(प्रारंभिक परीक्षा- संविधान, लोकनीति, अधिकारों संबंधी मुद्दे)
मुख्य परीक्षा सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2- केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ, संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व)
संदर्भ
मई के प्रथम सप्ताह में उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रदत्त मराठा आरक्षण को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
न्यायालय का निर्णय
- न्यायालय ने माना कि मराठों का ‘सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि’ से पिछड़े वर्ग के रूप में वर्गीकरण अनुचित था, क्योंकि वे महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधन-युक्त होने के साथ-साथ राजनीतिक रूप से भी प्रभावशाली हैं।
- न्यायालय ने यह भी निष्कर्ष दिया कि ‘इंद्रा साहनी मामले’ में बहुमत की राय सही थी और जाति-आधारित आरक्षण के लिये 50 प्रतिशत की सीमा को एक बड़ी खंडपीठ द्वारा विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
- न्यायालय ने जाति-आधारित आरक्षण पर ‘निश्चित मात्रात्मक सीमा’ को यह कहते हुए उचित ठहराया कि यह समानता के मूलभूत सिद्धांत के लिये स्वाभाविक है।
- यह मान लिया गया कि 50 प्रतिशत की अधिक सीमा ‘अंधेरे में छलाँग होगी तथा यह ‘जाति शासन’ पर आधारित समाज की ओर ले जाएगा।
- अनारक्षित वर्गों के हितों की रक्षा करने की आवश्यकता और एक ‘अनुमान’ पर ज़ोर देते हुए की स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद से सभी वर्गों ने प्रगति की है।
- न्यायालय ने राज्य के इस तर्क को खारिज कर दिया कि 50 प्रतिशत सीमा का उल्लंघन ज़रूरी है क्योंकि पिछड़े वर्गों की आबादी 80 प्रतिशत से अधिक है।
आय की बढ़ती असमानता
- वर्ष 2011-12 में, मराठों की औसत प्रति व्यक्ति आय केवल ब्राह्मणों (₹47,427) के बाद ₹36,548 थी। मराठा जाति के उच्चतम समूह (जाति समूह का 20 प्रतिशत) के प्रति व्यक्ति आय का औसत ₹86,750 था।
- मराठा के सबसे निम्न समूह की आय 10 गुना कम (₹7,198) है और 40 प्रतिशत इस जाति के सबसे गरीबों की कुल आय, उच्च वर्ग से 13 प्रतिशत कम है और वे अनुसूचित जाति से भी पीछे हैं।
- दलितों के सबसे उच्च वर्ग की औसत आय ₹63,030, दूसरे उच्च वर्ग की आय ₹28,897 है, जो मराठा के तीन सबसे निम्न वर्गों से भी ज़्यादा है।
आय असमानता के कारण
- यह आंशिक रूप से शिक्षा के मोर्चे पर बदलाव के कारण हुआ है। वर्ष 2011-12 में 26 प्रतिशत ब्राह्मण स्नातक थे, जबकि यह मराठों के बीच केवल 8.1 प्रतिशत था। वर्ष 2004-05 से 2011-12 के दौरान, दलितों और ओ.बी.सी. ने शिक्षा में तेज़ गति से प्रगति की है।
- वर्ष 2004-05 में, दलितों में स्नातकों का प्रतिशत 1.9 प्रतिशत था और 2011-12 में यह दोगुने से अधिक 5.1 प्रतिशत हो गया है; ओ.बी.सी. के लिये यह आँकड़ा 3.5 प्रतिशत था, जो दो-गुना होकर 7.6 प्रतिशत हो गया। मराठों के लिये यह वर्ष 2004-05 में 4.6 प्रतिशत था, जो वर्ष 2011-12 में 8 प्रतिशत तक आ गया है।
