(प्रारंभिक परीक्षा : आर्थिक और सामाजिक विकास- सतत् विकास, गरीबी, समावेशन)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र- 2: सरकारी नीतियाँ, गरीबी एवं भूख से संबंधित विषय)
संदर्भ
भारत में, सरकार के लिये एक आम सहमति बनाना मुश्किल है कि कोविड-19 से लड़ने और भारत को इसके प्रकोप से सुरक्षित रखने के लिये, मृतकों की सही संख्या को सावधानीपूर्वक प्रलेखित (Documented) किया जाना आवश्यक है।
अनिवार्यता
- उक्त संदर्भ के अतिरिक्त एक और विषय जिस पर समान रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है, यदि गिरती भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति को सुधारना है तो वह है गरीबों की संख्या को सावधानीपूर्वक गिनना तथा उन्हें प्राथमिकता प्रदान करना।
- विश्व बैंक $2 प्रतिदिन (गरीबी रेखा) की सीमा अपर्याप्त हो सकती है, लेकिन यह सी. रंगराजन समिति द्वारा प्रस्तावित गरीबी रेखा की तुलना में उच्चतर ही होगी।
- भारत में गरीबों की बढ़ती संख्या के कई कारण हैं। भारत के महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा ने इसमें बाधा डाली है क्योंकि इससे सरकारें गरीबी में नाटकीय वृद्धि को छिपाने में सक्षम हो जाती हैं।
- वर्ष 2013 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत $616 प्रति वर्ष की औसत आय के साथ 131 देशों में 99वें स्थान पर है, और यह ब्रिक्स देशों में सबसे कम था। साथ ही, भारत ‘निम्न मध्यम आय’ वाले देश के वर्ग में पहुँच गया है।
ग़रीबों की संख्या
- तीन महत्त्वपूर्ण आँकड़ों से स्पष्ट है कि यदि भारत को विकास की राह पर आगे बढ़ना है तो इसे गरीबों की स्थिति को स्वीकार करना होगा।
- पहला, वर्ष 1972-73 के बाद पहली बार वर्ष 2017-18 के मासिक ‘प्रति व्यक्ति खपत व्यय’ में गिरावट, जिसे सरकार ने एकत्र किये गए डाटा की गुणवत्ता का हवाला देते हुए रोक दिया।
- दूसरा, ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ में भारत का स्थान ‘गंभीर श्रेणी में दर्ज हो गया है।
- तीसरा, भारत का अपना स्वास्थ्य जनगणना डाटा या हाल ही में संपन्न ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ या एन.एफ.एच.एस. -5, जिसमें बढ़ते कुपोषण, शिशु मृत्यु दर और मातृ स्वास्थ्य के चिंताजनक आँकड़ें थे।
- इस साल की शुरुआत में एक चौथा आँकड़ा, जिसमें बांग्लादेश ने भारत की ‘औसत आय’ के आँकड़ों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। ये सभी आँकड़े सरकार के लिये ‘आत्मनिरीक्षण’ करने का एक कारण होने चाहिये।
ग़रीबों की बढ़ती संख्या
- वर्ष 2016 के ‘विमुद्रीकरण’ के पश्चात् की अनिश्चित स्थिति को कोविड-19 महामारी और अर्थव्यवस्था के संकुचन ने और भी जटिल बना दिया है।
- वर्ष 2019 में, वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (Global Multidimensional Poverty Index) से स्पष्ट होता है कि भारत ने वर्ष 2006 और 2016 के मध्य 271 मिलियन नागरिकों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला है।
- तब से, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, हंगर वॉच, स्वान और कई अन्य सर्वेक्षण एक निश्चित गिरावट को प्रदर्शित करते हैं।
- मार्च में, विश्व बैंक के आँकड़ों के साथ ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ ने अनुमान लगाया कि भारत में गरीबों की संख्या, प्रति दिन $2 की आय या क्रय शक्ति समता के आधार पर, महामारी से प्रेरित मंदी के कारण सिर्फ एक साल में 60 मिलियन से दोगुनी से अधिक 134 मिलियन हो गई है।
- वर्ष 2020 में, भारत ने वैश्विक गरीबों की वृद्धि में 57.3 प्रतिशत का योगदान दिया है।
