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संधारणीय कृषि : भविष्य की राह

(प्रारंभिक परीक्षा : पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन सम्बंधी सामान्य मुद्दे,)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र –3 : कृषि, पर्यावरण संरक्षण)

सन्दर्भ

कोविड-19 महामारी ने विभिन्न देशों में खाद्य सुरक्षा के दावों का वास्तविक रूप उजागर कर दिया है तथा खाद्य फसलों की प्रचलित प्रणालियों पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है, जिससे धारणीय कृषि का महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया है।

पृष्ठभूमि

  • कृषि क्षेत्र विश्व का सबसे बड़ा रोज़गार प्रदाता क्षेत्र है एवं भोजन प्राप्ति तथा आय का मुख्य स्रोत है विशेषकर गरीब वर्ग के लिये। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों में आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपनी आजीविका के लिये कृषि तथा इससे सम्बद्ध गतिविधियों पर ही निर्भर हैं। विभिन्न महत्त्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियाँ कच्चे माल की आपूर्ति हेतु इसी क्षेत्र पर ही निर्भर है तथा सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति के लिये कृषि क्षेत्र का बेहतर प्रदर्शन का विशेष महत्त्व रखता है।
  • वर्ष 2015 में 193 देशों द्वारा 17 सतत विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals – SDGs) की प्राप्ति हेतु कृषि और इसके सम्बद्ध क्षेत्रों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है।

वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र की चुनौतियाँ

  • दुनिया के अधिकांश हिस्सों में कृषि का वर्तमान प्रचलित रूप कई चुनौतियों का सामना कर रहा है।जैसे,निरंतर सीमित होते संसाधन,भूमि तथा जल संसाधनों का अत्यधिक दोहन और जलवायु परिवर्तन आदि।
  • इस आधुनिक दौर में भी प्रचलित कृषि और खाद्य प्रणालियाँ सभी के लिये खाद्य सुरक्षा (Food Security For All) प्रदान करने में विफल रही हैं।यह मानव जाति के समक्ष एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है।
  • कृषि क्षेत्र के सामने कई समकालीन चुनौतियाँ भी हैं, जैसे कीटनाशकों और रसायनों पर आधारित कृषि तथा प्रचलित खाद्य उत्पादन के कारण भूमि क्षरण, वाणिज्यिक आवश्यकताओं हेतु वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण जीव-जंतुओं के प्राकृतिक निवास स्थान (Natural Habitat) और समृद्ध जैव विविधता की हानि, प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन तथा वायु, मृदा और जलकी गुणवत्ता पर प्रदूषण का प्रभाव आदि।
  • सामान्यतः प्रगति सामाजिक और पर्यावरणीय लागतों के साथ आती है, जिनमें भूमि का क्षरण, जलस्तर में गिरावट, जैव विविधता का ह्रास और ग्रीन हाउस गैसों का उच्च स्तरीय उत्सर्जन शामिल हैं। विकास प्रक्रिया में पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों की उत्पादन क्षमता के साथ समझौता किया गया है, जो भविष्य में इस गृह की उर्वरता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।
  • वर्तमान में प्रचलित आहार पैटर्न के कारण वैश्विक स्तर पर फसल उत्पादन संरचना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं, जोकि हरित गैसों के उत्सर्जन हेतु निर्णायक रूप से उत्तरदायी हैं।
  • कृषि में सिंथेटिक उर्वरकों और कीट नाशकों के उपयोग से पारिस्थितिकी तंत्र में रासायनिक प्रदूषण होता है। इस तरह के अनुचित और अस्वास्थ्यकर कृषि अभ्यास भविष्य में भूमि, जल और उर्जा की प्रतिस्पर्धा को और अधिक जटिल बना देंगे।
  • दक्षिण एशिया तथा दुनिया के अन्य हिस्सों में कृषि योग्य भूमि में गिरावट के साथ तीव्र गति से बढ़ती आबादी के कारण भूमि, जल और ऊर्जा संसाधनों पर अत्यधिक दबाव बढ़ा है।
  • वर्तमान में किसान बाढ़, सूखा, तापमान में वृद्धि, अप्रत्याशित वर्षा, नए फसल रोगों और टिड्डों के आक्रमण जसी समस्याओं का भी सामना कर रहे हैं।
  • जलवायु परिवर्तन के परिणाम स्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ़ गया है, जिससे निचले इलाकों के तटीय क्षेत्रों में खारे पानी के प्रवाह से मृदा में लवणता की मात्रा बढ़ी है।
  • खाद्य फसलों में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि के परिणाम स्वरूप उनमें उपस्थित जस्ता, लोहा व प्रोटीन के स्तर में कमी आई है। CO2 की इस वृद्धि से भावी पीढ़ियों के पोषण स्तर में व्यापक स्तर पर कमी होने की सम्भावना है।