- तुलनात्मक रूप से, दलितों में वेतनभोगी लोगों का प्रतिशत वर्ष 2011-12 में महाराष्ट्र में लगभग 28 प्रतिशत था, जबकि मराठों में यह 30 प्रतिशत था।
उच्चतम न्यायालय के निर्णय की समस्याएँ
- न्यायालय ने प्रभावी जातियों के निचले वर्गों के सकारात्मक भेदभाव की आवश्यकता को पहचानने से इनकार कर दिया, जिन्हें एक प्रमुख ‘ब्लॉक’ के रूप में देखा जा रहा है। यह निर्णय उन जटिलताओं को भी स्वीकार करने में विफल रहा है, जो उदारीकरण के बाद के भारत में इस वर्ग ने प्रस्तुत की है।
- सामाजिक वास्तविकताओं के लिये यह दृष्टिकोण विशुद्ध रूप से अंकगणितीय सीमा है, जिसकी संविधान में कोई अभिव्यक्ति नहीं मिलती है।
- परिवर्तित सामाजिक वास्तविकताओं के बारे में राज्य की दलीलों के जवाब में, न्यायालय ने कहा कि इस बात में कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि समाज बदलता है, कानून बदलता है, यहाँ तक की लोग भी बदलते हैं लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं है कि समाज की समानता को ‘केवल परिवर्तन’ के नाम पर ही बदल दिया जाए।
- न्यायालय ने इंद्रा साहनी मामले में न्यायमूर्ति पांडियन के चेतावनी नोट को नज़रअंदाज कर दिया, जहाँ उन्होंने सामाजिक नीति के व्यापक क्षेत्र में न्यायिक सर्वोच्चता के बारे में संदेह व्यक्त किया था क्योंकि इससे लाभार्थियों का ‘अवांछनीय बहिष्कार’ हो सकता है।
- यह निर्णय, आनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के साथ दशकों से चली आ रही ‘न्यायिक अधीरता’ (Judicial Impatience) की परिणति का प्रतिनिधित्व करता है।
- न्यायालय, एन.एम. थॉमस मामले में अपने स्वयं के अवलोकन को भूल गया कि ‘कार्यात्मक लोकतंत्र’ लोगों के सभी वर्गों की भागीदारी को प्रदर्शित करता है, और प्रशासन में ‘उचित प्रतिनिधित्व’ इस तरह की भागीदारी का एक सूचकांक है। इस मामले में ‘जन्म की असमानता’ को भी स्वीकार करते हुए ‘आनुपातिक समानता’ के विचार को प्रस्तुत किया था।
- निर्णय ने मराठों के पिछड़े होने के निर्धारण को यह कहकर खारिज कर दिया है कि सामान्य वर्ग के अन्य वर्गों के संबंध में उनके सापेक्ष अभाव और कम प्रतिनिधित्व उन्हें ‘सकारात्मक कार्रवाई’ के लिये पात्र नहीं बनाता है।
- न्यायालय ने जाट समुदाय के लिये आरक्षण को अस्वीकार करने के अपने निर्णय पर भरोसा करते हुए पुष्टि की कि नागरिकों का एक ‘स्व-घोषित सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग’ या यहाँ तक कि ‘उन्नत वर्गों’ का ‘कम भाग्यशाली’ की सामाजिक स्थिति के रूप में धारणा, पिछड़ेपन के निर्धारण के लिये संवैधानिक रूप से अनुमेय मानदंड नहीं है।
- न्यायालय ने माना कि गरीब मराठा, जाट और पटेल ‘स्व-घोषित’ पिछड़े लोग हैं, क्योंकि आधिकारिक आँकड़ों से इसकी पुष्टि होती है।
निष्कर्ष
इस प्रकार, न्यायालय ने राज्य सरकार के इस तर्क को खारिज कर दिया कि मराठा व्यावसायिक उच्च शिक्षा प्राप्ति और सार्वजनिक सेवाओं के वरिष्ठ पदों पर पिछड़ रहे हैं। न्यायालय प्रभावशाली जातियों के बढ़ते सामाजिक भेदभाव को एक उचित जाति जनगणना के माध्यम से चिह्नित कर सकता है।