- आज़ादी के बाद पहले 25 वर्षों में जब भारत सरकार ने गरीबी में वृद्धि की सूचना दी थी अर्थात् वर्ष 1951 से 1974 तक, गरीबों की आबादी 47 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हो गई थी।
गरीबी रेखा पर बहस
- भारत में, वर्ष 2011 में गरीबी रेखा पर व्यापक बहस हुई थी। सुरेश तेंदुलकर समिति ने ग्रामीण भारत के लिये ₹816 प्रति व्यक्ति प्रति माह तथा शहरी भारत के लिये ₹1,000 प्रति व्यक्ति प्रति माह की रेखा निर्धारित की थी, जिसमे गरीबों की संख्या कुल जनसंख्या के 25.7 प्रतिशत थी।
- तेंदुलकर समिति के निष्कर्षों पर व्यापक नाराज़गी के कारण सी. रंगराजन समिति गठित की गई थी, जिसने वर्ष 2014 में अनुमान व्यक्त किया कि गरीबों की संख्या 29.6 प्रतिशत है, जो शहरों में प्रतिदिन ₹47 और गाँवों में ₹32 से कम खर्च करने वाले व्यक्तियों के आधार पर थी।
संख्या की गणना करने के कारण
- संख्याएँ कई कारणों से मायने रखती हैं। पहला, संख्या जानने और उन्हें सार्वजनिक करने से बड़े पैमाने पर तत्काल नकद हस्तांतरण करने के लिये जनता की राय प्राप्त करना संभव हो जाता है।
- दूसरा, सभी नीतियों का ईमानदारी से मूल्यांकन इस आधार पर किया जा सकता है कि वे बहुसंख्यक की ज़रूरतों को पूरा करते हैं या नहीं।
- तीसरा, अगर सरकारी आँकड़े ईमानदारी से गरीबों की सही संख्या प्रदर्शित करते हैं, तो ‘वास्तविक बहुसंख्यक’ की चिंताओं पर सार्वजनिक बहस की उम्मीद की जा सकती है। साथ ही, एक ऐसा माहौल बनाना अधिक यथार्थवादी हो सकता है, जो जनप्रतिनिधियों से जवाबदेही की माँग करे।
- चौथा, भारत ने बाज़ार पूँजीकरण और सबसे अमीर भारतीय कॉर्पोरेट्स की संपत्ति में भारी वृद्धि देखी है, जबकि इसके इतर, इसी अवधि में लाखों भारतीय गरीबी की जाल में फँस गए हैं।
- शेयर बाज़ार और भारतीय अर्थव्यवस्था अंतर्संबंधित नहीं हैं। भारतीयों को यह प्रश्न करने का अधिकार होना चाहिये कि धन में भारी वृद्धि का संयोग सामान्य नहीं है, जबकि लाखों गरीब उसी समय बुनियादी आवश्यकताओं के लिये जूझ रहे हों।
‘ब्रेड लाइन’
- वर्ष 2004 में असंगठित क्षेत्र से संबंधित राष्ट्रीय उद्यम आयोग के अध्यक्ष अर्जुन सेनगुप्ता ने निष्कर्ष निकाला था कि 836 मिलियन भारतीय अभी भी हाशिये पर हैं।
- उन्होंने सबसे ‘गरीब से गरीब व्यक्ति’ की बात की और सामाजिक सुरक्षा पर इसी आयोग की सिफारिशों के परिणामस्वरूप असंगठित क्षेत्र के श्रमिक के लिये ‘सामाजिक सुरक्षा अधिनियम’ का अधिनियमन हुआ।
- उस समय उनके निष्कर्ष को नज़रअंदाज कर दिया गया था कि भारत की 77 प्रतिशत आबादी हाशिये पर है। इस बात पर ज़ोर दिया गया की 25.7 प्रतिशत के आँकड़े की तुलना में यह समस्या अधिक गंभीर है।
- विदित है कि ‘ब्रेड लाइन’ की उत्पत्ति वर्ष 1890 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में आर्थिक मंदी और न्यूयॉर्क रेस्तरां द्वारा दान के कारण हुई थी, जिसने ‘सूप रसोई’ का आयोजन किया था, जिसमे रोटी चाहने वालों की कतार बहुत लंबी थी।
- सड़कों पर एक लंबी कतार को दूर करने के लिये नीतिगत प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है, केवल इसे दूर से देखने से इसका समाधान नहीं हो सकता।
निष्कर्ष
- भारत में गरीबों की बढ़ती संख्या, जो घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षणों में स्पष्ट है, उस वास्तविक साक्ष्य को एक संस्थागत प्रतिक्रिया के साथ मिलना आवश्यक है।
- अधिकांश भारतीयों के निम्न जीवन स्तर के लिये उन्हें दोष नहीं दे सकते हैं, फिर भी उनकी गणना यह बताने के लिये एक आवश्यक है कि ‘प्रत्येक मानव जीवन मायने रखता’ है।