसी अपराध के लिये अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।

आतंकवाद (निवारण) अधिनियम, 2002 (POTA)-

देश में आतंकवाद पर अकुंश लगाने के उद्देश्य से आतंकवाद (निवारण) अधिनियम, (POTA) को लागू किया गया था। इसे अध्यादेश के रूप में लाया गया जो 2 अप्रैल, 2002 को राष्ट्रपति के अनुमोदन के साथ एक अधिनियम के रूप में अस्तित्व में आया।

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