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अधिशेष दूध पाउडर : डेयरी उद्योग की नई समस्या

(प्रारंभिक परीक्षा : भारतीय अर्थव्यवस्था एवं प्रौद्योगिकी)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नप्रत्र- 3 : आर्थिक विकास, भारत में खाद्यान्न उत्पादन एवं संबंधित उद्योग-प्रवाह एवं महत्त्व और समस्याएँ)

संदर्भ

भारत विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक है किंतु विगत कुछ वर्षों में दूध पाउडर अधिशेष (Surplus) के कारण डेयरी उद्योग एक नई समस्या का सामना कर रहा है। इस समस्या के विभिन्न पहलुओं को समझना और समाधान खोजना आवश्यक है ताकि डेयरी उद्योग को एक स्थिर व लाभकारी स्थिति में लाया जा सके।

क्या है स्किम्ड मिल्क पाउडर (Skimmed Milk Powder : SMP)

  • गाय के दूध में औसतन 3.5% वसा और 8.5% ठोस-गैर-वसा (Solids-not-fat : SNF) होता है, जबकि भैंस के दूध में यह 6.5% और 9% होता है। 
  • खराब होने के कारण दूध का भंडारण नही किया जा सकता है। क्रीम को अलग करने और स्किम्ड दूध को सुखाने के बाद केवल इसके ठोस भाग (अर्थात वसा व SNF) का भंडारण किया जा सकता है।
  • ‘फ्लश’ (Flush) सीजन के दौरान मवेशी एवं भैंस द्वारा अधिक उत्पादन करने पर डेयरियाँ अतिरिक्त दूध को मक्खन, घी व एस.एम.पी. में परिवर्तित कर देती हैं। 
  • इन ठोस पदार्थों (SNF) को पानी के साथ मिलकर ‘लीन’ (Lean) सीजन के दौरान तरल दुग्ध में बदल दिया जाता है क्योंकि लीन सीजन में पशुओं द्वारा उत्पादन कम हो जाता है जो मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होता है।
    • दक्षिण एवं महाराष्ट्र (गायों की अधिक संख्या वाले राज्य) में फ्लश सीजन आमतौर पर जुलाई से लेकर दक्षिण-पश्चिमी मानसून की बारिश के बाद दिसंबर तक रहता है। 
    • उत्तर एवं गुजरात में यह सितंबर से मार्च तक रहता है (इस समय भैंसों के बच्चे भी पैदा होते हैं क्योंकि इस क्षेत्र में इनकी संख्या गायों से अधिक है)।
  • प्रत्येक 100 लीटर (या 103 किग्रा.) गाय के दूध से एक डेयरी लगभग 8.75 किग्रा. एस.एम.पी. (8.5% एस.एन.एफ. पर) और 3.6 किग्रा. घी (3.5% वसा पर) बना सकती है।
  • सहकारी एवं निजी डेयरियों के पास उत्पादन वर्ष की शुरुआत में अनुमानित 3-3.25 लाख टन (LT) एस.एम.पी. स्टॉक होता है जो जुलाई से जून तक चलता है।

क्या आप जानते हैं?

  • डेयरी व्यापार में 'फ्लश' (Flush) एवं 'लीन' (Lean) शब्द उन महीनों को संदर्भित करते हैं जब दूध का उत्पादन बढ़ता व घटता है। उत्पादन में वृद्धि का संबंध मूलतः वर्षाकाल और इसके बाद हरे चारे की उपलब्धता से है। 
  • इस प्रकार सामान्यत: सितंबर/अक्तूबर से फरवरी/मार्च तक पशु स्वाभाविक रूप से अधिक दूध देते हैं, जिसे फ्लश सीजन कहा जाता है। मार्च के बाद गर्मी के प्रभाव के कारण पशुओं के दुग्ध उत्पादन में कमी आने लगती हैं जिसे ‘लीन सीजन’ कहा जाता है। 
    • हालाँकि, यह विशिष्ट एवं आधिकारिक विभाजन नहीं है और स्थान विशेष के अनुसार महीनों में बदलाव होता है।