संधारणीय कृषि हेतु सुझाव

  • वर्तमान में खाद्य उत्पादन के पर्याप्त संसाधनों की खोज तथा पृथ्वी के संसाधनों का अत्यधिक दोहन किये बिना स्वस्थ आहार तक सबकी पहुँच सुनिश्चित करना आवश्यक है।
  • खाद्य फसलों को पर्यावरण हितैषी बनाकर गरीबी उन्मूलन की दिशा में अग्रसर किया जाना चाहिये।
  • खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के अनुसार कृषि क्षेत्र में सही तरीकों को अपनाया जाए तो सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
  • उदहारण स्वरुप एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (MSSRF) के  नेतृत्व में भारत के कोरोमंडल तट पर इंटीग्रेटेड मैंग्रोव रिस्टोरेशन प्रोग्राम (1999 – 2002) के तहत डीग्रेडेड मैंग्रोव वेटलैंड की 1,500 हेक्टेयर से अधिक भूमि की बहाली की गई बाद में जॉइंट मैंग्रोव मैनेजमेंट (JMM) प्रोग्राम की सहायता से सयुंक्त रूप से व्यापक स्तर परमैंग्रोव की बहाली सम्भव हुई।इन मैंग्रोव नेवर्ष 2004 में आई बाढ़ के विरूद्ध एक मज़बूत बफ़र के रूप में कार्य किया।
  • फसल उत्पादन की कुशल एवं धारणीय प्रक्रियाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।फसल या पशु अपशिष्ट खेतों में खाद के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिये, जिससे बिना दुष्प्रभावों के मृदा की उर्वरता बढ़ती है।
  • ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतोंतथा वर्षा जल संग्रह संसाधनों के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये तथा हाइड्रोपोनिक (पोषक तत्वों से भरपूर जल के घोलों में पौधे उगाना), एक्वापोनिक (जल और मछली के अपशिष्ट के उपयोग से पौधे उगाना) तथा एरोपोनिक (पोषक तत्वों से भरपूर पानी के छिड़काव करके पौधे उगाना) जैसी नवाचारी तकनीकों के माध्यम से बिना मिटटी के फसल उत्पादन पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
  • उत्तर-पश्चिम भारत 1960 और 1970 के दशक में हरित क्रांति का केंद्र था।यहाँ गेहूं तथा चावल की फसल प्रणाली के चलते भूजल स्तर में अत्यधिक गिरावट आई और यह गिरावट अभी भी जारी है। इस क्षेत्र में कम जल और कम उर्जा वाली फसलों पर ध्यान केंद्रित करके नवाचारी प्रौद्योगिकी को अपनाया जाना चाहिये।
  • किसानों को विद्युत सब्सिडी देने के बजायफसल के खरीद मूल्य में वृद्धि की जानी चाहिये, जिससे जल का कुशलता से उपयोग हो सकेगा तथा किसानों को फसल का उचित मूल्य भी मिल पाएगा।
  • चावल की अपेक्षा दाल, बाजरा और मक्का जैसी कम सिंचाई की आवश्यकता तथा अधिक पोषक तत्वों वाली फसलों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

यह स्पष्ट है कि वर्तमान में अपनाए जा रहे उदासीन प्रकृति के प्रयासों से सतत विकास लक्ष्यों (विशेष रूप से खाद्य और कृषि से सम्बंधित) को प्राप्त नहीं किया जा सकता। कृषि की प्रचलित प्रणालियों में सुधार करते हुए भारत के कृषि सुधारों से सम्बंधित प्रयासों का अनुसरण किया जा सकता है।

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