(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ) |
संदर्भ
सर्वोच्च न्यायालय ने बिना प्रतिद्वंद्वी के निर्विरोध निर्वाचित होने की प्रथा पर सवाल उठाते हुए सरकार एवं निर्वाचन आयोग से जवाब माँगा है।
सर्वोच्च न्यायालय की हालिया टिपण्णी
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि कोई उम्मीदवार अकेला (निर्विरोध) मैदान में है तो उसे निर्वाचित घोषित करने से पहले न्यूनतम मत प्रतिशत (Vote Share) प्राप्त करना अनिवार्य किया जाना चाहिए।
- इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अधिक सशक्त एवं पारदर्शी बनाया जा सकेगा।
- न्यायालय का मानना है कि बिना मतदान (वोटिंग) के उम्मीदवार को विजेता घोषित करना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है।
- निर्विरोध निर्वाचन से नागरिकों के मताधिकार का अपमान हो सकता है, इसलिए चुनाव सुधारों पर विचार करना ज़रूरी है।
- नागरिकों के मताधिकार (Right to Vote) की सुरक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि प्रत्येक उम्मीदवार जनता से पर्याप्त समर्थन प्राप्त करे।
निर्विरोध निर्वाचन का वैधानिक आधार
- वर्तमान में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1953 की धारा 53 के अनुसार यदि किसी चुनाव में किसी क्षेत्र में केवल एक प्रत्याशी चुनाव मैदान में होता है तो उसे बिना मतदान के निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।
- यह प्रक्रिया कई बार लोकतांत्रिक भावना को आघात पहुँचाती है और मतदाताओं को अपनी पसंद व्यक्त करने का अवसर नहीं मिलता है।
भारतीय निर्वाचन प्रणाली में विद्यमान प्रमुख समस्या
धन एवं बाहुबल का प्रभाव
चुनावों में अवैध धन, शराब वितरण एवं बाहुबलियों की भूमिका लगातार चिंता का विषय बनी हुई है। इससे निर्धन उम्मीदवारों के लिए चुनाव में भाग लेना (चुनाव लड़ना) कठिन होता जा रहा है।
चुनावी व्यय में पारदर्शिता की कमी
चुनावी व्यय की एक सीमा तय होने के बावज़ूद भी वास्तविक व्यय इससे कहीं अधिक होता है। चुनावी फंडिंग में काले धन का प्रयोग भी एक बड़ी समस्या है।
आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का चुनाव लड़ना
आपराधिक मामलों में आरोपित कई व्यक्ति चुनाव जीत कर विधायी संस्थाओं में पहुँच जाते हैं। इससे विधायी निकायों की नैतिकता और विश्वासनीयता प्रभावित होती है।
मतदाता जागरूकता एवं भागीदारी में असमानता
ग्रामीण व अशिक्षित क्षेत्रों में मतदाता प्रलोभन या दबाव में मतदान करते हैं। कई शहरी क्षेत्रों में मतदान प्रतिशत बहुत कम रहता है।
दलबदल व राजनीतिक अस्थिरता
विजयी उम्मीदवार दल-बदल कर सत्ता समीकरणों को प्रभावित करते हैं जिससे जनादेश का अपमान होता है।
नोटा (None of the Above : NOTA) का सीमित प्रभाव
भले ही ‘नोटा (NOTA)’ का विकल्प उपलब्ध है किंतु इससे चुनाव परिणाम प्रभावित नहीं होता है। यदि NOTA सर्वाधिक मत प्राप्त कर ले, तब भी दूसरा सर्वाधिक मत पाने वाला उम्मीदवार विजेता बन जाता है।
फर्जी वोटिंग एवं बूथ कैप्चरिंग
विशेषकर कुछ इलाकों में बूथ कैप्चरिंग एवं फर्जी मतदान की घटनाएँ अभी भी होती हैं, हालाँकि, ई.वी.एम. के आने से इसमें कमी आई है।
चुनावों का बढ़ता सांप्रदायीकरण एवं जातीय ध्रुवीकरण
चुनाव प्रचार में जाति, धर्म एवं क्षेत्रीय पहचान को आधार बनाकर वोट माँगे जाते हैं जिससे सामाजिक विभाजन बढ़ता है।
चुनाव आयोग की सीमित शक्तियाँ
निर्वाचन आयोग स्वतंत्र संस्था है किंतु उसकी शक्तियाँ कुछ मामलों में सीमित हैं, जैसे- दोषी उम्मीदवारों को तुरंत अयोग्य घोषित करना आदि।
भारतीय निर्वाचन प्रणाली में सुधार से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के महत्त्वपूर्ण निर्णय
- एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) बनाम भारत संघ वाद (2002): इस वाद में उम्मीदवारों को आपराधिक, वित्तीय एवं शैक्षिक विवरण का खुलासा करना अनिवार्य किया गया, जिससे चुनाव प्रणाली की पारदर्शिता में वृद्धि हुई।
- पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) बनाम भारत संघ (2013): इस वाद के निर्णय के आलोक में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) में नोटा विकल्प शामिल करते हुए मतदाताओं को उम्मीदवारों को अस्वीकार करने का अधिकार दिया गया, जोकि उनकी पसंद के मौलिक अधिकार के अनुरूप है (अनुच्छेद 19)।
- लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013): इस वाद में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) को समाप्त कर दिया गया है जिससे दोषी विधायकों की तत्काल अयोग्यता सुनिश्चित हुई।
- लोक प्रहरी बनाम भारत संघ (2013): इस वाद में निर्वाचन संबंधी विवादों के त्वरित समाधान के साथ ही पारदर्शिता पर जोर दिया गया।
- ए.डी.आर. बनाम भारत संघ (2024): इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक घोषित किया, जिससे राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता बहाल हुई।
चुनाव सुधारों के लिए भारतीय निर्वाचन आयोग के प्रयास
- SVEEP (व्यवस्थित मतदाता शिक्षा एवं चुनावी भागीदारी) कार्यक्रम: भारत की चुनावी प्रक्रिया में मतदाताओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा यह कार्यक्रम वर्ष 2009 में शुरू किया गया।
- आम चुनाव 2024 में पात्र मतदाताओं के लिए घर से मतदान: पहली बार 85 वर्ष से अधिक आयु के वरिष्ठ नागरिकों और 40% विकलांगता वाले दिव्यांगों के लिए घर से मतदान की सुविधा को देश भर में बढ़ाया गया, जिससे मतदान भागीदारी में वृद्धि हुई।
- डुप्लीकेट मतदाता पहचान-पत्रों का उन्मूलन (2025): इसे वर्तमान में भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) के सहयोग से शुरू किया गया है।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी भारतीय लोकतंत्र को अधिक सशक्त, उत्तरदायी एवं सहभागी बनाने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। यदि निर्विरोध निर्वाचन में भी न्यूनतम जनसमर्थन की अनिवार्यता लागू की जाती है तो इससे चुनावी प्रक्रिया में जनता की भूमिका और महत्त्व बढ़ेगा तथा लोकतांत्रिक आदर्शों की रक्षा सुनिश्चित होगी।