क्या है एस.एम.पी. में अधिशेष की समस्या

  • उत्पादन में वृद्धि : पिछले कुछ वर्षों में दुग्ध उत्पादन में तीव्र वृद्धि हुई है। वर्ष 2023-24 प्रचुर मात्रा में एवं निरंतर दुग्ध आपूर्ति वाला वर्ष था। 
    • बेहतर भुगतान से किसानों को अच्छा चारा एवं अधिक जानवरों को शामिल करके उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिला। हालाँकि, इसके साथ दुग्ध पाउडर के अधिशेष की समस्या भी बढ़ गयी।
  • घरेलू मांग में कमी : दुग्ध पाऊडर की घरेलू मांग अपेक्षाकृत स्थिर रही है जबकि उत्पादन बढ़ता गया। इससे स्टॉक में अधिक मात्रा में अधिशेष पाउडर जमा हो गया है। 
    • भारत में डेयरियाँ प्रतिवर्ष 5.5-6 लाख टन लीटर एस.एम.पी. का उत्पादन करती हैं। लगभग 4 लाख टन लीटर एस.एम.पी. का उपयोग लीन सीजन के दौरान किया जाता है।
    • शेष 1.5-2 लाख टन लीटर एस.एम.पी. का उपयोग आइसक्रीम, बिस्कट, चॉकलेट, मिठाई, बेबी फ़ॉर्मूला और अन्य खाद्य एवं औद्योगिक उत्पादों द्वारा उपभोग किया जाता है।
  • निर्यात में बाधाएँ : वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा, निर्यात नियम एवं विनियम और अन्य देशों की संरक्षणवादी नीतियां भारतीय दूध पाउडर के निर्यात को सीमित कर रही हैं।
  • मूल्य में गिरावट : डेयरियों द्वारा सामान्य अधिशेष से अधिक दूध खरीदने से फ्लश सीजन के दौरान उत्पादित एस.एम.पी. एवं मक्खन/घी को ज्यादा खरीदार नहीं मिलते हैं। इसके कारण घरेलू बाजार में दुग्ध पाउडर के मूल्य में गिरावट आई है, जिससे डेयरी किसानों व उत्पादकों को वित्तीय नुकसान हो रहा है।
  • सीजन पर निर्भरता : अप्रैल-जून के चरम ग्रीष्मकालीन महीनों सहित दूध की उपलब्धता में वृद्धि के परिणामस्वरूप मुश्किल से 2.5 लाख टन लीटर एस.एम.पी. की खपत हुई।
    • नए फ्लश सीजन की शुरुआत और सितंबर के बाद एस.एम.पी. के चरम पर पहुंचने की उम्मीद से साथ अधिशेष की समस्या अधिक बदतर हो सकती है।

समाधान 

  • निर्यात को बढ़ावा देना : सरकार को निर्यात प्रोत्साहन योजनाएं और सब्सिडी प्रदान करनी चाहिए, ताकि भारतीय दूध पाऊडर को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाया जा सके। इसके अलावा, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय व्यापार समझौतों में सुधार की आवश्यकता है।
  • घरेलू उपयोग को प्रोत्साहित करना : दूध पाउडर के घरेलू उपयोग को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। इसमें स्कूलों, अस्पतालों व सरकारी कार्यक्रमों में दूध पाउडर का उपयोग बढ़ाने के प्रयास किए जा सकते हैं।
  • नवाचार एवं अनुसंधान : दूध पाउडर के विभिन्न उपयोगों व इससे नए उत्पादों के निर्माण के लिए अनुसंधान एवं विकास को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके तहत विभिन्न खाद्य उत्पादों, बेबी फॉर्मूला और पोषण संबंधी सप्लीमेंट्स में दूध पाउडर का उपयोग बढ़ाया जा सकता है।
  • बाज़ार विकसित करना : मध्यम अवधि में डेयरी उद्योग को एस.एम.पी. या इसके घटकों, जैसे- प्रोटीन (कैसीन व मट्ठा), कार्बोहाइड्रेट (लैक्टोज) एवं खनिजों (मुख्यत: कैल्शियम, पोटेशियम व फॉस्फोरस) के लिए बाजार विकसित करना होगा।
  • ये बाज़ार विकसित करने के दो कारण हैं : 
    • भारत में दुग्ध वसा की मांग बढ़ रही है किंतु प्रति 1 किलो वसा के लिए डेयरियाँ 2.4 किग्रा. से ज़्यादा एस.एम.पी. बनाती हैं। 
    • किसान गाय पालना पसंद करते हैं क्योंकि वे अनुत्पादक मवेशियों के निपटान से संबंधित मुद्दों के बावजूद अधिक दूध देती हैं और भैंसों की तुलना में जल्दी बच्चे पैदा करना शुरू कर देती हैं। 
    • भैंस के दूध से 1 किग्रा. वसा के लिए 1.4 किग्रा. से कम एस.एम.पी. का उत्पादन होता है।
  • मूल्य स्थिरीकरण : सरकार को मूल्य स्थिरीकरण कोष एवं नीतियों को लागू करना चाहिए ताकि दूध पाऊडर के मूल्य में अत्यधिक उतार-चढ़ाव को रोका जा सके। इससे डेयरी किसानों व उत्पादकों को वित्तीय सुरक्षा मिलेगी।
  • कोल्ड स्टोरेज इंफ्रास्ट्रक्चर : दूध पाऊडर के भंडारण के लिए बेहतर कोल्ड स्टोरेज इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करना चाहिए। इससे उत्पाद की गुणवत्ता बनाए रखने और लंबे समय तक सुरक्षित भंडारण में मदद मिलेगी।

निष्कर्ष

  • दूध पाऊडर अधिशेष भारतीय डेयरी उद्योग के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है। चूंकि भारत में दूध का एक बड़ा हिस्सा गायों से प्राप्त होता है, इसलिए अधिशेष एस.एम.पी. के लिए बाजार उपलब्धता भी एक चुनौती बन सकती है। इसलिए उचित नीतियों व रणनीतियों की आवश्यकता है। 
  • निर्यात को बढ़ावा देने, घरेलू उपयोग को प्रोत्साहित करने और अनुसंधान एवं विकास में निवेश करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। सरकार एवं उद्योग को मिलकर इस दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि डेयरी उद्योग को स्थिरता व समृद्धि मिल सके।
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